Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

शिकवा शिकायत

प्रेमचंद

शिकवा शिकायत

प्रेमचंद

MORE BYप्रेमचंद

    स्टोरीलाइन

    यह आत्मकथ्यात्मक शैली में लिखी गई चरित्र प्रधान कहानी है। शादी के बाद एक लंबा अरसा गुज़र जाने पर भी उसे हर वक़्त अपने शौहर से शिकायतें है। उसकी कोई भी बात, काम, सलीक़ा या फिर तरीक़ा पसंद नहीं आता। शिकवे इस क़दर हैं कि सारी ज़िंदगी बस जैसे-तैसे गुज़र गई है। मगर इन शिकायतों में भी एक ऐसा रस है जिससे शौहर के बिना एक लम्हें के लिए दिल भी नहीं लगता।

    ज़िंदगी का बड़ा हिस्सा तो इसी घर में गुज़र गया, मगर कभी आराम नसीब हुआ। मेरे शौहर दुनिया की निगाह में बड़े नेक, ख़ुशखल्क़, फ़य्याज़ और बेदार मग़ज़ होंगे, लेकिन जिस पर गुज़रती है वही जानता है, दुनिया को तो उन लोगों की तारीफ़ में मज़ा आता है जो अपने घर को जहन्नुम में डाल रहे हों और ग़ैरों के पीछे अपने आप को तबाह किए डालते हों, जो घर वालों के लिए मरता है, उसकी तारीफ़ दुनिया वाले नहीं करते, वो तो उनकी निगाह में ख़ुदग़रज़ है, बख़ील है, तंग दिल है, मग़रूर है, कोर बातिन है, उसी तरह जो लोग बाहर वालों के लिए मरते हैं, उनकी तारीफ़ घर वाले क्यों करने लगे, अब इन्हीं को देखो, सुबह से शाम तक मुझे परेशान किया करते हैं, बाहर से कोई चीज़ मँगवाओ तो ऐसी दुकान से समान लाएंगे जहां कोई गाहक भूल कर भी जाता हो, ऐसी दुकानों पर चीज़ अच्छी मिलती है, वज़न ठीक होता है, दाम ही मुनासिब, ये नक़ाइस होते तो वो दुकान बदनाम ही क्यों होती, उन्हें ऐसी ही दुकानों से सौदा सुल्फ़ ख़रीदने का मर्ज़ है। बारहा कहा कि किसी चलती हुई दुकान से चीज़ें लाया करो, वहां माल ज़्यादा खपता है, इसलिए ताज़ा माल आता रहता है, मगर नहीं टूटपुंजियों से उनको हमदर्दी है और वो उन्हें उल्टे उस्तरे से मूंडते हैं। गेहूं लाएंगे तो सारे बाज़ार से ख़राब, घुना हुआ, चावल ऐसा मोटा कि बैल भी पूछे, दाल में कंकर भरे हुए, मनों लकड़ी जला डालो क्या मजाल के गले, घी लाएंगे तो आधों आध तेल और नर्ख़ असली घी से एक छटांक कम, तेल लाएंगे तो मिलावट का, बालों में डालो तो चिकट जाएं, मगर दाम दे आएँगे आला दर्जे के चम्बेली के तेल के, चलती हुई दुकान पर जाते तो जैसे उन्हें डर लगता है, शायद ऊंची दुकान और फीके पकवान के क़ाइल हैं, मेरा तजुर्बा कहता है कि नीची दुकान पर सड़े पकवान ही मिलते हैं।

    एक दिन की बात हो तो बर्दाश्त कर ली जाये। रोज़ रोज़ की ये मुसीबत नहीं बर्दाश्त होती, मैं कहती हूँ आख़िर टूटपुंजियों की दुकान पर जाते ही क्यों हैं। क्या उनकी परवरिश का ठेका तुम ही ने ले लिया है। आप फ़रमाते हैं, मुझे देख कर बुलाने लगते हैं, ख़ूब! ज़रा उन्हें बुला लिया और ख़ुशामद के दो चार अलफ़ाज़ सुना दिए, बस आपका मिज़ाज आसमान पर जा पहुंचा, फिर इन्हें सुध ही नहीं रहती कि वो कूड़ा करकट बांध रहा है या क्या। मैं पूछती हूँ, तुम उस रास्ते से जाते ही क्यों हो? क्यों किसी दूसरे रास्ते से नहीं जाते? ऐसे उठाईगिरों को मुँह ही क्यों लगाते हो? इसका कोई जवाब नहीं, एक ख़मोशी सौ बलाओं को टालती है।

    एक बार एक ज़ेवर बनवाना था, मैं तो हज़रत को जानती थी, उनसे कुछ पूछने की ज़रूरत समझी, एक पहचान के सुनार को बुला रही थी, इत्तिफ़ाक़ से आप भी मौजूद थे, बोले ये फ़िर्क़ा बिल्कुल एतबार के क़ाबिल नहीं, धोका खाओगी। मैं एक सुनार को जानता हूँ, मेरे साथ का पढ़ा हुआ है, बरसों साथ खेले हैं, मेरे साथ चाल बाज़ी नहीं कर सकता, मैंने समझा जब उनका दोस्त है और वो भी बचपन का तो कहाँ तक दोस्ती का हक़ निभाएगा, सोने का एक ज़ेवर और पच्चास रुपया उनके हवाले किये और उस भले आदमी ने वो चीज़ और रुपया जाने किस बेईमान को दे दिए कि बरसों के पैहम तक़ाज़ों के बाद जब चीज़ बन कर आई तो रुपया में आठ आने ताँबा और इतनी बदनुमा कि देख कर घिन आती थी। बरसों का अरमान ख़ाक में मिल गया, रो पीट कर बैठ रही, ऐसे ऐसे वफ़ादार तो उनके दोस्त हैं, जिन्हें दोस्त की गर्दन पर छुरी फेरने में भी आर नहीं, उनकी दोस्ती भी उन्ही लोगों से है, जो ज़माने भर के फ़ाकामस्त, क़लांच, बे सर-व-सामान हैं, जिनका पेशा ही उन जैसे आँख के अंधों से दोस्ती करना है। रोज़ एक एक साहब मांगने के लिए सर पर सवार रहते हैं और बिना लिए गला नहीं छोड़ते, मगर ऐसा कभी नहीं हुआ कि किसी ने रुपया अदा किए हों, आदमी एक बार खो कर सीखता है, दो बार खो कर सीखता है, मगर ये भले मानुस हज़ार बार खो कर भी नहीं सीखते। जब कहती हूँ, रुपया तो दे आए, अब मांग क्यों नहीं लाते, क्या मर गए तुम्हारे वो दोस्त, तो बस बग़लें झांक कर रह जाते हैं। आप से दोस्तों को सूखा जवाब नहीं दिया जाता। ख़ैर सूखा जवाब दो, मैं भी नहीं कहती कि दोस्तों से बेमुरव्वती करो, मगर टाल तो सकते हो, क्या बहाने नहीं बना सकते, मगर आप इनकार नहीं कर सकते, किसी दोस्त ने कुछ तलब किया और आप के सर पर बोझ पड़ा। बेचारे कैसे इनकार करें। आख़िर लोग जान जाऐंगे कि ये हज़रत भी फ़ाकामस्त हैं, दुनिया उन्हें अमीर समझती रहे, चाहे मेरे ज़ेवर ही क्यों गिरवी रखने पड़ें। सच कहती हूँ, बा'ज़ औक़ात एक एक पैसे की तंगी हो जाती है और इस भले आदमी को रुपया जैसे घर में काटते हैं। जब तक रूपयों के वारे न्यारे कर ले, उसे किसी पहलू क़रार नहीं। उनके करतूत कहाँ तक कहूं, मेरा तो नाक में दम गया। एक एक मेहमान रोज़ बुलाए बे दरमां की तरह सर पर सवार, जाने कहाँ के बे फ़िक्रे उनके दोस्त हैं। कोई कहीं से आकर मरता है, कोई कहीं से, घर क्या है अपाहिजों का अड्डा है ।ज़रा सा तो घर, मुश्किल से दो चार चारपाई, ओढ़ना बिछौना भी बा-इफ्ऱात नहीं, मगर आप हैं कि दोस्तों को दावत देने के लिए तैयार। आप तो मेहमान के साथ लेटेंगे, इसलिए उन्हें चारपाई भी चाहिए और ओढ़ना बिछौना भी चाहिए, वर्ना घर का पर्दा ख़ुल जाये, जाती है तो मेरे और बच्चों के सर, ज़मीन पर पड़े सिकुड़ कर रात काटते हैं, गर्मियों में ख़ैर मज़ाइक़ा नहीं, लेकिन जाड़ों में तो बस क़ियामत ही आजाती है। गर्मियों में भी खुली छत पर तो मेहमानों का क़ब्ज़ा हो जाता है, अब बच्चों को लिए क़फ़स में तड़पा करूं। इतनी समझ भी नहीं कि जब घर की ये हालत है तो क्यों ऐसों को मेहमान बनाऐ, जिनके पास कपड़े लत्ते तक नहीं, ख़ुदा के फ़ज़ल से उनके सभी दोस्त ऐसे ही हैं, एक भी ख़ुदा का बंदा ऐसा नहीं, जो ज़रूरत के वक़्त उन्हें धैले से भी मदद कर सके। दो एक बार हज़रत को इसका तजुर्बा और बेहद तल्ख़ हो चुका है। मगर उस मर्द-ए-ख़ुदा ने आँखें खोलने की क़सम खा ली है। ऐसे ही नादारों से उनकी पटती है। ऐसे ऐसे लोगों से आपकी दोस्ती है कि कहते शर्म आती है। जिसे कोई अपने दरवाज़े पर खड़ा भी होने दे, वो आपका दोस्त है। शहर में इतने अमीर कबीर हैं, आपका किसी से रब्त ज़ब्त नहीं, किसी के पास नहीं जाते, उमरा मग़रूर हैं, ख़ुशामद पसंद हैं, उनके पास कैसे जाएं। दोस्ती गांठेंगे ऐसों से जिनके घर में खाने को भी नहीं।

    एक बार हमारा ख़िदमतगार चला गया और कई दिन दूसरा ख़िदमतगार मिला, मैं किसी होशियार और सलीक़ामंद नौकर की तलाश में थी, मगर बाबू साहब को जल्द से जल्द आदमी रख लेने की फ़िक्र सवार हुई। घर के सारे काम बदस्तूर चल रहे थे, मगर आप को मालूम हो रहा था कि गाड़ी रुकी हुई है। एक दिन जाने कहाँ से एक बांगड़ों पकड़ लाए, उसकी सूरत कहे देती थी कि कोई जंगली है, मगर आपने उसकी ऐसी ऐसी तारीफ़ें कीं कि क्या कहूं, बड़ा फ़र्मांबरदार है, परले सिरे का ईमानदार, बला का मेहनती, ग़ज़ब का सलीक़ा शआर और इंतिहा दर्जे का बा-तमीज़, ख़ैर मैंने रख लिया। मैं बार बार क्यों कर उनकी बातों में जाती हूँ, मुझे ख़ुद ताज्जुब है। ये आदमी सिर्फ़ शक्ल से आदमी था। आदमियत की कोई अलामत उसमें थी। किसी काम की तमीज़ नहीं, बे-ईमान था, मगर अहमक़ अव़्वल नंबर का, बे-ईमान होता तो कम से कम इतनी तस्कीन तो होती कि ख़ुद खाता है। कमबख़्त दुकानदारों की फ़ितरतों का शिकार हो जाता था, उसे दस तक गिनती भी आती थी। एक रुपया दे कर बाज़ार भेजूं तो शाम तक हिसाब समझा सके। गु़स्सा पी पी कर रह जाती थी। ख़ून जोश खाने लगता था के सूअर के कान उखाड़ लूं, मगर इन हज़रत को कभी उसे कुछ कहते नहीं देखा। आप उसके ऐबों को हुनर बना कर दिखाया करते थे, और इस कोशिश में कामयाब होते तो उन अयूब पर पर्दा डाल देते थे। कमबख़्त का झाड़ू देने की भी तमीज़ थी।मर्दाना कमरा ही तो सारे घर में ढंग का एक कमरा है, उसमें झाड़ू देता तो इधर की चीज़ उधर, ऊपर की नीची, गोया सारे कमरे में ज़लज़ला गया हो और गर्द का ये आलम कि सांस लेना मुश्किल। मगर आप कमरे में इत्मिनान से बैठे रहते, गोया कोई बात ही नहीं। एक दिन मैंने उसे ख़ूब डाँटा और कह दिया, अगर कल से तूने सलीक़े से झाड़ू दी तो खड़े खड़े निकाल दूंगी।

    सवेरे सो कर उठी तो देखती हूँ, कमरे में झाड़ू दी हुई है, हर एक चीज़ करीने से रखी हुई है, गर्द-व-गुबार का कहीं नाम नहीं, आप ने फ़ौरन हंस कर कहा, देखती क्या हो, आज घूरे ने बड़े सवेरे झाड़ू दी है, मैंने समझा दिया, तुम तरीक़ा तो बताती नहीं हो, उल्टा डाँटने लगती हो, लीजिए साहब ये भी मेरी ही ख़ता थी, ख़ैर मैंने समझा, उस नालायक़ ने कम अज़ कम एक काम तो सलीक़े के साथ किया। अब रोज़ कमरा साफ़ सुथरा मिलता और मेरी निगाहों में घूरे की कुछ वक़अत होने लगी।

    एक दिन मैं ज़रा मामूल से सवेरे उठ बैठी और कमरे में आई तो क्या देखती हूँ कि घूरे दरवाज़े पर खड़ा है और ख़ुद बदौलत बड़ी तनदेही से झाड़ू दे रहे हैं। मुझ से ज़ब्त हो सका, उनके हाथ से झाड़ू छीन ली और घूरे के सर पर पटक दी। हरामख़ोर को इसी वक़्त धुतकार बताई। आप फ़रमाने लगे, उसकी तनख़्वाह तो बेबाक़ कर दो। ख़ूब, एक तो काम करे, दूसरे आँखें दिखाए, उस पर तनख़्वाह भी दे दूं। मैंने एक कौड़ी भी दी। एक कुर्ता दिया था, वो भी छीन लिया। इस पर हज़रत कई दिन मुझ से रूठे रहे। घर छोड़कर भागे जा रहे थे, बड़ी मुश्किलों से रुके।

    एक रोज़ मेहतर ने उतारे कपड़ों का सवाल किया, इस बेकारी के ज़माने में फ़ालतू कपड़े किस के घर में हैं, शायद रईस के घरों में हों, मेरे यहां तो ज़रूरी कपड़े भी काफ़ी नहीं, हज़रत ही का तोशा ख़ाना एक बुक़ची में जाएगा, जो डाक के पार्सल से कहीं भी भेजा जा सकता है। फिर इस साल सर्दी के मौसम में नए कपड़े बनवाने की नौबत आई थी। मैंने मेहतर को साफ़ जवाब दे दिया। सर्दी की शिद्दत थी। इसका मुझे ख़ुद एहसास था, ग़रीबों पर क्या गुज़रती है, इसका इल्म था, लेकिन मेरे या आप के पास इसके अफ़सोस के सिवा और क्या ईलाज है, जब रऊसा और उमरा के पास एक एक मालगाड़ी कपड़ों से भड़ी पड़ी है तो फिर गुरबा क्यों ब्रहनगी का अज़ाब झेलें, ख़ैर मैंने तो उसे जवाब दे दिया। आपने क्या किया, अपना कोट उतार कर उसके हवाले कर दिया, हज़रत के पास यही एक कोट था, मेहतर ने सलाम किया, दुआएं दीं और अपनी राह ली। कई दिन सर्दी खाते रहे। सुबह घूमने जाया करते थे। वो सिलसिला बंद हो गया, मगर दिल भी क़ुदरत ने उन्हें एक अजीब क़िस्म का दिया है। फटे पुराने कपड़े पहनते, आप को शर्म नहीं आती। मैं तो कट जाती हूँ, आख़िर मुझ से देखा गया तो एक कोट बनवा दिया। जी तो जलता था कि ख़ूब सर्दी खाने दूं, मगर डरी कि कहीं बीमार पड़ जाएं तो और भी आफ़त जाये। आख़िर काम तो इन ही को करना है।

    ये अपने दिल में समझते होंगे, मैं कितना नेक नफ़स और मुन्कसिर मिज़ाज हूँ, शायद उन्हें इन औसाफ़ पर नाज़ हो, मैं उन्हें नेक नफ़स नहीं समझती हूँ, ये सादा लोही है, सीधी सादी हमाक़त, जिस मेहतर को आपने अपना कोट दिया, उसी को मैंने कई बार रात को शराब के नशे में बदमस्त झूमते देखा है और आपको दिखा भी दिया है तो फिर दूसरों की कजरवी का तावान हम क्यों दें। अगर आप नेक नफ़स और फ़य्याज़ होते तो घर वालों से भी तो फ़य्याज़ाना बरताव करते या सारी फ़य्याज़ी बाहर वालों के लिए ही मख़सूस है। घर वालों को इसका अश्र-ए-अशीर भी मिलना चाहिए? इतनी उम्र गुज़र गई, मगर उस शख़्स ने कभी अपने दिल से मेरे लिए एक सौगात भी ख़रीदी, बेशक जो चीज़ें तलब करूं, उसे बाज़ार से लाने में उन्हें कलाम नहीं, मुतलक़ उज़्र नहीं, मगर रुपया भी दे दूं, ये शर्त है, उन्हें ख़ुद कभी तौफ़ीक़ नहीं होती।ये मैं मानती हूँ कि बेचारे अपने लिए भी कुछ नहीं लाते। मैं जो मंगवा दूं उसी पर क़नाअत कर लेते हैं, मगर आख़िर इंसान कभी कभी शौक़ की चीज़ें चाहता ही है और मर्दों को देखती हूँ, घर में औरत के लिए तरह तरह के ज़ेवर, कपड़े, शौक़ सिंगार के लवाज़मात लाते रहते हैं।

    यहां ये रस्म मम्नू है।बच्चों के लीए भी मिठाई, खिलौने, बाजे, बिगुल, शायद अपनी ज़िंदगी में एक बार भी लाए हूँ। क़सम ही खा ली है। इसलीए मै तो उन्हें बख़ील कहूँगी, बदशौक़ कहूँगी, मुर्दा दिल कहूँगी, फ़य्याज़ नहीं कह सकती। दूसरों के साथ इन का जो फ़याज़ाना सुलूक है उसे मैं हिर्स नुमूदार और सादा लौही पर महमूल करती हूँ। आप की मुनकसिर मिज़ाजी का ये हाल है कि जिस दफ़्तर में आप मुलाज़िम हैं, उसके किसी ओहदे-दार से आप का मेल जोल नहीं।अफ़िसरों को सलाम करना तो आप के लीए आईन के ख़िलाफ़ है, नज़र या डाली तो दूर की बात है, और तो और, कभी किसी अफ़्सर के घर जाते ही नहीं, इस का ख़मियाज़ा आप उठाऐ तो कौन उठाए।

    औरों को रिआयती छुट्टियां मिलती हैं, आपकी तनख़्वाह कटती है, औरों की तरक़्कीयां होती हैं, आपको कोई पूछता भी नहीं, हाज़िरी में पाँच मिनट भी देर हो जाये तो जवाब तलब हो जाता है। बेचारे, जी तोड़ कर काम करते हैं। कोई पेचीदा मुश्किल काम जाये तो उन्हीं के सर मंढा जाता है,उन्हें मुतलक़ उज़्र नहीं। दफ़्तर में उन्हें घिस्सू और पिस्सू वग़ैरा के ख़िताबात मिले हुए हैँ, मगर मंज़िल कितनी ही दुशवार तय करें, उनकी तक़दीर में वही सूखी घास लिखी है। ये इन्किसार नहीं है, मैं तो उसे ज़माना शनासी का फ़ुक़दान कहती हूँ। आख़िर क्यों कोई शख़्स आप से ख़ुश हो?

    दुनिया में मुरव्वत और रवादारी से काम चलता है। अगर हम किसी से खिंचे रहें तो कोई वजह नहीं कि वो हम से खिंचा रहे। फिर जब दिल में कबीदगी होती है तो वो दफ़्तरी ताल्लुक़ात में भी ज़ाहिर हो जाती है, जो मातहत अफ़सरों को ख़ुश रखने की कोशिश करता है, जिसकी ज़ात से अफ़सर को कोई ज़ाती फ़ायदा पहुंचता है, जिस पर एतबार होता है, इसका लिहाज़ वो लाज़िमी तौर पर करता है, ऐसे बे ग़रज़ों से क्यों किसी को हमदर्दी होने लगी। अफ़सर भी इंसान हैं, उनके दिल में जो एज़ाज़-व-इम्तियाज़ की हवस है, वो कहाँ पूरी हो, जब इसके मातेहत ही फ्रंट आप ने जहां मुलाज़मत की वहीं से निकाले गए, कभी किसी दफ़्तर में साल दो साल से ज़्यादा चले, या तो अफ़सरों से लड़ गए या काम की कसरत की शिकायत कर बैठे।

    आपको कुम्बा पर्वरी का दावा है, आपके कई भाई भतीजे हैं। वो कभी आपकी बाबत नहीं पूछते, मगर आप बराबर उनका मुँह ताकते रहते हैं। उनके एक भाई साहब आज कल तहसीलदार हैं, घर की जायदाद उन्हीं की निगरानी में है, वो शान से रहते हैं, मोटर ख़रीद ली है, कई नौकर हैं, मगर यहां भूले से भी ख़त नहीं लिखते। एक बार हमें रुपये की सख़्त ज़रूरत हुई। मैंने कहा, अपने बिरादर मुकर्रम से क्यों नहीं मांगते, कहने लगे, क्यों उन्हें परेशान करूं, आख़िर उन्हें भी तो अपना ख़र्च पूरा करना है। मैंने बहुत मजबूर किया तो आपने ख़त लिखा, मालूम नहीं ख़त में क्या लिखा, लेकिन रुपया आने थे आए, कई दिनों बाद मैंने पूछा, तो आपने ख़ुश हो कर कहा, अभी एक हफ़्ता तो ख़त पहुंचे हुए हुआ। अभी क्या जवाब सकता है, एक हफ़्ता और गुज़रा। अब आपका ये हाल है कि मुझे कोई बात करने का मौक़ा ही नहीं अता फ़रमाते। इतने बश्शाश नज़र आते हैं कि क्या कहूं।

    बाहर से आते हैं तो ख़ुश ख़ुश, कोई कोई शगूफ़ा लिए हुए, मेरी ख़ुशामद भी ख़ूब हो रही है। मेरे मैके वालों की तारीफ़ भी हो रही है। मैं हज़रत की चाल समझ रही थी, ये सारी दिलजुई महज़ इसलिए थीं कि आपके बिरादर मुकर्रम के मुताल्लिक़ कुछ पूछ बैठूं। सारे मुल्की, माली, अख़लाक़ी, तमद्दुनी मसाइल सामने बयान किए जाते थे, इतनी तफ़सील और शरह के साथ कि प्रोफ़ेसर भी दंग रह जाते। महज़ इसलिए कि मुझे इस अमर की बाबत कुछ पूछने का मौक़ा मिले, लेकिन मैं कब चूकने वाली थी, जब पूरे दो हफ़्ते गुज़र गए और बीमा कंपनी के रुपया रवाना करने की तारीख़ मौत की तरह सर पर पहुंची तो मैंने पूछा, क्या हुआ, तुम्हारे भाई साहब ने दहन मुबारक से कुछ फ़रमाया, अभी तक ख़त ही नहीं पहुंचा, आख़िर हमारा हिस्सा भी घर की जायदाद में कुछ है या नहीं? या हम किसी लौंडी बांदी की औलाद हैं? पाँच सौ रुपया साल का नफ़ा नौ दस साल क़ब्ल था, अब एक हज़ार से कम होगा, कभी एक कौड़ी भी हमें नहीं मिली। मोटे हिसाब से हमें दो हज़ार चाहिऐं, दो हज़ार हो, एक हज़ार हो, पाँच सौ हो, ढाई सौ हो,। कुछ हो तो बीमा कंपनी के प्रीमियम भर को तो हो। तहसीलदार की आमदनी हमारी आमदनी की चौगुनी है, रिश्वतें भी लेते हैं, तो फिर हमारे रुपया क्यों नहीं देते। आप हैं हैं, हाँ हाँ करने लगे। बेचारे घर की मरम्मत कराते हैं, अज़ीज़-व-अका़रिब की मेहमानदारी का बार भी तो उन्हीं पर है। ख़ूब! गोया जायदाद का मंशा महज़ ये है कि उसकी कमाई उसी में सर्फ़ हो जाये।

    उस भले आदमी को बहाने गढ़ने नहीं आते। मुझसे पूछते मैं एक नहीं हज़ार बता देती। कह देते घर में आग लग गई। सारा असासा जल कर ख़ाक़ हो गया। या चोरी हो गई। चोर ने घर में तिनका छोड़ा। या दस हज़ार का ग़ल्ला ख़रीदा था उस में ख़सारा हो गया। घाटे से बेचना पड़ा। या किसी से मुक़दमी-बाज़ी हो गयी इस में दीवाला पिट गया। आपको सूझी भी तो लच्चर सी बात। इस जौलानी-ए-तबा पर आप मुसन्निफ़ और शायर भी बनते हैं, तक़दीर ठोंक कर बैठ रही। पड़ोसी की बीवी से क़र्ज़ लिया, तब जाकर कहीं काम चला। फिर भी आप भाई भतीजों की तारीफ़ के पुल बांधते हैं तो मेरे जिस्म में आग लग जाती है, ऐसे बिरादरान-ए-यूसुफ़ से ख़ुदा बचाए। ख़ुदा के फ़ज़ल से आप के दो बच्चे हैं, दो बच्चियां भी हैं, ख़ुदा का फ़ज़ल कहूं या ख़ुदा का क़हर कहूं, सब के सब इतने शरीर हो गए हैं कि मआज़ अल्लाह, मगर मजाल क्या कि ये भले मानुस किसी बच्चे को तेज़ निगाह से भी देखें, रात के आठ बज गए हैँ, बड़े साहबज़ादे अभी घूम कर नहीं आए। मैं घबरा रही हूँ, आप इत्मिनान से बैठे अख़बार पढ़ रहे हैं, झल्लाई हुई आती हूँ और अख़बार छीन कर कहती हूँ, जा कर ज़रा देखते क्यों नहीं, लौंडा कहाँ रह गया, जाने तुम्हारे दिल में कुछ क़लक़ है भी या नहीं, तुम्हें तो ख़ुदा ने औलाद ही नाहक़ दी। आज आए तो ख़ूब डाँटना। तब आप भी गर्म हो जाते हैं, अभी तक नहीं आया, बड़ा शैतान है, आज बच्चा आए, तो कान उखाड़ लेता हूँ, मारे थप्पड़ों के खाल उधेड़ कर रख दूंगा, यूं बिगड़ कर तैश के आलम में आप उसकी तलाश करने निकलते हैं।

    इत्तिफ़ाक़ से उप उधर जाते हैं, इधर लड़का जाता है, मैं कहती हूँ, तू किधर से गया, वो बेचारे तुझे ढ़ूढ़ने गए हुए हैं। देखना, आज कैसी मरम्मत होती है, ये आदत ही छूट जाएगी। दाँत पीस रहे थे, आते ही होंगे, छड़ी भी हाथ में है, तुम इतने शरीर हो गए हो कि बात नहीँ सुनते। आज क़दरो आफ़ियत मालूम होगी। लड़का सहम जाता है और लैम्प जला कर पढ़ने लगता है, आप डेढ़ दो घंटे में लौटते हैं, हैरान-व-परेशान और बदहवास, घर में क़दम रखते ही पूछते हैं, आया कि नहीं?

    मैं उनका गु़स्सा भड़काने के इरादे से कहती हूँ, आकर बैठा तो है, जा कर पूछते क्यों नहीं? पूछ कर हार गई, कहाँ गया था। कुछ बोलता ही नहीं, आप गरज पड़ते हैं, मुन्नु यहां आओ।

    लड़का थर थर काँपता हुआ, आकर आंगन में खड़ा हो जाता है, दोनों बच्चियां घर में छुप जाती हैं कि ख़ुदा जाने क्या आफ़त नाज़िल होने वाली है, छोटा बच्चा खिड़की से चूहे की तरह झांक रहा है, आप जामें से बाहर हैं, हाथ में छड़ी है, मैं भी वो ग़ज़बनाक चेहरा देख कर पछताने लगती हूँ कि क्यों उनसे शिकायत की। आप लड़के के पास जाते हैं, मगर बजाय इसके कि छड़ी से उसकी मरम्मत करें, आहिस्ता से उसके कंधे पर हाथ रख कर बनावटी गुस्से से कहते हैं, तुम कहाँ गए थे जी? मना किया जाता है, मानते नहीं हो। ख़बरदार जो अब इतनी देर की। आदमी शाम को घर चला आता है या इधर उधर घूमता है?

    मैं समझ रही हूँ ये तमहीद है, क़सीदा अब शुरू होगा। गुरेज़ तो बुरी नहीं, लेकिन यहां तमहीद ही ख़त्म हो जाती है। बस आपका गु़स्सा फ़रो हो गया। लड़का अपने कमरे में चला जाता है, और ग़ालिबन ख़ुशी से उछलने लगता है, मैं एहतिजाज की सदा बुलंद करती हूँ, तुम तो जैसे डर गए, भला दो चार तमाँचे तो लगाए होते, इस तरह लड़के शरीर हो जाते हैं। आज आठ बजे आया है, कल नौ की ख़बर लाएगा, उसने भी दिल में क्या समझा होगा। आप फ़रमाते हैं, तुम ने सुना नहीं? मैंने कितनी ज़ोर से डाँटा, बच्चे की रूह ही फ़ना हो गई होगी। देख लेना, जो फिर कभी देर में आएगा।

    आप के ख़्याल में लड़कों को आज़ाद रहना चाहिए, उन पर किसी क़िस्म की बंदिश या दबाव नहीं होना चाहिए। बंदिश से आपके ख़्याल में लड़के की दिमाग़ी नशो नुमा में रुकावट पैदा हो जाती है। इसका ये नतीजा है कि लड़के शुत्र बे-मुहार बने हुए हैं। कोई एक मिनट भी किताब खोल कर नहीं बैठता। कभी गिल्ली डंडा है, कभी गोलीयां हैं, कभी कनकौवे। हज़रत भी उन्हीं के साथ खेलते हैं, चालीस साल से तो मुतजाविज़ आपकी उम्र है, मगर लड़कपन दिल से नहीं गया। मेरे बाप के सामने मजाल थी कि कोई लड़का कनकौवा उड़ा ले या गिल्ली डंडा खेल सके। ख़ून पी जाते, सुबह से लड़कों को पढ़ाने बैठ जाते, स्कूल से जूं ही लड़के वापस आते फिर ले बैठते, बस शाम को आध घंटे की छुट्टी देते। रात को फिर काम में जोत देते। ये नहीं कि आप तो अख़बार पढ़ें और लड़के गली गली की ख़ाक छानते फिरें। कभी आप भी सींग कटा कर बछड़े बन जाते हैं। लड़कों के साथ ताश खेलने बैठ जाते हैं, ऐसे बाप का लड़कों पर क्या रोब हो सकता है। अब्बा जान के सामने मेरे भाई आँख उठा कर नहीं देख सकते थे। उनकी आवाज़ सुनते ही क़ियामत जाती थी। उन्होंने घर में क़दम रखा और ख़मोशी तारी हुई। उनके रूबरू जाते हुए लड़कों की जान निकलती थी, और उसी तालीम की ये बरकत है कि सभी अच्छे ओहदों पर पहुंच गए।

    सेहत, अलबत्ता किसी की भी अच्छी नहीं है, तो अब्बा जान की सेहत ही कौन सी बहुत अच्छी थी। बेचारे हमेशा किसी किसी बीमारी में मुब्तला रहते। फिर लड़कों की सेहत कहाँ से अच्छी हो जाती। लेकिन कुछ भी हो, तालीम-व-तादीब में उन्होंने किसी के साथ रिआयत नहीं की।

    एक रोज़ मैंने हज़रत को बड़े साहबज़ादे को कनकौवे की तालीम देते देखा। यूं घुमाव, यूं ग़ोता दो, यूं खींचो यूं ढील दो। ऐसे दिल-व-जान से सिखा रहे थे कि गोया गुरु मंत्र दे रहे हों। उस दिन मैंने भी उनकी ऐसी ख़बर ली कि याद करते होंगे। मैंने साफ़ कह दिया, तुम कौन होते हो मेरे बच्चों को बिगाड़ने वाले, तुम्हें घर से कोई मतलब नहीं, हो, लेकिन आप मेरे बच्चों को ख़राब मत कीजिए। बुरे शौक़ पैदा कीजिए। अगर आप उन्हें सुधार नहीं सकते तो कम से कम बिगाड़ीए मत, लगे बातें बनाने, अब्बा जान किसी लड़के को मेले तमाशे ले जाते थे। लड़का सर पटक कर मर जाये, मगर ज़रा भी पसिजते थे, और इन भले आदमी का ये हाल है कि एक एक से पूछ कर मेले ले जाते हैं, चलो चलो वहां बड़ी बहार है, ख़ूब आतिश बाज़ियाँ छूटेंगी, गुब्बारे उड़ेंगे, विलायती चर्ख़ीयाँ भी हैं, उन पर मज़े से बैठना, और तो और आप लड़कों को हाकी खेलने से भी नहीं रोकते, ये अंग्रेज़ी खेल भी कितने ख़ौफ़नाक होते हैं, क्रिकेट, फुटबाल, हाकी, एक से एक मोहलिक, गेंद लग जाये तो जान लेकर ही छोड़े, मगर आपको इन खेलों से बड़ी रग़बत है, कोई लड़का मैच में जीत कर जाता है तो कितने ख़ुश होते हैं, गोया कोई क़िला फ़तह कर आया हो।

    हज़रत को ज़रा भी अंदेशा नहीं है कि किसी लड़के को चोट लग गई तो क्या होगा। हाथ पांव टूट गया तो बेचारों की ज़िंदगी कैसे पार लगेगी।

    पिछले साल लड़की की शादी थी, आपको ये ज़िद थी कि जहेज़ के नाम कौड़ी भी देंगे, चाहे लड़की सारी उम्र कुंवारी बैठी रहे, आप अह्ल-ए-दुनिया की ख़बीस अल-नफ़सी आए दिन देखते रहते हैं, फिर भी चश्म-ए-बसीरत नहीं खुलती। जब तक समाज का ये निज़ाम क़ायम है और लड़की का बलूग़ के बाद कुंवारी रहना अंगुश्तनुमाई का बाइस है, रहती दुनिया तक ये रस्म फ़ना नहीं हो सकती, दो चार अफ़राद भले ही ऐसे बेदार मग़ज़ निकल आएं, जो जहेज़ लेने से एतराज़ करें, लेकिन इसका असर आम हालात पर बहुत कम होता है और बुराई बदस्तूर क़ायम रहती है। जब लड़कों की तरह लड़कियों के लिए भी बीस पच्चीस की उम्र तक कुंवारी रहना बदनामी का बाइस समझा जाएगा, उस वक़्त आप ही आप ये रस्म रुख़्सत हो जाएगी। मैंने जहां-जहां पैग़ाम दिए, जहेज़ का मसला पैदा हुआ, और आपने हर मौक़े पर टांग अड़ा दी। जब इस तरह पूरा साल गुज़र गया और लड़की का सतरहवां साल शुरू हो गया तो मैंने एक जगह बात पक्की कर ली। हज़रत भी राज़ी हो गए, क्योंकि उन लोगों ने क़रारदाद नहीं की, हालांकि दिल में उन्हें पूरा यक़ीन था कि एक अच्छी रक़म मिलेगी और मैंने भी तय कर लिया था कि अपने मक़दूर भर कोई बात उठा रखूंगी। शादी के ब-ख़ैर-व-आफ़ियत अंजाम पाने में कोई शुब्हा था, लेकिन इन महाशय के आगे मेरी एक चलती थी, ये रस्म भी बेहूदा है, ये रस्म बेमानी है, यहां रुपये की क्या ज़रूरत है, यहां गीतों की क्या ज़रूरत? नाक में दम था, ये क्यों, वो क्यों? ये तो साफ़ जहेज़ है, तुम ने मेरे मुँह कालिख लगा दी, मेरी आबरू मिटा दी।

    ज़रा ख़्याल कीजिए, बारात दरवाज़े पर पड़ी है और यहां बात बात पर रद्द क़दह हो रही है। शादी की साअत रात के बारह बजे थी, उस दिन लड़की के माँ बाप व्रत रखते हैं, मैंने भी व्रत रखा, लेकिन आपको ज़िद थी कि व्रत की कोई ज़रूरत नहीं। जब लड़के के वालदैन व्रत नहीं रखते तो लड़की के वालदैन क्यों रखें, मैं और सारा ख़ानदान हर चंद मना करता रहा, लेकिन आपने हस्ब-ए-मामूल नाशतादान क्या, खाना खाया, ख़ैर रात को शादी के वक़्त कन्या दान की रस्म आई, आपको कन्या दान की रस्म पर हमेशा से एतराज़ है। इसे आप मुहमल समझते हैं, लड़की दान की चीज़ नहीं। दान रुपये पैसे का होता है, जानवर भी दान दिए जा सकते हैं, लेकिन लड़की का दान एक लच्चर सी बात है। कितना समझाती हूँ, साहब पुराना रिवाज है, शास्त्रों में साफ़ इसका हुक्म है, अज़ीज़-व-अका़रिब समझा रहे हैं, मगर आप हैं कि कान पर जूं नहीं रेंगती। कहती हूँ, दुनिया क्या कहेगी? ये लोग क्या बिल्कुल ला मज़हब हो गए, मगर आप कान ही नहीं धरते। पैरों पड़ी, यहां तक कहा कि बाबा तुम कुछ करना, जो कुछ करना होगा, मैं कर लूंगी, तुम सिर्फ़ चल कर मंडप में लड़की के पास बैठ जाओ और उसे दुआ दो, मगर उस मर्द-ए-ख़ुदा ने मुतलक़ समाअत की। आख़िर मुझे रोना गया। बाप के होते मेरी लड़की का कन्यादान चचा या मामूं करे, ये मुझे मंज़ूर था। मैंने तन्हा तन्हा कन्यादान की रस्म अदा की, आप घर झांके तक नहीं और लुत्फ़ ये कि आप ही मुझ से रूठ गए, बारात की रुख़्सती के बाद मुझसे महीनों बोले नहीं। झक मार कर मुझ ही को मनाना पड़ा।

    मगर कुछ अजीब दिल लगी है कि इन सारी बुराईयों के बावजूद मैं उनसे एक दिन के लिए भी जुदा नहीं रह सकती, इन सारे अयूब के बावजूद मैं उन्हें प्यार करती हूँ, उनमें वो कौन सी ख़ूबी है जिस पर मैं फ़रेफ़्ता हूँ, मुझे ख़ुद नहीं मालूम, मगर कोई चीज़ है ज़रूर, जो मुझे उनका ग़ुलाम बनाए हुए है।

    वो ज़रा मामूल से देर में घर आते हैं तो में परेशान हो जाती हूँ, उनका सर भी दर्द करे तो मेरी जान निकल जाती है, आज अगर तक़दीर उनके एवज़ मुझे कोई इल्म और अक़ल का पुतला, हुस्न का देवता भी दे तो मैं उसकी तरफ़ आँख उठा कर देखूं। ये रिवाजी वफ़ादारी भी नहीं है, बल्कि हम दोनों की फ़ितरतों में कुछ ऐसी रवादरियाँ, कुछ ऐसी सलाहियतें पैदा हो गई हैं, गोया किसी मशीन के कल पुरज़े घुस घुसा कर फिट हो गए हों और एक पुरज़े की जगह दूसरा पुरज़ा काम दे सके, चाहे वो पहले से कितना सुडौल, नया और ख़ुशनुमा क्यों हो। जाने हुए रस्ते से हम बे-खौफ़, आँखें बंद किए चले जाते हैं।

    इसके बर-अक्स किसी अंजान रस्ते पर चलना कितनी ज़हमत का बाइस हो सकता है, क़दम क़दम पर गुमराह हो जाने के अंदेशे, हर लम्हा चोर और रहज़न का ख़ौफ़! बल्कि शायद आज मैं उनकी बुराईयों को ख़ूबियों से तबदील करने पर भी तैयार नहीं

    स्रोत :

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Jashn-e-Rekhta | 13-14-15 December 2024 - Jawaharlal Nehru Stadium , Gate No. 1, New Delhi

    Get Tickets
    बोलिए