रुप नगर की सवारियाँ
स्टोरीलाइन
तांगेवाला छिद्दा हर रोज़ गाँव से सवारियों को रुप नगर ले जाता है। उस दिन मुंशी रहमत अली को रुप नगर तहसील जाना होता है। इसलिए वह सुबह ही अड्डे पर आ जाते हैं। उनके आते ही छिद्दा भी अपना ताँगा लेकर आ जाता है। मुंशी के साथ दो सवारियाँ और सवार हो जाती हैं। तांगे में बैठी वे तीनों सवारियों और कोचवान छिद्दा इलाके के अतीत और वर्तमान के हालात को बयान करते चलते हैं।
मुंशी रहमत अली हस्ब-ए-आदत मुँह-अँधेरे अकूल के अड्डे पर पहुँच गए। अड्डा सुनसान पड़ा था। चारों तरफ़ इक्के ज़रूर नज़र आते थे लेकिन बे जुते हुए। उनके बमों का रुख आसमान की तरफ़ था और छतरीयाँ ज़मीन की तरफ़ झुकी हुई थीं। जा-बजा खूँटों से बंधे हुए घोड़े या तो ऊँघ रहे थे या एक अलकसाहट के साथ अपने आगे पड़ी हुई घास चर रहे थे। अलबत्ता पास वाले ख़ुश्क तालाब की गंदी सीढ़ियों पर ऐंडते हुए बाज़ गधे बहुत बेदार नज़र आते थे। थोड़े-थोड़े वक़्फ़े के बाद उनके रेंगने का ऐसा तार बंधता था कि टूटने में न आता था। इस पूरे माहौल में जो चीज़ सब से ज़्यादा चमक रही थी वो सामने डाकखाने के दरवाज़े के बराबर वाला सुर्ख़ लैटर बॉक्स था इससे चार क़दम परे लाला छज्जू मिल की खपच्चियों वाली दुकान बंद पड़ी थी। लेकिन इसके चबूतरे पर जंगली कबूतरों का एक ग़ोल उतर आया था। ये कबूतर अनाज के अल्लम ग़ल्लम दाने चुगते-चुगते बार-बार इस क़दर क़रीब आ जाते कि उनका अलग-अलग वजूद ख़त्म हो जाता और ज़मीन पर बस एक सुरमई साया कंपकपाता नज़र आता। कुवें के क़रीब इमली के दरख़्त के नीचे छिद्दा इक्के वाला अपने घोड़े को दाना खिला रहा था। दूर से वो सूरत तो नहीं पहचान सका। लेकिन चाल डाल और हुलिया देखकर उसने ताड़ लिया था कि हो ना हो ये मुंशी रहमत अली हैं और जब वो ज़रा क़रीब आए तो छिद्दा ने आवाज़ लगाई, “मियाँ चल रए ओ।”
“अबे चलना न होता तो मुझे क्या बावले कुत्ते ने काटा था जो सुबह ही सुबह अड्डे पर आता?”
“तो बस मियाँ आ जाओ, मैं भी तैयार हूँ। अब घोड़ा जुता।”
लेकिन भाव-ताव किए बग़ैर कोई काम करना मुंशी रहमत अली की वज़ादारी के ख़िलाफ़ था। ये और बात है कि बहुत चालाक बनने की कोशिश में कभी कभी वो चोट भी खा जाते थे। ब-हर-हाल वो तो अपनी तरफ़ से कोई कसर उठा न रखते थे। आगे अल्लाह मियाँ की मर्ज़ी। छिद्दा का पहला वार तो ख़ाली गया। अब उसने दूसरी चाल चली। “अजी मुंशी जी तुमसे ज़्यादा थोड़ाई लूँगा। बस अठन्नी दे दीजो।”
“भइया मेरा तेरा सौदा नहीं पट्टेगा।” मुंशी रहमत अली ने क़तई तौर पर अपनी रजामंदी का ऐलान कर दिया। उन्होंने अपना रुख सामने वाले नानबाई की दुकान की तरफ़ कर लिया था लेकिन छिद्दा ने उन्हें जाते-जाते फिर रोक लिया, “तो मियाँ तुम क्या दोगे?”
मुंशी रहमत अली ने बात दूनी से शुरू की और बिल-आख़िर तीन आने पे टिक गए। उन्होंने साफ़-साफ़ कह दिया कि “कान खोल के सुन ले तीन आने से एक कोड़ी ज़्यादा नहीं दूँगा।”
छिद्दा ने भी क़तई जवाब दे दिया, “अजी मियाँ तीन आने तो नहीं लूँगा और जब वो जाने लगे तो छिद्दा ने चलते-चलते एक टकरा और लगा दिया, “हमें भी देखना है कि तीन आने में कौन सा इक्के वाला मुंशी जी को रूप नगर पहुँचा देगा।”
लेकिन मुंशी रहमत अली आज छिद्दा का हर वार ख़ाली देने पर तुले हुए थे, उन्होंने ये बात भी सुनी अन-सुनी कर दी और नानबाई की दुकान की तरफ़ चल पड़े। दूर से ही उन्होंने सदा लगाई, “अबे गुलज़ार हुक़्क़ा ताज़ा किया?”
गुलज़ार ने तनूर की आग भड़काते हुए जवाब दिया, “आ जाओ मुंशी जी हुक़्क़ा ताज़ा कर लिया जाये।”
मुंशी रहमत अली ने हुक़्क़े की बदमैल ऊदी ने मुट्ठी में दबाई और बड़े इतमीनान और फ़राग़त के साथ कश लगाने शुरू कर दिए। छिद्दा मात तो पहले ही खा चुका था मुंशी जी के इस इतमीनान ने उसका रहा सहा हौसला भी ख़त्म कर दिया। इतमीनान और बेनियाज़ी का मुज़ाहरा करने में अगरचे उसने कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन अंदर से उसका दिल धक्कड़-पकड़ कर रहा था कि कहीं ऐसा ना हो कि और कोई इक्के वाला आन टपके और अच्छी ख़ासी सवारी को उचक ले। लेकिन वो इतनी सस्ती असामी भी नहीं था कि इस मामूली आसाबी जंग में मुंशी रहमत अली से इतनी जल्दी हार मान लेता। उसने बदहवासी तो यक़ीनन नहीं दिखाई लेकिन फिर भी इक उजलत से दाने की बाल्टी इक्के के ख़ाने में रखी और इक्के को जोतना शुरू किया। घोड़ा जोतने के बाद वो इक्के पर बैठा और इतमीनान के साथ आवाज़ लगाई, “रूप नगर की सवारी।”
गुलज़ार की दुकान पर हुक़्क़े की गुड़गुड़ की आवाज़ बदस्तूर एक इतमीनान और बेनियाज़ी की कैफ़ीयत काइज़हार किए जा रही थी। छिद्दा ने एक डेढ़ मिनट इंतिज़ार किया और जब हक़ीक़ी आवाज़ में कोई नुमायाँ फ़र्क़ नहीं पड़ा तो उसने तय किया कि तालाब के गर्द एक चक्कर लगा लेना चाहिए इस तरह ये भी मुम्किन है कि किसी और सवारी से मुड़भेड़ हो जाएगी, उसने आहिस्ता से लगाम खींची और घोड़े ने ख़िरामाँ-ख़िरामाँ चलना शुरू कर दिया। तालाब के दूसरी तरफ़ पनचक्की के सामने कलिया भंगन की बहू घूँघट निकाले सड़क पर झाड़ू दे रही थी। छिद्दा कई मर्तबा मुख़्तलिफ़ तरीक़ों से खँकारा मगर कलिया की बहू ऐसी नक-चढ़ी निकली कि उसने छिद्दा का नोटिस ही नहीं लिया। छिद्दा को मजबूरन बराह-ए-रास्त ख़िताब करना पड़ा।
“अरी इस कलिया लंगड़ी को बहुत रोटियाँ लग गई हैं। ना झाड़ू देने आवे है ना ठिकानों पे पहुँचे है। तुझे थकाए मारते हैं।” लेकिन दूसरी तरफ़ से कोई हिम्मत-अफ़ज़ा जवाब मौसूल नहीं हुआ। और यूँ भी छिद्दा को उस वक़्त इतनी फ़राग़त कहाँ मयस्सर थी जो वो पहल करता। चुनाँचे उसने अपना इरादा बदल दिया और चंद क़दम आगे चल कर बड़ी शान-ए-तग़ाफ़ुल से आवाज़ लगाई, “रूप नगर की सवारियाँ।”
सामने सेठ हरदयाल मिल के मकान के सब से ऊंचे कंगरे पर एक काले सर वाला सफ़ेद कबूतर बैठा ऊँघ रहा था और छिद्दा को यकायक याद आया कि रात शम्मी की कलसरी घर वापिस नहीं पहुँची थी। अभी वो इस क़दर सोच पाया था कि दूर की सड़क से इक्के की घड़-घड़ की आवाज़ आई और उसने हड़बड़ाकर घोड़े के एक चाबुक रसीद किया। छिद्दा की क़ुव्वत-ए-मदाफ़अत ने बुला ख़र घुटने टेक दिए। ठीक गुलज़ार की दुकान के सामने पहुँच कर उसने घोड़े की लगाम खींची और किसी किस्म का इंतिज़ार किए बग़ैर सवाल किया, “मुंशी जी आज तहसील पहुँचने के जी में नईं ए किया।”
“हमें तो तहसील जाना ही है तू न सही तेरा भाई और सही। मगर तू कह तेरे जी में क्या है। अबे इक्का चलाता है कि ठग्गी करता है।”
“अजी मुंशी जी बिगड़ते क्यों हो। इक्का तो तुम्हारा ही ए बैठ जाओ। पैसे भले मत दीजो।”
मुंशी रहमत अली ठहरे वज़ादार आदमी। इस बात पर बहुत बिगड़े, “अबे तूने हमें समझा क्या है। हम चोट्टे-उचक्के नहीं। लुच्चे-लफ़ंगे नहीं। पहले नाक पे पैसा मारते हैं। फिर बैठते हैं। कोई इक्के वाला बता दे जो आज तक हम कभी मुफ़्त बैठे हों।”
“तो मियाँ मुंशी जी। ग़ुस्से क्यों होते हो। पैसा-धेला कमती-बढ़ती दे दीजो। अच्छा लो तुम भी क्या याद करोगे। छः आने दे दीजो।”
लेकिन मुंशी रहमत अली ऐसी कच्ची गोलीयाँ खेले हुए नहीं थे। उन्होंने खरा जवाब दिया, “छः आने तो तू मरते मर जायेगा तब भी नहीं दूँगा। तू है किस हवा में।”
गुलज़ार ने महसूस किया कि अब मेरे बीच में पड़ने का वक़्त आ गया है। उसने छिद्दा को डाँट बताई, “अबे छिद्दा मुंशी जी को क्यों तंग कर रिया ए। ठीक दाम क्यों नईं बता देता।”
छिद्दा ने अपनी बेगुनाही जताई, ”लो भइया मैं तंग कर रहा हूँ। इतना किराया कम कर दिया लेकिन मुंशी जी हैं कि सामान में नईं आए।”
गुलज़ार बोला, “अच्छा ले भइया न तेरा बात रुई ना मुंशी जी की। चवन्नी हो गई।”
मुंशी रहमत अली ने ज़ाहिरी तौर पर थोड़ी सी हचर मचर की और राज़ी हो गए। छिद्दा ने अपनी बात एक दूसरे तरीक़े से निबाही।
“आज तो मुंशी जी से ही बोनी करूँगा। बड़ी भागवान सवारी हैं।” और टाट की पोशिश दरुस्त करते हुए बोला, “अच्छा तो बस बैठ जाओ। मुंशी जी अब देर का वक़्त नईं ए।”
मुंशी रहमत अली दरअस्ल एक इन्फ़िरादी सवारी की हैसियत से छिद्दा की नज़र में ऐसी ज़्यादा एहमीयत नहीं रखते थे। उनकी एहमीयत इसलिए थी कि उनकी वजह से दूसरी सवारियों के लिए रास्ता हमवार होता था। छिद्दा इस नुक़्ते से ख़ूब आगाह था कि ख़ाली छतरी पर कबूतर नहीं गिरता। पैसा को पैसा और सवारी को सवारी खींचती है। जिस के इक्के में पहली सवारी बैठ गई समझ लो कि वही इक्का सबसे पहले भरेगा। सवारियाँ अदबदा कर उसी इक्के पर टूटती हैं जिसमें कोई सवारी पहले से बैठी हो। इस वक़्त अगरचे और इक्के भी अड्डे पर आ गए थे और एक से एक बढ़िया इक्का खड़ा था लेकिन फिर भी छिद्दा का पल्ला झुका हुआ रहा। यही सही है कि सारे इक्के वालों से उसका मुक़ाबला नहीं था। रूप नगर के सिवा और मंज़िलें भी नहीं जहाँ की सदाएँ लग रही थीं। लेकिन ये भी सही है कि इस वक़्त रूप नगर जाने वालों का बाज़ार सबसे ज़्यादा गर्म था। अल्लाह दिए का इक्का सबसे ज़्यादा चमक रहा था। शायद अड्डे पर सब से ऊंचा इक्का उसी का था। छतरी पर सफ़ेद लट्ठे का ग़िलाफ़ उसने कल परसों ही चढ़वाया था। पुश्त पर जो सफ़ेद पर्दा लहरा रहा था उसके किनारों पर सुर्ख़ धागे से बेल कढ़ी हुई थी। डंडों पर मील की एक-एक इंच चौड़ी पत्तियाँ चमक मार रही थीं। फिर घोड़ा ख़ूब तैयार था और सबसे बड़ी बात ये थी कि पहीयों में रबड़ के टावर लगे हुए थे। नसरुल्लाह का इक्का था तो छोटा सा लेकिन सजाया वो भी ख़ूब था। नसरुल्लाह ने इस मर्तबा अपने इक्के पर नीला रंग कराया था। पूरा इक्का चमक रहा था। अगर उस वक़्त अल्लाह दिए का इक्का ना होता तो फिर तो नसरुल्लाह ही नसरुल्लाह था। नसरुल्लाह भी सवारियों को गाँठने के लिए तरह तरह के जतिन कर रहा था लेकिन छिद्दा हर नई सवारी की आमद पर कुछ इस अंदाज़ से बाग उठाकर अपने चलने के अज़्म का इज़हार करता था कि सवारी ख़्वाह-म-ख़्वाह उसकी तरफ़ राग़िब हो जाती थी। एक सवारी तो नसरुल्लाह के इक्के में बैठी और फिर उतरकर छिद्दा के इक्के में जा बैठी। इस बात पर छिद्दा और नसरुल्लाह में ख़ूब ठनी। नसरुल्लाह को शिकायत थी कि छिद्दा ने बेईमानी से सवारी तोड़ी है और छिद्दा कहता था कि “साले तेरा इक्का ना इक्के की दुम, सवारी उतर कर मेरे पास चली आई। मैं कैसे मना कर देता।” बड़ी मुश्किल से सारे इक्के वालों ने मिलकर बीच बचाओ कराया। अलबत्ता अल्लाह दिया बहुत मुतमइन था।
वाक़िया ये है कि जो वक़ार उसके इक्के और घोड़े से टपक रहा था वही शान उसकी हरकात-ओ-सकनात से अयाँ थी। इस वक़्त आम भाव चवन्नी सवारी का था। लेकिन अल्लाह दिए का ताँगा रबड़ टावर था। वो छः आने से कौड़ी कम लेने को तैयार नहीं था। उसने किसी सवारी को बढ़कर उचकने की कोशिश भी नहीं की। वो जानता था कि ऐरा ग़ैरा तो मेरे इक्के में बैठेगा नहीं। रईस सवारियाँ ही बैठेंगी। और वो मेरे इक्के को देखकर ख़ुद मेरी तरफ़ आयेंगी । प्रेम-श्री ने अल्लाह दिए की तरफ़ ही रुख किया था और अल्लाह दिए ने भी उसका ख़ैर मक़दम किया, “आ जाओ ठाकुर साहब” लेकिन छः आने का नाम सुनकर प्रेम-श्री का दम् ख़ुश्क हो गया और वो चुपके से सटक कर छिद्दा के इक्के में जा बैठा। प्रेम-श्री के आ जाने से इक्के में पाँच सवारियाँ हो गई थीं। इक्के में ना सही लेकिन छिद्दा के दिल में अब भी जगह थी लेकिन सवारियों का पैमाना-ए-सब्र अब लबरेज़ हो चुका था। उन्होंने खुले अलफ़ाज़ में कहा कि अब अगर इक्का नहीं चला तो हम सब उतर पड़ेंगे। छिद्दा ने हंटर उठाया और इक्के वालों पर एक फ़तह मंदाना निगाह डाली। सब इक्के वाले अपनी अपनी जगह ज़ोर मार रहे थे कि हमारा इक्का अड्डे से पहले चले। लेकिन सब धरे के धरे रह गए और छिद्दा ने बहुत तम्केनत से अपने घोड़े के चाबुक रसीद करके अपनी रवानगी का ऐलान किया। छिद्दा ने अगरचे अपने इक्के की राय आम्मा के सामने सर-ए-तस्लीम ख़म कर दिया था लेकिन जब दो क़दम आगे बढ़ने के बाद उसने नथुवा चमार की जोरू को गली से निकलते देखा तो जल्दी से बढ़कर पूछा, “अरी रूप नगर चलेगी?“ लेकिन नथुवा की जोरू ने छिद्दा की बात सुनने से साफ़ इनकार कर दिया और सौंती हुई अड्डे की तरफ़ चली गई। आगे चल कर जब उसने एक गँवारी को सर पे गठड़ी रखे जाते हुए देखा तो उसकी नीयत में फिर फ़ितूर आ गया और सवारियों के एहतिजाज के बावजूद उसने उसे दावत दे ही डाली।
“अरी डुकरिया रूप नगर चल रई ए?”
गँवारी ने छिद्दा के सवाल का जवाब सवाल से दिया, “अच्छा दरी का कहा लेवत है रे।”
“आ बैठ जा चवन्नी दे दीजो।”
चवन्नी का नाम सुनकर गँवारी बिदक गई और सीधी अपने रस्ते पर होली। छिद्दा ने उसे फिर टोका, “अरी मुँह से तो फूट। तू क्या देने केवे है।”
“मोय पे तो इकन्नी ए।”
“लंबी बन। मरने चली है कफ़न का टूटा।” और ताव में आकर उसने घोड़े को तराख़ से चाबुक रसीद किया।”
छिद्दा का इक्का अब शिफ़ा-ख़ाने से आगे निकल आया था। इतने में पीछे से एक गरजदार आवाज़ आई, “अबे ओ छिद्दा। इक्का रोक बे।” छिद्दा ने इक्का रोक लिया। शेख़-जी अपनी लाठी पटख़ाते मूंछों को ताव देते चले आ रहे थे। सवारियों का अंदर ही अंदर ख़ून बहुत खोला। और छिद्दा भी इस नई सवारी के बारे में कुछ ज़्यादा पुरजोश नहीं था। लेकिन दम मारने की मजाल किस को थी। शेख़-जी आए और बग़ैर सवारी चुकाए इक्के में आन बैठे। मुंशी रहमत अली को शेख़-जी ने देखा तो बस खिल गए।
“अख़ाह मुंशी जी हैं। अमाँ किधर को?”
“अमाँ किधर को क्या। वही मुल्ला की दौड़ मस्जिद तक। इस हरामज़ादी तहसील को जाना तो क़ब्र में जाने के बाद ही बंद होगा।”
बस इशारे की देर थी सो वो मिल गया था। शेख़-जी झट नंबरदार का ज़िक्र निकाल बैठे, “मुंशी जी तुम तहसील से इतना क्यों बिदकते हो। एक अपने नंबरदार भी तो हैं। रोज़ कचहरी में खड़े रहते हैं। हर छटे महीने एक जाली मुक़द्दमा खड़ा कर देते हैं जिस रोज़ अदालत का मुँह नहीं देखते उनका खाना हज़म नहीं होता।”
“अमाँ शेख़-जी बात ये है कि मुंशी रहमत अली भला ऐसे मौक़ा पर कहाँ चूकने वाले थे। और नंबरदार का ज़िक्र यूँ भी उनके तख़य्युल के लिए मेहमेज़ का काम करता था, मियाँ अपनी-अपनी आदत होती है। पेट बुरी बला है। ये सब कुछ कराता है वर्ना अशराफ़ों का ये तौर थोड़ा ही है कि रोज़ थाने तहसील में खड़े रओ। नंबरदार साहब से पूछो कि भले आदमी तेरे अलग़ारों पैसा भरा पड़ा है। तेरे सात पुश्तें बैठ के खाएंगी और मज़े करेंगी। तूने अपने पीछे ये क्या पख़ लगाई है। आज इसपे नालिश ठोंकी। कल उसपे मुक़द्दमा चलाया। परसों फ़ुलाँ की क़ुर्क़ी कराई। भले मानस घर में बैठ। अल्लाह अल्लाह कर। ग़रीब ग़ुरबाओं को कुछ दे दिला। हज को जा। दुनिया में तू इतना रूसियाह हो लिया। अब कुछ आक़िबत की फ़िक्र कर। मगर...”
यहाँ आकर शेख़-जी ने उनकी गुफ़्तगु का सिलसिला मुनक़ते कर दिया। शेख़-जी यूँ भी ज़्यादा लंबी तक़रीर के मुतहम्मिल नहीं हो सकते थे और फिर आक़िबत के लफ़्ज़ पर तो उनके हाथ से सब्र का दामन बिलकुल ही छूट गया। बात काट के बोले, “अजी आक़िबत की फ़िक्र, तौबा कीजिए। मुंशी जी। ऐसे लोग अगर आक़िबत की फ़िक्र करने लगें तो जहन्नुम के लिए ईंधन कहाँ से आएगा। ये शख़्स तो दोज़ख़ का कुंदा बनेगा कुंदा।”
मुंशी रहमत अली को शेख़-जी की बात से पूरा-पूरा इत्तेफ़ाक़ था। लंबा साँस लेकर बोले, “हाँ मियाँ ये दौलत है ही बुरी चीज़। आँखों पे चर्बी छा जाती है आदमी को क़ारून का ख़ज़ाना भी मिल जावे तो भी उसकी हवस पूरी नहीं होती।”
छिद्दा अब तक तो घोड़े पर चाबुक बरसाने में मसरूफ़ था लेकिन अब घोड़ा राह पर आ गया था। छिद्दा को जब इस तरफ़ से फ़राग़त हुई तो उसकी तब्अ-ए-मौज़ूँ ने भी ज़ोर मारा, “मियाँ ये लंबरदार बड़ा मूज़ी है। साले ने मेरे फूफा को अड़ंगे में ला के दस के सारे खेत कौड़ियों में ख़रीद लिए।” और फिर ज़रा आवाज़ बुलंद करके बोला, “शेख़-जी तुम्हें यक़ीन नईं आएगा ये साला चोरों से मिला हुआ है।”
शेख़-जी को भला क्यों यक़ीन न आता। नंबरदार साहब के मुताल्लिक़ वो हर बात यक़ीन करने को तैयार थे। छिद्दा की बात पर उन्हें इक ज़रा ताव आया। बोले कि “अबे यक़ीन न आने की क्या बात है। मैं नंबरदार की रग-रग से वाक़िफ़ हूँ। अजी वो सात तालों में भी कोई काम करेगा तो मुझे पता चल जाएगा। अब तक तो ख़ैर में ये बात मुँह पर लाया नहीं था। लेकिन अब बात मुँह पर आ ही गई है तो कहता हूँ कि...” और यहाँ आकर शेख़-जी की आवाज़ धीमी पड़ गई और उसने तक़रीबन सरगोशी का अंदाज़ इख़्तेयार कर लिया, “मियाँ मुहल्ले में जितनी भी चोरियां हुई हैं उन सब में नंबरदार का हाथ है।”
प्रेम-श्री का मुँह खुला का खुला रह गया। मुंशी रहमत अली के मुँह से बे-साख़्ता “अच्छा” निकल गया। लेकिन छिद्दा ने इतमीनान का साँस लिया। उसके दावे की ताईद बहुत शानदारर तरीक़े पर हुई थी। अब उसने और हाथ पैर फैलाए, कहने लगा, “इस लंबरदार ने तो मेरे बाप का टेबा कर दिया। उसस ने इतनी मेहनत से मेरी बऊ के लिए ज़ेवर और कपड़ा ख़रीदा था। साले ने कूमल लगवा दिया। सुबह जो उठें हैं तो क्या देखें कि घर में एक की बजाय दो दरवाज़े बने हुए हैं जो इस दरवाज़े से लाए थे वो उस दरवज़्ज़े से निकल गया।” और ये कहते-कहते छिद्दा को यकायक एहसास हुआ कि घोड़े की रफ़्तार सुस्त पड़ गई है। उसने सांटर से एक चाबुक रसीद किया लेकिन घोड़े ने आगे बढ़ने की बजाय दौलतीयाँ फेंकनी शुरू कर दीं। छिद्दा ने ताव में आकर ललकारा, “हित तेरी नानी की बेटी दम में खटखटा,” और सैड़ सैड़ हंटर बरसाने शुरू कर दिए। मार के आगे तो भूत भी भागता है। छिद्दा का घोड़ा तो फिर घोड़ा था। उड़के खड़ा हो गया। दौलतीयाँ फैंकीं। अलिफ़ खड़ा हो गया। हिनहिनाया और बिलआख़िर फिर सीधे सुभाओ दौड़ने लगा, और जब इक्का अपनी पूरी रफ़्तार पर चलने लगा तो छिद्दा को एक अजीब सी आसूदगी का एहसास हुआ। उसने चाबुक का उल्टा सिरा ख़्वाह-मख़ाह पहीए के डंडों और चाबुक के तसादुम से पैदा होने वाला कट किट का ये तेज़ शोर मुस्तज़ाद, ख़ाम और खुर्द रली आवाज़ों के इस तरन्नुम में छिद्दा ने अपने आपको गुम होता हुआ महसूस किया। उसने मज़े में आकर तान लगाई...
“दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे।”
अब छिद्दा किसी दूसरी दुनिया में पहुँच गया था। शेख़-जी और मुंशी जी अब भी उसी जोश-ओ-ख़ुरोश के साथ नंबरदार के किरदार पर तन्क़ीद किए जा रहे थे। लेकिन छिद्दा को बस अब इतना महसूस हो रहा था कि कहीं दूर से धुंद में लिपटी हुई आवाज़ें उसके कानों में आ रही हैं। उसे इस ग़ज़ल का उल्टा सीधा एक सालिम शेअर भी याद था जब एक मिसरा पढ़ते-पढ़ते उसकी तबीयत सैर हो गई तो उसने एक नई तरंग के साथ इस शेअर को गाना शुरू किया।
ऐ देखने वालो मुझे हंस हंस के ना देखो।
दुनिया ना तुम्हें भी कहीं दीवाना बना दे।
लेकिन सुरूर और सरशारी की ये कैफ़ीयत देर पा साबित न हुई। अचानक पीछे से एक दूसरे इक्के की आहट हुई और चश्म ज़ोन में अल्लाह दिया और उसका तनोमंद घोड़ा बराबर में सीधे हाथ पर नज़र आया और ओझल हो गया। अलबत्ता इक्के की पुश्त पर लहराता हुआ सफ़ेद पर्दा काफ़ी देर तक नज़र आता रहा। मुम्किन है छिद्दा इस वाक़िया को गोल कर जाता लेकिन प्रेम-श्री ने बात का बतंगड़ बना दिया। मुंशी रहमत अली को ठोक कर बोला, “मुंशी जी। यू अल्लाह दिया चोखा रहा। जबू हमरा इक्का चला था वा के इक्के में काहू सबारी नाय थी।”
छिद्दा बहुत घटा। कहने लगा, ”माहराज उसका इक्का है भी तो रबटाईर।”
लेकिन शेख़-जी ने छिद्दा की बात काट दी, “अबे साले इक्के की बात नहीं है। उसका घोड़ा बहुत तैयार है। इशारे पर चलता है। वाह क्या घोड़ा है। जिस्म शीशे की तरह चमकता है।”
“हाँ साहब खिलाई की बड़ी बात है,” मुंशी रहमत अली ने लुक़मा दिया।
शेख़-जी के लहजे में और गर्मी पैदा हो गई। मुंशी जी इस मकर का घोड़ा इस वक़्त सारे क़स्बे में किसी के पास नहीं है।”
अल्लाह दिए के घोड़े की तारीफ़ पर छिद्दा का तख़य्युल बहक निकला, कहने लगा, “मियाँ तुमने मेरी घोड़ी नईं देखी। वाह क्या फ़र्रुट जाती थी। ये साला अल्लाह दिए का घोड़ा उसके सामने क्या है।”
“अबे तेरे पास घोड़ी किस दिन हुई थी।” शेख़-जी आज हर तरह छिद्दा की तौहीन करने पर तुले हुए थे।
छिद्दा भी गर्म हो गया। बोला, “शेख़-जी तुम्हें यही तो पता नईं ए। में ने दिल्ली में घोड़ी ख़रीदी थी। वो घोड़ी थी। बस क्या पूछो हो। ओ हो हो हो हंटर छुवाया और हुआ हुई। और मियाँ जैसी घोड़ी थी वैसा ही ताँगा था... मुंशी जी दिल्ली में इक्के नईं चलते।”
“नौ भर बग्घियाँ चलती हैं।” मुंशी रहमत अली ने भुन कर जवाब दिया।
“लो मियाँ मैं झूट बोल रहा हूँ।” छिद्दा को भी अपने ऊपर पूरा एतिमाद था, “सो-सौ रुपय की शर्त रई। अगर कोई दिल्ली में मुझे इक्का दिखादे तो ग़ुलाम बन जाऊँ। वां पे तो ताँगे चलते हैं। मियाँ तंगा भी ख़ूब होवे है। ऊपर टप पड़ी रेवे है। धूप हो तो डालो। हवा खाए को जी चाहे तो टप गिरा दो।”
मुंशी रहमत अली और झल्लाए, “साली सवारी ना हुई छतरी हो गई।”
छिद्दा ने बड़े फ़ख़्र से जवाब दिया, “हाँ मियाँ यही तो ठाट हैं। एक टिकट में दो मज़े। विस ताँगे से मैंने भी वो किया कि बस मेरे पो बारे हो गए। घंटाघर से फ़व्वारा फ़व्वारे से जुमा मुहब्बत। जुमा मुहब्बत से हौज़ क़ाज़ी। हौज़ क़ाज़ी से बारह खम्बे। और जिधर निकल जाओ सवारिएं ही सवारिएं ले लो। याँ की तरह थोड़ाई कि अड्डे पे बैठे ऊँघ रए एं कि अल्लाह भेज मौला भेज और सवारी आवे है तो उसकी एंटी से पैसा नईं निकलता।”
शेख़-जी बोले, “अबे वो शहर है वहाँ का और यहाँ का क्या मुक़ाबला।”
लेकिन छिद्दा तो गर्मी खा गया था। अब वो कहाँ चुपका होने वाला था। बोला “शेख़-जी एक दिल्ली पे ही थोड़ाई है। साल के साल मेरठ की नौचंदी पर जावे था। दिल्ली से निकल के जो भइया दौड़ लगे थी तो बस फिर रखने का नाम नईं। मेरठ ही जाके रुकें थे। मेरी घोड़ी भी फ़र्र फ़र्र जावे थी। बस एक हंटर लगाया और घोड़ी उड़न-छू हुई और फिर मेरठ में दे फेरे पे फेरा। घंटाघर से नौचंदी, नौचंदी से घंटाघर। साले मेरठ वाले भी मेरे सामने छकड़ी भूल गए थे और भइया शाम को नौचंदी में जाके पिशावरी से आध सेर परोंठे कवाब तलवाए और डेढ़ पा हलवा लिया और खापी मूंछों पर ताव देते। यार जी ठंड ठंड में घर को आ गए।”
“वा बे मसखरे,” मुंशी रहमत अली से अब ज़ब्त न हो सका, “अबे सारी शेख़ी तेरे ही हिस्सा में आई है। मैं पूछूँ हूँ कि तेरे जब ये ठाट थे तो तो यहाँ किस लिए आ मरा।”
“मुंशी जी,” छिद्दा की आवाज़ गुलूगीर हो गई। “ये मेरा बाप बड़ा सत्यानासी है में तो कभी न आता मगर विस ने मुझे वां टिकने नईं दिया। याँ अब कर्मों को रोऊँ हूँ जो कमा के लाया था वो सारा चोरी में निकल गया।”
शेख़-जी तो गोया उधार खाए बैठे थे। बस चोरी का लफ़्ज़ पकड़ के उन्होंने अपनी बात शुरू कर दी, नंबरदार पर जो गुफ़्तगु उन्होंने शुरू की थी या तो वो ख़ुद तिश्ना रह गई थी या फिर उनकी तबीयत सैर ना हुई थी। ब हर हाल छिद्दा ने बीच में जो मौज़ू छेड़ दिया था उसके मुआमले में वो कुछ ज़्यादा पुरजोश नहीं थे। अब जो चोरी की बात आई तो शेख़-जी को डोर का टूटा हुआ सिरा मिल गया। कहने लगे, “मियाँ जब तक ये नंबरदार है उस वक़्त तक याँ किसी का घर-बार महफ़ूज़ नहीं है।”
“अमाँ लूट मार तो उनका आबाई पेशा है। ये दौलत छप्पर फाड़ के तो आई नहीं है। ऐसे ही जमा हुई है। अल्लाह बख़्शे उनके बाप अशरफ़ अली उनसे भी चार जूते बढ़े हुए थे।” और यहाँ पहुँच कर मुंशी रहमत अली की गुफ़्तगु ने एक और पल्टा खाया, “अब गड़े मुर्दे क्या उखेड़ना। मियाँ अशरफ़ अली की क्या हैसियत थी। नाल निकाला करते थे। हमारे वालिद मरहूम को तो दुनिया जानती है। कभी पैसे को पैसा न समझा। जुए की लत पड़ गई थी। सारी दौलत जुए की राह उड़ा दी। एक रोज़ जुआ ज़ोरों पर हो रहा था। वालिद साहब जब गिरह से सब कुछ दे बैठे तो उन्होंने इधर-उधर नज़र दौड़ाई। अशरफ़ अली ने पच्चास रुपल्ली सरका दीए और सय्यद पुर का काग़ज़ लिखवा लिया। मुक़द्दर का खोट। वो पच्चास रुपय भी हार गए और यूँ मियाँ हमारा पूरा गाँव इन हज़रत अशरफ़ अली के हत्थे चढ़ गया।“
शेख़-जी ने इस बात की बहुत ज़ोर शोर से ताईद की, “अजी ये वाक़िया कौन नहीं जानता। आपके वालिद भी बड़े जन्नती थे। कौड़ीयों के मोल रियासत बेच डाली।”
मुंशी रहमत अली ने आह-ए-सर्द भरते हुए कहा, “मियाँ अब इन पुरानी बातों का क्या याद करना। वालिद साहब ख़ुदा उन्हीं करवट-करवट जन्नत नसीब करे। उन्होंने बहुत कमाया लेकिन रखना ना जाना और कोई होता तो उस पैसे से सोने की दीवारें खड़ी कर जाता मगर इन्होंने जितना कमाया उससे ज़्यादा खाया और जितना खाया इससे ज़्यादा मिटाया। अलीगढ़ की मदार दरवाज़े वालियों ने उसी पैसे से महल खड़े कराए। और ज़ुहरा जान तो घर ही आकर पड़ रई थीं।”
ज़ुहरा जान का नाम सुनकर छिद्दा तड़प उठा, “वाह मियाँ ज़ुहरा जान की भी क्या बात थी। मेरा बाप कहा करे है कि विस की आवाज़ क्या थी बस पपिया थी।”
मुंशी रहमत अली की बात को सहारा मिला तो वो ज़रा और चहके, “अमाँ याँ वालों ने उसे कहाँ सुना है। जब याँ आई थी तो उसका गला ख़राब हो चुका था। दुश्मनी में आकर किसी ने उसे सिंदूर खिला दिया था। मगर हाथी मरकर भी सवा लाख का। उसके बाद भी ये हाल था कि महफ़िल में तहलका मचा देती थी। बस वालिद साहब उसकी आवाज़ पे लौट गए।”
शेख़-जी ने लुक़मा दिया, “अजी आपके वालिद के भी रईसों के से कारोबार थे और भई क्यों ना होते आख़िर को बड़े बाप के बड़े बेटे थे।”
मुंशी रहमत अली ने फिर लंबा सा ठंडा साँस लिया, “हाँ मियाँ ख़ुद चैन कर गए उनकी औलाद पापड़ बेल रई है जिसके घर लख लुटते थे। उसका बेटा रहमत अली आज कारिंदा गिरी करके अपना पेट पालता है। बचपन में कभी बग्घी के सिवा दूसरी सवारी न देखी। आज किराए के इक्कों में बैठे... फिरते हैं। कोई सोहेले को नहीं पूछता।”
छिद्दा मरऊब हो कर बोला, “हाँ जी आप ठहरे पोतड़ों के रईस। और मियाँ ये लंबरदार साहब...” इस मर्तबा शेख़-जी का फ़रीज़ा छिद्दा ने अदा किया, “ये लंबरदार साहब तो मुझे यूँ ही लगें हैं। मियाँ कुछ ही हो उन की शहर में इज़्ज़त आबरू तो है नईं। हर शख़्स उनें गालिएं देवे है।”
शेख़-जी चमक कर बोले, “अमाँ इज़्ज़त आबरू कहीं ख़ाली पैसे से हुआ करती है घसियारा लाख राजा बन जाये रहेगा घसियारा ही।”
छिद्दा का घोड़ा उस वक़्त बाक़ौल छिद्दा फ़र्रुट उड़ा चला जा रहा था। गढ़ों वाली सड़क पीछे रह गई थी। सामने सड़क दूर तक हमवार नज़र आ रही थी और ख़ाली पड़ी थी। दाएं बाएं आम जामुनों और शीशम के हरे-भरे दरख़्त झुके खड़े थे। इस वक़्त छिद्दा की रूह का रुआँ रुआँ नाच रहा था। उसका घोड़ा जब भी बग़ैर हंटर का इंतिज़ार किए तेज़ी से दौड़ता था उसकी रूह वज्द करने लगती थी। उसने मज़े में आकर एक सवाल कर डाला, “मियाँ ये लंबरदार अपने आपको सय्यद कहवें हैं।”
“सय्यद” शेख़-जी के लहजे में तंज़ के साथ-साथ इहानत का पहलू भी पैदा हो गया था। ख़ुदा की क़ुदरत देखो भिश्ती भी सय्यद होने लगे। मुंशी जी सन्न रए हो।”
मुंशी जी बहुत इतमीनान से खंकारे और फिर सर से मलमल की गोल टोपी उतारते हुए बड़ी मितानत से बोले, “मियाँ हम और कुछ तो जानते नहीं लेकिन उनकी दोबारी में मश्क टंगी हुई तो हमने अपनी आँखों से देखी है।”
मुंशी जी का सहारा पाकर शेख़-जी और चमके, “सक्के की औलाद पानी भरते भरते नंबरदारी करने लगे। हमें शेख़ कलाल बतावे हैं।”
छिद्दा ने फिर टाँग उड़ाई, “अजी दिल्ली में बशीर पनवाड़ी की दुकान पे एक ख़ान साहब बैठा करें थे। विनों ने लाख रुपय की बात कही कि मियाँ न कोई सय्यद है ना पठान है ना मुग़ल ना शेख़ सब भंगी चमार थे। अब मुस्लमान बन गए।” मुंशी रहमत अली को ये बात मुतलक़ पसंद न आई। थोड़ी देर तक तो चुपके रहे और जब छिद्दा की बात का असर ज़ाइल हो चुका तो बोले कि “मियाँ शेख़ी की बात नहीं है। हमारे ख़ानदान का तो शिजरा भी था लेकिन क्या कहें अपने वालिद साहब को, बड़े भूले थे। उन्हें मियाँ नंबरदार साहब के बाप एक रोज़ आए, गिड़गिड़ा के कहने लगे कि कुलैक्टर साहब से मुझे मिलना है ज़रा अपना शिजरा दो दिन के लिए दे दो। वालिद साहब झांसे में आ गए। मियाँ वो शिजरा ऐसा गया कि फिर वापिस नहीं आया। बाप चल बसे अब उनका बेटा इससे फ़ायदा उठाता है। जहाँ कोई हाकिम आया और शिजरा ले जाके पेश कर दिया। अब उन्हें जाके कौन बताए कि किन की बातों में आ रहे हो ये तो सक्के हैं सक्के।”
शेख़-जी कुछ कहने के लिए पर तौल ही रहे थे कि यकायक इक्के का एक पहिया गढ़े में गिरा और इक्का उलटते उलटते बचा। घोड़ा फिर बिगड़ गया। छिद्दा ने चाबुक भी बरसाए और चुमकारा भी लेकिन घोड़े ने भी इस मर्तबा आगे बढ़ने की क़सम खाली थी। छिद्दा जब ताबड़तोड़ चाबुक रसीद करता था तो इक्के को हरकत तो ज़रूर होती थी लेकिन थोड़ी देर बाद देखिए तो इक्का आगे के बजाय चंद क़दम पीछे खड़ा नज़र आता था। इसी असना में पीछे खरड़ खरड़ की आवाज़ आई। नसरुल्लाह का इक्का बराबर में आन लगा था। नसरुल्लाह ने बराबर से गुज़रते हुए फ़िक़रा कसा, “अबे उस मरियल टट्टू को बेच लेवे, कहाँ खड़ा हो गया। भइया ये सड़क पे नईं चलेगा दगड़े दगड़े चला।”
छिद्दा का ख़ून एक तो वैसे ही खोल रहा था। नसरुल्लाह का फ़िक़रा सुनकर और भुन गया। ताव में आके जवाब दिया, “अबे अंजर पिंजर पे रंग कराके उतार रिया ए।”
नसरुल्लाह कहाँ चूकने वाला था। उसने पलट कर आवाज़ लगाई, “प्यारे अब के पेंठ में इस शुक्रम को निलाम कर दीजो। कुछ पैसे उठ जाऐंगे।”
छिद्दा बहुत भुना। लेकिन क्या करता। चुप होते ही बनी। घोड़ा था कि सामान में ही न आता था। अब मुंशी रहमत अली को तहसील की फ़िक्र सवार हुई। बोले कि “यार मेरे आज तहसील भी पहुँचाएगा या नहीं।”
“हत तेरी तहसील की दम में तह तोड़ कुवें के नल का नमदा,” और उसने सड़-सड़ हंटर चला डाले। लेकिन घोड़े की हालत ये हो रही थी कि न हिलद न खिसकत ना जन ब दज़्जा। छिद्दा लाचार हो कर इक्के से उतर आया। उसने घोड़े की लगाम पकड़ी और आहिस्ता-आहिस्ता चलाना शुरू किया। बीस पच्चीस क़दम यूँ चलने के बाद घोड़ा कुछ राह-ए-रास्त पे आया। छिद्दा उचक कर डंडे पे बैठ गया और कई चाबुक जल्दी जल्दी रसीद कर डाले। घोड़ा फिर तरारे भरने लगा। छिद्दा ने इतमीनान का साँस लिया। मुसीबत टल जाने के बाद उसने मुसीबत का जवाज़ पेश करना शुरू किया, “मुंशी जी घोड़ा बेचारा क्या करे। इस सड़क को मैं बस क्या कहूँ दगड़ा बनी हुई है। मियाँ दिल्ली की सड़कें थीं। ऐसे वैसे आदमी का तो विसपा से पैर रपट जावे था। और ताँगा यूँ जावे था फटाफट।”
प्रेम-श्री का चुपके बैठे बठे मुँह बंध गया था। उसने तवील सी जमाई लेते हुए कहा, “शेख़-जी इस सड़क के बनने वन्ने का भी कुछ बोनत बिनत है?”
“चैन की बाँसुरी बजाओ लाला। शेख़-जी फिर अपने पुराने मौज़ू पे आ गए।” जब तक नंबरदार साहब का दम सलामत है उस वक़्त तक तो इस सड़क के दिन फिरते नहीं।”
प्रेम-श्री बिगड़ कर बोला, “नंबरदार साहब अच्छे चुंगी के मैंबर भए सड़क सारी भूस का थैला बन गई।”
छिद्दा ने एक दूसरे पहलू की तरफ़ इशारा किया, “यारो जबसे हमने होश सँभाला ये सारे कंकरों के ढेर किनारे किनारे यूँ ही पड़े देखे। सड़क तो बन चुकी ये तो बस ग़ुलेल के गुल्लों के ही काम आएँगे और ये कहते-कहते उसकी तवज्जो कंकरों के ढेरियों से हट कर दरख़्तों पर मर्कूज़ हो गई। इक्का उस वक़्त आम के घने दरख़्तों के नीचे से गुज़र रहा था। सीधे हाथ पर मंदिर से लगे हुए कुवें की पक्की मुंडेर पर तोतों की कतरी हुई अन-गिनत छोटी-छोटी कच्ची अम्बियाँ बिखरी पड़ी थीं। मंदिर की छत पर और कुवें की मुंडेर पर बहुत से छोटे बड़े बंदर बुरी तरह चीं में कर रहे थे। एक बंदर ने छिद्दा की तरफ़ रुख़ करके आहिस्ता से खो किया और फिर चुपका हो गया। छिद्दा की तबीयत लहक उठी बोला, “यारो अब के आम तो ख़ूब हुआ है।”
प्रेम-श्री ने गिरह लगाई, “आमों का भाव अब के मंदा रहेगा। पर बाबू फ़सल भी वो हुई है कि जिसने बाग़ ले लिया वा की चाँदी ही चाँदी है।” छिद्दा ने एक और एतराज़ किया, “मगर लाला अब के कोयल नईं बोली। पहाड़ से आई भी है या नहीं।”
शेख़-जी को उसकी बे-ख़बरी पे बहुत ताव आया, “अबे सारे दिन तेरा घोड़ा हिनहिनाता है तो कोयल की आवाज़ कहाँ से सुन लेगा।”
मुंशी रहमत अली बोले, “भइया तुझे आम खाने से मतलब है न कि पेड़ गिनने से। तुझे कोयल से क्या। तुझे हम चाहें वो तुझे मिल जाऐंगे। सामने एक दरख़्त की जड़ से एक नेवला निकला और सटाक से सड़क को उबूर करके दूसरी सिम्त में कहीं जाकर ग़ायब हो गया। एक उधेड़ उम्र की खूसट बंदरिया सीने से बच्चे को लगाए ख़िरामाँ-ख़िरामाँ सड़क को उबूर कर रही थी और जब इक्का बिल्कुल क़रीब आ गया तो उसने तेज़ से क़दम बढ़ाए और उचक कर एक इमली के दरख़्त पर चढ़ गई।
आबादी अब क़रीब आ गई थी। दूर कच्ची पक्की इमारतों का एक अंबार नज़र आ रहा था। सब से पहले प्रेम-श्री को बेकली महसूस हुई। यूँ भी वो सवारियों के बीच में दबा हुआ बैठा था। उसने ब-मुश्किल तमाम पहलू बदला और जमाही लेते हुए बोला, “मुंशी जी तुम तो तहसील के अड्डे पे उतरोगे?”
“और क्या। तुझे कहाँ जाना है राजा?”
“मोरे को तो पेंठ जाना है।”
“अच्छा आज पेंठ लग रही है,” मुंशी रहमत अली बोले, “तो लाला दो क़दम पे पेंठ है अड्डे से उतर के चले जाइयो।”
छिद्दा का इक्का तहसील के सामने अड्डे पे जाके रुका। जिन इक्कों को वो अड्डे पे छोड़कर रवाना हुआ था वो यहाँ इससे पहले आन मौजूद हुए थे। नंबरदार सड़क के किनारे छतरी लगाए किसी का इंतिज़ार कर रहे थे। उनके पीछे उनका मुंशी बग़ल में रजिस्टरों का बस्ता दबाए खड़ा था। मुंशी रहमत अली ने नंबरदार को देखा तो बिछ गए, “अमाँ नंबरदार साहब मैंने आपको अड्डे पर बहुत टटोला। आप कहाँ रह गए थे।”
“मुंशी जी कुछ घर से निकलने में देर हो गई। लेकिन ख़ैर अल्लाह दिए ने बहुत जल्दी पहुँचा दिया।” नंबरदार साहब ने मुंशी जी के जोश-ओ-ख़रोश का जवाब उतने ही जोश-ओ-ख़ुरोश से देना ज़रूरी न समझा।
शेख़-जी उधर से बोले, “तो नंबरदार साहब वापसी तो साथ ही होगी।”
नंबरदार साहब ने सोचते हुए जवाब दिया, “हाँ देखो। आज ये तहसीलदार न मालूम किस वक़्त रगड़ेगा।”
पीछे से छिद्दा बोला, “नंबरदार साहब इक्का लिए खड़ा हूँ। बस आज तुम्हें ही ले के चलूँगा।”
“अबे घोड़ा इक्का ठीक है।”
“अजी घोड़ा इक्का। क्या कह रए ओ नंबरदार साहब।” छिद्दा ने साथ में चुटकी का इशारा किया। यूँ पहुँचाऊँगा। इधर बैठे और उधर दन से घर पे।”
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