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सनोबर के साये

हिजाब इम्तियाज़ अली

सनोबर के साये

हिजाब इम्तियाज़ अली

MORE BYहिजाब इम्तियाज़ अली

    स्टोरीलाइन

    यह एक ऐसे शख़्स की कहानी है, जो शक की वजह से अपनी बीवी का क़त्ल कर देता है। बहुत साल पहले वह उस जगह घूमने के लिए आया था और उस लड़की से मोहब्बत कर बैठा था। उसने उस लड़की से शादी की और वहीं का हो कर रह गया। एक रोज़ उसकी बीवी ने एक ख़्वाब देखा और उस ख़्वाब को हक़ीक़त में तब्दील होने से रोकने के लिए उनकी ज़िंदगी में कुछ ऐसी तब्दीली आई कि उस शख़्स ने अपनी बीवी का ही क़त्ल कर दिया।

    मैं जब से इन पहाड़ी इलाक़ों में आई थी ‘नहर रूहनाक’ की रा’नाइयों का ज़िक्र हर ख़ास-ओ-आ’म से सुनती थी, लोग कहते, उसके सनोबर के सायों से ढके हुए किनारों पर सुहाने ख़्वाबों की रूमान झिलमिलाती है। पहाड़ी ख़ाना-बदोशों का बयान था कि ना मा’लूम पहाड़ों की बुलंदियों ने एक मुक़ाम पर आसमान के नील में शिगाफ़ कर रखा है और रूहनाक की नीली धार वहीं से उतरती और कोहसारों में से होती फिरती इस वादी में एक नदी बन कर निकलती है।

    भला आप ग़ौर कीजिए। इन रूमानी फ़िक़्रों को सुनकर मुझ जैसी सैर-ओ-सयाहत की दिलदादा से कब निचला बैठा जा सकता था?

    एक दिन में अपनी महबूब सहेली जसवती से मचल कर कहा, “जसवती हमें यहां आए दो हफ़्ते गुज़र चुके। मगर हमने नहर रूहनाक की सैर अब तक नहीं की। तुम पसंद करो तो आज शाम कश्ती की सैर को चलें।”

    जसवती को आप जानते हैं। सफ़ेद चेहरे वाली सलीम अलतबा’ लड़की है। इस सफ़र में, मैं उसे अपने साथ तक़रीबन खींच कर लाई थी।

    उसने मुस्कुरा कर कहा, “जैसी तुम्हारी मर्ज़ी रूही, लेकिन पानी से मुझे डर लगता है।”

    उसी वक़्त जसवती के एक महबूब हब्शी नज़ाद ख़ानाज़ाद ने कहा, “ख़ातून मैंने सुना है साहिल रूहनाक पर एक बहुत मुश्ताक़ सौ साल का बूढ़ा मल्लाह रहता है। उसकी कश्ती कभी लहरों पर नहीं डगमगाती। अगर आप इजाज़त दें तो उसी मल्लाह की कश्ती किराए पर ले ली जाये।”

    मैंने बेपरवाई से कहा, “कोई मल्लाह और कोई कश्ती हो।”

    जसवती कहने लगी, “सौ साल का मल्लाह, ख़ाक कश्ती चलाता होगा।”

    ख़ानाज़ाद ने कहा, “ख़ातून सुना है वो सत्तर साल से कश्तीबानी करता है, और आज तक उसकी कश्ती को कोई हादसा पेश नहीं आया।” ग़रज़ उसी वक़्त हमने उसे कश्ती किराये पर लेने और शाम की चाय का इंतिज़ाम कश्ती ही में करने के लिए रवाना कर दिया। जब हम दोनों इस मुक़ाम पर पहुंचे, जहां से सय्याह, रूहनाक की सैर के लिए पानी का सफ़र शुरू करते हैं तो हमने देखा, कि एक सुर्ख़ और नीले रंग का मुरस्सा शिकारा हमारे इंतिज़ार में है। उसके मोतियों के काँपते हुए पर्दों में से ईरानी क़ालीन, पारों पर रखे हुए ख़ुशवज़ा’ और ख़ुश क़ता तकिये दा’वते इस्तिराहत दे रहे थे।

    मैंने मुस्कुरा कर जसवती से कहा, “ये ख़लीफ़ा बग़दाद का मेहराब तफ़रीह मा’लूम होता है।”

    अंदर आराम से नीम दराज़ होने के बा’द हमने मुड़ कर कश्ती चलाने वाले को देखा। एक पीर सद साला कश्ती के परले सिरे पर चप्पू हाथ में लिए बैठा था। उसके मुरझाए हुए चेहरे पर सफ़ेद लंबी दाढ़ी के बाल हल्की हल्की हवा से काँप रहे थे। पुरानी आँखों में ज़िंदगी की ताबानी-ओ-दरख़्शानी थी बल्कि... जैसे एक धुंद में से माज़ी की हसरत-ए-दीदार चमकती नज़र रही थी।

    हब्शी ख़ानाज़ाद ने चाय तैयार कर रखी थी। हम गर्म-गर्म चाय के ख़ुशगवार घूँट हलक़ से उतारते धीरे धीरे रूहनाक की तरफ़ जा रहे थे, जिसके नील पर ग़ुरूब-ए-आफ़्ताब मचल मचल कर शहाब पाशी कर रहा था।

    मंज़र बतदरीज वारफ़्ता सा हुआ जा रहा था। हवाओं में निकहत बढ़ रही थी। पानी की छोटी छोटी लहरों की आवाज़ पर शुबहा होता था, जैसे कहीं दूर ख़्वाब के जज़ीरे में पानी बरस रहा हो, फ़ित्रत अपनी बेसाख़ता रा’नाइयों का दामन फैलाए हमारे सामने थी। एक तस्वीर जिसमें ढलते हुए सूरज का हर लम्हा नए अंदाज़ से रंगीन मू-क़लम की शो’बदा बाज़ियां दिखा रहा था। अल्लाह! सच-मुच वो ख़्वाब की सरज़मीन थी, रूमान का जज़ीरा था।

    सीधे और तनावर सनोबर, जैसे दम-ब-ख़ुद खड़े थे और उनके दरमयान से कहीं फूलों से ढंपी हुई ढलवानें नज़र आतीं। कहीं एक अछूते नूर में नहाए हुए हरे टीले और कहीं उफ़ुक़ के सहाब पारों में खोए हुए कुहसार।

    हम चुप थे। मुझे मा’लूम था, हम कितनी दूर निकल गए, और हमारे शिकारे को चलते कितना वक़्त हो गया।

    यकायक हब्शी ख़ानाज़ाद की आवाज़ ने हमें चौंका दिया।

    “जनाब वापस चलिए। आफ़ताब ग़ुरूब हो रहा है। कहीं ऐसा ना हो कि पानी के रास्तों पर हम भटक जाएं।”

    बूढ़े मल्लाह ने ऐसे चेहरे से, जिस पर मुस्कुराहट का शुब्हा हो सकता था कहा, “राह से भटकना नामुमकिन है। मैं साठ सत्तर साल से इन आबी रास्तों का आ’दी हूँ।”

    मैं ज़रा देर चुप-चाप मल्लाह का चहर तकती रही, जिस पर ज़िंदगी के गर्म-ओ-सर्द ने तरह तरह की झुर्रियाँ डाल रखी थीं। फिर पूछा गोया, “तुम क़रीब क़रीब एक सदी से यहां रहते हो?”

    “जी हाँ”

    “तुम्हारा मकान कहाँ है?”

    “मकान कहीं नहीं ख़ातून... सनोबर के इन सायों तले पड़ रहता हूँ...”

    मुझे महसूस हुआ। ये कहते हुए उसके ज़ईफ़ सीने ने इक आह भरी है।

    “सनोबर के सायों तले”, मैंने हैरान हो कर कहा, “बेपनाह गर्मी और लरज़ा देने वाली सर्दी, तुम्हें ज़िंदगी से बेज़ार नहीं करती। इसका तुम्हारे पास क्या इलाज है?”

    “इलाज?” उसने एक फीकी हंसी के साथ कहा, “मेरे पास पुरानी यादें हैं। जिसके पास कोई याद हो, उस पर किसी मौसम का असर नहीं होता।” मेरी दिलचस्पी यकलख़्त बढ़ गई। “तुम्हारा माज़ी तो अफ़्सानों से लबरेज़ मालूम होता है।”

    मगर बूढ़े ने मेरी बात की तरफ़ तवज्जो दी। आप ही आप बड़बड़ा रहा था। “मुझे सनोबर के सायों तले रहना पसंद है। मुझ पर इन सायों से चंद घंटे की मुफ़ारिक़त भी शाक़ गुज़रती है। जब ही तो मैं शहर में मज़दूरी करने नहीं जाता। मैं इन सायों तले कश्ती लिए इधर उधर फिरता रहता हूँ।”

    “क्या तुम हमें उस राज़ से आगाह कर सकोगे कि सनोबर के सायों से तुम्हें क्यों इश्क़ है?” मैंने इल्तिजा के लहजे में पूछा।

    “ये कोई राज़ नहीं।” उसने दम तोड़ते हुए सूरज के मुक़ाबिल एक स्याह तस्वीर बन कर कहा, “सभी जानते हैं कि मुझे सनोबर के सायों से क्यों मुहब्बत है और क्यों में अपनी ज़िंदगी के आख़िरी सांस उनके नीचे ख़त्म करना चाहता हूँ।”

    जसवती और मैं कुहनियाँ तकियों पर रखकर मुतवज्जा हो गईं। कश्ती बहाव पर जा रही थी। बूढ्ढा चप्पू हाथ में थामे बेपरवाई से अपनी कहानी कह रहा था।

    2

    आज से सत्तर साल पहले का ज़िक्र है कि दुनिया मेरी नज़रों में नौजवान थी। ज़िंदगी की हर हर करवट मेंहज़ारों ही दलफ़रेबियां महसूस होती थीं। मैं ग़रीब मल्लाह था। इन पहाड़ी इ’लाक़ों का एक ख़ुशहाल ताजिर था।

    बहार के मौसम में एक दिन शाम के आसमान पर सुनहरा चांद हंस रहा था, जब मैं इसी रूहनाक के साहिल पर इन्हीं सनोबर के सायों तले चहल क़दमी के लिए निकल आया।

    मेरी नज़र पहाड़ी हुस्न के एक नादिर नमूने पर पड़ी... एक कम-सिन लड़की पर, जो सनोबर के साये तले एक सब्ज़ पत्थर पर बैठी एक टोकरी बुन रही थी। मुझसे तफ़सील की रंगीनी माँगिए। रात का अंधेरा उतर आएगा। समझ लीजिए मैं ख़ुद वहां आया था। मुझे वो क़ुव्वत वहां खींच लाई थी। जो हर नौजवान के दिल को ज़िंदगी के फूलों के दरमियान कशां कशां लिए फिरती है।

    हम में मुहब्बत शुरू हो गई। हम शबाब की एक रंगीन वारफ़्तगी में बाहम मुहब्बत करने लगे हम हर-रोज़ इन्हीं सनोबर के काँपते हुए सायों तले मिलते और अपनी आरज़ूएं एक दूसरे के धड़कते हुए दिल से कहते। बहुत जल्द हमारी शादी हो गई।

    उसी वक़्त अचानक सनोबर के दरख़्त पर से एक नाशाद बुलबुल यका-य़क चिल्लाई। बूढ़े ने मुड़ कर उसे देखा और फिर लरज़ कर कहा, “ये दीवाना परिंद क्या कह रहा है? यही कि मुहब्बत बहुत ज़ालिम चीज़ है।”

    जसवती ने मुझे और मैंने जसवती को चुप-चाप देखा। इस बूढ़े दिल में यक़ीनन कभी शे’र के चश्मे उबलते रहे थे। बूढ़े ने चंद हाथ चप्पू के चलाए और एक आह भर कर बोला,

    “शादी के बाद छ: महीने निहायत सुनहरे गुज़रे, फिर एक नहस ख़्वाब ने हमारी ज़िंदगी का रुख पल्टा दिया।

    एक सुबह जूंही मेरी बीवी ने तकिए पर नींद से आँखें खोलीं। उदास लहजे में बोली, “मैंने एक होलनाक ख़्वाब देखा है।”

    मेरी मुहब्बत की नज़रों ने उससे पूछा, “क्या ख़्वाब?”

    बीवी ने आह खींच कर कहा, “मैंने रात तक़दीर के फ़रिश्ते को देखा, जो पहाड़ों की बुलंदियों पर अपने पर हिला हिला कर कह रहा था कि अगर तुमने रात तक अपने बालों में एक कासनी रंग का गुलाब सँवारा तो तुम्हारा घर उजड़ जाएगा।”

    आज से सत्तर साल पहले दुनिया बहुत औहाम परस्त थी। चुनांचे बीवी का ये होलनाक ख़्वाब सुनकर मेरा इश्क़ सहम सा गया। मेरी परेशानी देखकर बीवी बोली, “पर इतने फ़िक्र की क्या बात?”

    मैंने कहा, “फ़िक्र कैसे हो? शीरीं तरीन! क्या तुझे नहीं मा’लूम कि कासनी रंग का गुलाब इन पहाड़ी इ’लाक़ों में नायाब है?”

    मेरी बीवी का चेहरा पीला पड़ गया। “नायाब? फिर क्या करोगे? कासनी रंग का गुलाब आज रात तक बालों में लगाना ज़रूरी है। वर्ना हमारा ये मुस्कुराता हुआ घर तबाह हो जाएगा। फ़रिश्ते ने यही कहा था।”

    ना मा’लूम अंदेशों से घबरा कर वो रोने लगी। “मैंने उस का सर अपने सीने से लगा लिया और वा’दा किया कि अतराफ़ के इ’लाक़ों के तमाम बाग़ों में, शहर के बाग़बानों को भेजूँगा और ताकीद करूँगा कि किसी किसी तरह उसे दस्तयाब कर के कासनी रंग का एक गुलाब ले आएं।”

    मेरी बीवी अपने लंबे लंबे बाल खोल कर नहाने के लिए चश्मे पर चली गई ताकि गुलाब के आने से पहले बाल सँवार ले।

    मैं परेशानी के आ’लम में उसी वक़्त कासनी गुलाब की तलाश में निकल गया। शहर के हर बाग़बान से मिला। मगर एक एक ने कहा कि इस इलाक़े में कासनी रंग का गुलाब कहीं नहीं मिल सकता। बेज़ार और मायूस हो कर मैं हाकिम-ए-शहर के बाग़बान के हाँ गया। अपनी ज़रूरत उसके आगे कही। वो बड़ा ही सफ़्फ़ाक आदमी था। सोच कर बोला, “कासनी गुलाब हमारे बाग़ में है तो। पर इसकी क़ीमत छः अशर्फ़ी से कम नहीं।”

    मैंने छः अशर्फ़ियां उसकी हथेली पर रख दीं और कासनी गुलाब लेकर ख़ुश ख़ुश घर पहुंचा।

    मेरी बीवी कासनी गुलाब देखकर बाग़ बाग़ हो गई और मुस्कुरा कर बोली, “अगर आज मैं कासनी गुलाब बालों में सँवार सकती तो जाने हम पर क्या मुसीबत आती।”

    मैंने कहा, “इसे फ़ौरन बालों में लगा लो।”

    पर ना जाने उसने किस ख़्याल से कहा, “मेरे बाल गीले हैं अभी में ना लगाऊँगी। जब रात शुरू होगी तो लगा लूँगी।”

    ये कह कर उसने एक बिल्लौरी सुराही में पानी भरा, और फूल को हाथ में देखकर ताज़ा हवा के ख़्याल से सुराही दरीचे में रख दी। मैं दिन-भर गुलाब की सरगर्दानी में अपने काम पर जा सका था। दुकान पर जा बैठा। रात के वक़्त जब घर वापस रहा था, तो मेरा पुराना दोस्त हुम्री मुझे मेरे घर के क़रीब ही मिल गया। उसे मैंने इधर कई हफ़्तों से देखा था, ख़ुश हो कर गले से लगा लिया।

    “मैं तुम्हारे ही हाँ गया था, तुम मिले तो मायूस हो कर वापस गया।”

    उसने ये जुमला ख़त्म भी किया था कि मेरी नज़र उसकी अ’बा के काज पर पड़ गई। मेरा ख़ून मेरी रगों में जम गया।

    मैंने यकलख़्त पूछा, “हुम्री ये कासनी गुलाब तुम्हें कहाँ से मिला?”

    हुम्री तबअ’न शोख़ था। हंसकर बोला, “क्यों? तुम्हें क्यूँ-कर फ़िक्र पैदा हुई? मेरी महबूबा ने मुझे तोहफ़ा दिया। नायाब चीज़ है।”

    मेरी आँखों तले अंधेरा छा गया और मैं लड़खड़ा सा गया। वो ख़्वाब तक़दीर का फ़रिश्ता! उसकी पेशन गोई! सब झूट था! महज़ हुम्री की अ’बा का काज सजाने के लिए मेरी बीवी ने ये रंगीन झूट तराशा था। हाय ज़ालिम ज़िंदगी! संगदिल ज़िंदगी!”

    3

    मैं ग़ुस्से में काँपता हुआ घर पहुंचा।

    मुझे देखते ही मेरी बीवी दौड़ी दौड़ी आई, और अश्क आलूद आँखों से बोली, “अफ़सोस, बदबख़्ती देखो कि वो फूल ग़ायब हो गया। ख़ुदा में अब क्या करूँ? हम पर ज़रूर कोई मुसीबत नाज़िल होगी। ज़रूर नाज़िल होगी।” मैंने गरज कर कहा, “मौत से ज़्यादा बड़ी मुसीबत और कोई नहीं हो सकती। समझ लो कि तुम्हारी मौत गई।”

    बीवी हैरान होकर मुझे देखने लगी। मगर उस वक़्त मुझे उसकी एक एक हरकत से अय्यारी टपकती मा’लूम होती थी। मैंने फिर चीख़ कर कहा, “तुम्हारी मौत आगई। तक़दीर के फ़रिश्ते की पेशनगोई के लिए तैयार हो जाओ।”

    वो मुतअ’ज्जिब हो कर बोली, “तुम क्या कहते हो? ऐसा कहो। ख़ुदा के लिए कासनी गुलाब को ढूंढ़ो। मैंने उसे बाग़ के दरीचे में ताज़ा हवा के लिए रख दिया था। अंदर बाल संवारने गई थी। वापस आकर देखती हूँ तो फूल वहां था।”

    उसकी इन मक्कार बातों ने मेरे तन-बदन में शो’ले भड़का दीये। मैंने उसके नर्म बाज़ुओं को अपने मज़बूत हाथों में पकड़ लिया और इस ज़ोर से दीवार पर धक्का दिया कि टक्कर खा कर उसके सर से ख़ून का एक सुर्ख़ फ़व्वारा फूट निकला।

    रातों रात मैंने उसे उसी सनोबर के साये तले दफ़ना दिया, जहां उससे मेरी पहली मुलाक़ात हुई थी।

    एक जुनून की बे-अख़्तियारी में मैं घर की तरफ़ लौट रहा था कि इत्तिफ़ाक़ से मेरा दोस्त हुम्री फिर मुझे एक गली के मोड़ पर मिल गया। उसे देखते ही मेरी आँखों में ख़ून उतर आया।

    वो हंसकर बोला, “तुम्हारी आँखें ऐसी सुर्ख़ हो रही हैं जैसे तुम ख़ून कर के आए हो।”

    वो इस तरह बातें कर रहा था, गोया में उसके राज़ से नावाक़िफ़ हूँ।

    मैंने लपक कर उसका गिरेबान पकड़ लिया और बोला, “बदमाश! तू समझता है कि मैंने ख़ून नहीं किया? मैं उसे ठिकाने लगा चुका हूँ।” ये कह कर कासनी रंग का गुलाब मैंने उसकी अ’बा के काज से नोच कर ज़मीन पर दे मारा, और अपने जूतों की मजनूनाना हरकत से मसल डाला। हुम्री आँखों में दहशत लिए मेरा चेहरा तक रहा था। जब मैंने उस से कहा कि मैंने उसकी महबूबा का ख़ात्मा कर दिया, और अब उसका काम तमाम कर देने पर आमादा हूँ तो उसने एक दिलदोज़ चीख़ मारी और कहने लगा, “कोताहअंदेश और जल्दबाज़! तू बद-बख़्त है! वो गुलाब तो मैंने सड़क पर से उठाया था। मैं बाज़ार में से गुज़र रहा था कि गुलाब का फूल देखकर उठा लिया। शायद तुम्हारे ही दरीचे से नीचे गिर पड़ा हो।” ये सुनकर मेरी आँखों तले अंधेरा छा गया। एक ऐसा अंधेरा... जिसने आज तक दुनिया की नैरंगियों को मुझसे ओझल कर रखा है।

    “तक़दीर के फ़रिश्ते का कहना दुरुस्त निकला। मेरी बीवी उस रात कासनी गुलाब अपने बालों में सँवार सकी। हमारा घर मेरी बेवक़ूफ़ी और जल्द-बाज़ी के हाथों तबाह हो गया।

    आज इस क़िस्से को सत्तर साल गुज़र गए। मगर मैं अपनी ग़लती पर नादिम, इस मिट्टी की परस्तिश कर रहा हूँ। जिसमें उन सनोबर के सायों तले मेरी मुहब्बत दफ़न है।”

    कश्ती साहिल से लगी।

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