सराब
बदरुद्दीन जीलानी लेडी ‘आतिफ़ा हुसैन की मय्यत से लौटे तो उदास थे। अचानक एहसास हुआ कि मौत बर-हक़ है। उनके हम-‘अस्र एक-एक कर के गुज़र रहे थे, पहले जस्टिस इमाम अस्र का इंतिक़ाल हुआ। फिर अहमद ‘अली का और अब लेडी ‘आतिफ़ा हुसैन भी दुनिया-ए-फ़ानी से कूच कर गई थीं। जीलानी को ख़द्शा था कि पता नहीं ख़ुद उनकी रूह कहाँ परवाज़ करेगी? वो कॉलोनी में मरना नहीं चाहते थे। वो अपने आबाई वतन में एक पुर-सुकून मौत के ख़्वाहिश-मंद थे, लेकिन वहाँ तक जाने का रास्ता मा’दूम था। वक़्त के साथ राह में ख़ार-दार झाड़ियाँ उग आई थीं।
जीलानी रिटायर्ड आई. ए. एस. थे। कमिश्नर के ‘ओह्दे से सुबुक-दोश हुए साल भर का ‘अर्सा हुआ था, बहुत चाहा कि ज़िन्दगी के बाक़ी दिन आबाई वतन में गुज़ारें, लेकिन मैडम जीलानी को वहाँ का माहौल हमेशा दक़यानूसी लगा था। अस्ल में जीलानी के वालिद स्कूल मास्टर थे और मैडम आई. ए. एस. घराने से आती थीं। उन्होंने आई. ए. एस. कॉलोनी में ही मकान बनवाना पसंद किया था।
जीलानी को कॉलोनी हमेशा से मनहूस लगी थी। यहाँ सब अपने ख़ोल में बंद नज़र आते थे। उनको ज़ियादा चिड़ इसे बात की थी कि किसी से मिलने जाओ तो पहले फ़ोन करो। कोई खुल-कर मिलता नहीं था। वो बात नहीं थी वतन वाली कि पीठ पर एक धुप लगाया।
‘‘क्यों बे सुबह से ढ़ूँढ़ रहा हूँ?’’
‘‘अरे साला। जिलानी? कब आया?’’
कॉलोनी में कौन था जो उन्हें साला कह कर मुख़ातब करता और जीलानी भी पीठ पर धब लगाते? लोग हाथ मिलाते थे लेकिन दिल नहीं मिलते थे। यहाँ कभी मोहल्ले-पन का एहसास नहीं हुआ था। वो जो एक क़ुर्बत होती है मोहल्ले में। एक-दूसरे के दुख-सुख में शरीक होने का जज़्बा। कॉलोनी में ऐसा कुछ भी महसूस नहीं होता था। जीलानी को लगता यहाँ लोग मुहाजिर की तरह़ ज़िन्दगी गुज़ार रहे हैं।
कॉलोनी की बेगमात भी जीलानी को एक जैसी नज़र आती थीं। वही अक़्लीदीसी शक्ल और बैज़ा-नुमा होंट! दिन-भर स्वेटर बुनतीं और सेक्स की बातें करतीं। अंग्रेज़ी अल्फ़ाज़ के तलफ़्फ़ुज़ में उनके बैज़वी होंट दायरा-नुमा हो जाते।
इंसानी रिश्तों में अना की कील जुड़ी होती है। सब में भारी होती है बाप की अना! बाप का रोल अक्सर विलन का भी होता है।
जीलानी ने आई. ए. एस. का इम्तिहान पास किया तो बिरादरी में शोर मच गया। ख़लील का लड़का आई. ए. एस हो गया। बाप का भी सीना फूल गया। मेरा बेटा आई. ए .एस है! मेरा बेटा। अना को तक़्वियत मिली। एक बेटा और था, इफ्तिख़ार जीलानी! वालिद-ए-मोहतरम उसका नाम नहीं लेते थे। अना मजरूह होती थी। इफ़्तिख़ार ढ़ंग से पढ़ नहीं सका। पारचून की दुकान खोल ली। करेले पर नीम चढ़ा कि अंसारी लड़की से शादी कर ली! बिरादरी में शोर मच गया। सय्यद लड़का अंसारी लड़की से फँसा। सीना सिकुड़ गया! लेकिन ज़ख़्म तो लग ही चुका था और रूह के ज़ख़्म जल्दी नहीं भरते। फिर भी मरहम जीलानी ने लगाया। सारे इम्तिहान में इम्तियाज़ी दर्जा हासिल किया। जब आई. ए. एस. के इम्तिहान में भी कामयाबी मिली तो बाप के पाँव ज़मीन पर नहीं पड़ते थे। यहाँ मास्टर ने अपने तालिब-ए-‘इल्म के साथ मेहनत की थी। शुरू’ में महसूस कर लिया कि लड़के में चिंगारी है उसकी पर्दाख़्त होनी चाहिए। वो जीलानी को हर वक़्त ले कर बैठे रहते। बद्र ये पढ़ो। वो पढ़ो। अख़्बार का इदारिया तो ज़रूर पढ़ना चाहिए। बद्र तुम्हें करंट अफ़ेयर्ज़ में माहिर होना है। मज़ामीन तो रट लो। लफ़्ज़ों का इस्ते’माल करना सीखो और जीलानी में इता‘अत कूट-कूट कर भरी थी। वो हर हुक्म बजा लाते। फिर भी मास्टर ख़लील की डाँट पड़ती थी। उनका बेद मशहूर था। तलफ़्फ़ुज़ बिगड़ा नहीं कि बेद लहराया। सड़ाक। सड़ाक! कमीना। जाहिल-ए-मुतलक़। तलफ़्फ़ुज़ बिगाड़ता है?
जो टिक जाता वो कुंदन बन कर निकलता। कम-बख़्त इफ़्तिख़ार ही हवन्नक़ निकला। पढ़ते वक़्त ऊँघने लगता। बेद लगाओ तो चीख़ने लगता। बेहूदा फँसा भी तो अंसारी घराने में!
बाप अक्सर भूल जाते हैं कि बेटों के पहलू में भी दिल होता है। बाप की अना दिल की धड़कनों पर क़ाबिज़ होती है। जीलानी के पहलू में भी दिल था। जब दसवीं जमा’त पास की तो उसमें हसन बानो का दिल धड़कने लगा। सुर्ख़-सुर्ख़ होंट। गुलाबी रुख़्सार। झुकी-झुकी सी आँखें!
उस्तानी की इस लड़की को जीलानी छिप-छिप कर देखते। चोरी हयात ने पकड़ी। हयात कल्लू मौलवी का लड़का था। उसने मिलने के उपाए सुझाए।
‘‘’ईद में मिलो!’’
‘‘’ईद में?’’
‘‘हाँ! और रुमाल माँगना!’’
हसन बानो ने ‘इत्र में डूबा हुआ रुमाल दिया। रुमाल के कोने में नाम के दो हुरूफ़ रेशम से कशीदा थे। बी और जे।
जीलानी ने गौ़र से देखा तो दरमियान में एच भी नज़र आया। बी और जे के साथ एच। या’नी हसन बानो! जीलानी को लगा कोई फूल में लिपटी उँगलियों से उनके लब-ओ-रूख़्सार छू रहा है!
मुलाकातें होने लगीं। दोनों धीमी-धीमी सी आग में सुलगने लगे। आँच वक़्त के साथ तेज़ होने लगी। हसन बानो के बग़ैर जीलानी के लिए ज़िन्दगी का तसव्वुर भी मुहाल था। उससे बातें करते हुए उन्हें लगता कि बाहर बर्फ़-बारी का सिलसिला है और वो आतिश-दान के क़रीब बंद कमरे में बैठे हैं। हयात इस मोहब्बत का अकेला राज़-दार था। यहाँ तक कि जीलानी आई. ए. एस. भी हो गए लेकिन जु़बान खुली नहीं। मगर हर राज़ के मुक़द्दर में है इफ़्शा होना!
रहीमन बुआ ने दोनों को हयात के घर एक ही प्लेट में खाते हुए देखा।
हर तरफ़ शोर।
‘‘मास्टर का लड़का उस्तानी की लड़की से फँसा।’’
एक फँस चुका था। दूसरे की गुंजाइश नहीं थी। वो तो ख़ाक था। ख़ाक में मिला। यह तो आफ़ताब था। भला दो कौड़ी की उस्तानी और झोली में आफ़ताब-ओ-महताब। विलन गु़स्से से पागल हो गया। हिस्ट्रियाई अंदाज़ में गला फाड़ कर चीख़ा।
हराम-ज़ादी, छिनाल मेरे बेटे को फाँसती है। आ मुझे फाँस। कर मुझ से इश्क!
बेद लहराया।
‘‘ख़बरदार बद्र जो उधर का रुख़ किया। ख़बरदार!’’
जीलानी बीमार हो गए। हसन बानो बदनाम हो गई। उसका रिश्ता जहाँ से भी आता मंसूख़ हो जाता। आख़िर जब्रिया स्कूल में उस्तानी हो गई। इता‘अत लकीर पर चलाती है अपनी राह ख़ुद नहीं बनाती। जीलानी आई. ए. एस. थे आई. ए. एस. की झोली में गिरे। कमिश्नर रहीम समदानी ने ‘‘आमडारी हाउस’’ में अपनी लड़की का रिश्ता भेजा।
मास्टर ख़लील ने अपने खपरैल मकान का नाम आमडारी हाउस रखा था। यह आबाई मकान था। किसी तरह़ दालान पुख़्ता करा लिया था और उसकी पेशानी पर जली हर्फ़ों में खुदवाया। ‘‘आमडारी हाउस’’ इससे मुफ़्लिसी ज़ाहिर नहीं होती थी, न ही मकान की असलियत का पता चलता था, बल्कि रो’ब टपकता था।
ऐसा लगता था कोई अंग्रेज़ अपनी हवेली छोड़ कर इंग्लिस्तान लौट गया हो!
अस्ल में वो अंग्रेज़ी के उस्ताद थे। उर्दू के होते तो मकान का अमीर निशाँ या बैत-अल-फ़िर्दौस क़िस्म का नाम रख सकते थे, लेकिन अंग्रेज़ी के स्कूल-मास्टर की अलग साइकी होती है। वो अपना तशख़्ख़ुस बोर्ज़वा तबके़ से क़ाएम करना चाहता है। रहीम समदानी ने जब रिश्ता भेजा तो मास्टर ख़लील आमडारी हाउस के दालान में बैठे चुरूट पी रहे थे।
आई. ए. एस. समधी? सीना फूल कर कप्पा हो गया।
जीलानी जिस कमरे में रहते थे वो खप्पर-पोश था उसमें चूहे दौड़ते थे। शादी के मौक़े’ पर जब मकान की सफे़दी होने लगी तो मास्टर ने कमरे में कपड़े की सेलिंग लगवा दी।
दुल्हन उसी कमरे में उतारी गई!
वही अक़्लीदीसी शक्ल और बैज़ा-नुमा होंट! उसके बाल बॉय-कट थे। वो सुर्ख़ जोड़े में मलबूस जे़वर से लदी थी। जीलानी बग़ल में ख़ामोश बैठे थे। उनको महसूस हो रहा था वो ऐसे कमरे में बंद हैं जहाँ दरीचों में अन-गिनत सुराख़ हैं। बाहर बर्फ़-बारी का सिलसिला है और आतिश-दान सर्द है? अचानक दुल्हन ने नथुने फुलाए और उसके होंट दायरा-नुमा हो गये।
‘‘इट स्मेल्स!’’
जीलानी ने इधर-उधर देखा। किस चीज़ की बू?
‘‘इट स्मेल लाइक रैट।’’
‘‘रैट?’’
‘‘धबड़। धबड़। धबड़!’’ कमबख़्त चूहों को भी इसी वक़्त दौड़ना था।
‘‘माई गुड-नेस’’ दुल्हन ने चौंक कर सेलिंग की तरफ़ देखा।
‘‘यह कमरा है या तंबू?’’
जीलानी ज़िला’ मजिस्ट्रेट हो गए। दुल्हन बिदा हुई तो मैडम जीलानी बन गई। लेकिन महक ने पीछा नहीं छोड़ा। जीलानी किसी तक़रीब में आमडारी हाउस आना चाहते तो मैडम नथुने सिकोड़तीं।
''हॉरिबल! वेयर इज़ स्मेल इन एवरी कॉर्नर ऑफ़ दी हाउस!’’
अस्ल में मुसलमानों के बा’ज़ खपरैल मकानों में बकरियाँ भी होती हैं। आमडारी हाउस में बकरियाँ भी थीं और मुर्ग़ियाँ भी। कहीं भुनाड़ी। कहीं पेशाब। कहीं लाही? एक बार बकरी ने मैडम की टाँगों के क़रीब भुनाड़ी कर दी। पाईंचों पर पेशाब के छींटे पड़ गए। मैडम पाँव पटख़ती हुई तंबू में घुसीं तो दूसरे दिन बाहर निकलीं। घर भर शर्मिंदा था। ख़ास कर मास्टर ख़लील। उस दिन बकरी को बाँध कर रखा गया, लेकिन मुर्ग़ियों को बाँधना मुश्किल था। वो डरबे से निकलतीं तो कट-कट कटास करतीं और लाही बिखेरतीं। मैडम को हैरत थी कि किस क़दर कल्चरल गैप है? यहाँ फ़र्श पर पोंछा तक नहीं लगाते! और जीलानी हसरत से सोचते थे कि अगर हसन बानो होती? हसन बानो तो होटों को दायरा नहीं बनाती। वो उसे अपना घर समझती। लाही पर राख डालती और बटोर कर साफ़ करती!
कल्चरल गैप का एहसास उस वक़्त जाता रहता जब फ़िज़ा में बारूद की महक होती। पनाह तो खपरैल मकानों में ही मिलती थी एक बार मैडम को भी अपने रिश्तेदारों के साथ ‘आलमगंज शिफ़्ट करना पड़ा था। उन दिनों जीलानी ट्रेनिंग के लिए बड़ौदा गए हुए थे। मैडम अपने मैके में थीं। शहर में अडवाणी का रथ घूम रहा था और फ़िज़ाओं में साँप उड़ रहे थे। मुस्लिम फै़मिली महफूज़ जगहों पर शिफ़्ट कर रही थी। रहीम समदानी तब रिटायर कर चुके थे। सबके साथ ‘आलमगंज चले आये।
‘‘किराया पाँच हज़ार!’’
‘‘पाँच हज़ार? इस खपरैल का किराया पाँच हज़ार?’’
‘‘हुज़ूर यही तो मौक़ा’ है, जब आप हमारे क़रीब आते हैं।’’ मालिक-मकान मुस्कुराया।
‘‘दिस इज़ एक्सप्लोइटेशन।’’
लेकिन क्या करते? जान बचानी थी। पंद्रह दिनों तक पेशाब सूँघना पड़ा। फ़िज़ा साज़गार हुई तो कॉलोनी लौटे।
जीलानी अफ़सर थे लेकिन मैडम अफ़सरी करती थीं। मैडम ने आँखें ही आई. ए. एस. घराने में खोली थीं। उनकी नज़रों में जीलानी हमेशा स्कूल मास्टर के बेटे रहे। बात-बात पर उनकी तर्जनी लहराती। नो! नेवर! दिस इज़ नॉट दी वे!
कभी-कभी तो उँगली की नोक जीलानी की पेशानी पर सीधी ‘उमूद सा बनाती। दिस इज़ नॉट फे़यर मिस्टर जीलानी। डॉन्ट डू लाइक दिस! जीलानी की निगाहों में मास्टर ख़लील का बेद लहराता। उनको महसूस होता जैसे तलफ़्फ़ुज़ बिगड़ रहा है। वो अक्सर कहा करतें। तौर-तरीक़ा कहाँ से आएगा? यह ख़ानदानी होता है। मैडम को कोफ़्त उस वक़्त होती जब मुहल्ले से कोई मिलने चला आता। एक बार हयात को जीलानी ने बेड-रूम में बैठा दिया। मैडम उस वक़्त तो ख़मोश रहीं लेकिन हयात के जाने पर उँगली ‘उमूद बन गई।
‘‘आइंदा मुहल्ले वालों को बेड-रूम में नहीं बिठाईएगा, तौर-तरीक़ा सीखिए। आप में ओ. एल. क़्यू. तो है नहीं।’’
‘‘ओ. एल. क़्यू.’’ जीलानी को मास्टर ख़लील याद आते। वो कहा करते थे। ‘‘बद्र। ओ. एल. क़्यू. पैदा करो। ऑफ़िसर लाइक क्वालिटी।’’
हयात फिर बंगले पर नहीं आया। वो उनसे दफ़्तर में मिल कर चला जाता। एक बार जीलानी ने उसको सर्किट हाउस में ठहरा दिया इसकी ख़बर मैडम को हो गई। कमबख़्त ड्राइवर जासूस निकला। जीलानी दफ़्तर से लौटे तो मैडम ने नश्तर लगाया।
‘‘आप आई. ए. एस. क्या हुए कि गंग्वा तेली के दिन भी फिर गए।’’
जीलानी ख़ामोश रहे तो मैडम ने कंधे उचकाए।
‘‘रबिश।’’
जीलानी चुप-चाप कमरे में आकर लेट गये और आँखें बंद कर लीं। अगर हसन बानो होती तो?
उनको ऐसे ही मौक़ा’ पर हसन बानो याद आती थी और दिल-दर्द की अथाह गहराइयों में डूबने लगता था। एक-एक बात याद आती। उसका शर्माना। उसका मुस्कुराना। उसका हँसना! जीलानी कभी बोसा लेने की कोशिश करते तो दोनों हाथों से चेहरा छिपा लेती। चेहरे से उसका हाथ अलग करना चाहते तो मिन्नतें करती।
‘‘नहीं। अल्लाह क़सम नहीं!’’
‘‘क्यों?’’
‘‘गुनाह है!’’
‘‘गुनाह-वुनाह कुछ नहीं।’’
‘‘कैसी बातें करते हैं?’’
‘‘यह प्यार है।’’
‘‘शादी के बाद।’’
''नहीं। अभी!’’
‘‘प्लीज़ जीलानी। प्लीज़!’’
जीलानी पिघल जाते। प्लीज़ का लफ़्ज़ कानों में रस घोलता!
और अल्फ़ाज़ पिघल कर सीसा भी बनते हैं।
‘‘ह़राम-ज़ादी। छिनाल! मेरे बेटे को?’’
जीलानी ख़ुद को कोसते थे। ‘‘क्यों आई. ए. एस. हुए?’’ पारचून की दुकान खोली होती!
आहिस्ता-आहिस्ता दोस्तों का आना कम होने लगा था। जीलानी का बहुत दिल चाहता कि छुट्टियों में वतन जायें और सब से मिलें। वहाँ की गलियाँ और चौबारे वो कैसे भूल जाते जहाँ बचपन गुज़रा था। हर वक़्त निगाहों में मंज़र घूमता। वो मैदान में बैठ कर शतरंज खेलना। उलफ़त मियाँ के पकौड़े। मुहर्रम का मेला। मुक़ीम की क़व्वाली। रोमांस के क़िस्से। वकील साहब का अपनी नौकरानी से ‘इश्क और गली के नुक्कड़ पर वो चाय की दुकान जहाँ से हसन बानो का घर नज़र आता था। जीलानी कहीं नज़र नहीं आते तो चाय की दुकान में ज़रूर मिल जाते।
वो सब के प्यारे थे। दोस्तों ने उनका नाम जीनियस रखा था।
एक बार शाकिर उनको ढूँढता हुआ आया।
‘‘यार जीनियस! मुहल्ले की इज़्ज़त का सवाल है।’’
‘‘क्या हुआ?’’
‘‘सीस्प्लेन डिफ़ेन्स क्या होता है?’’
‘‘एक तरह़ की क़िला’-बंदी जो शतरंज में होती है।’’
‘‘साला हाँक रहा है।’’
‘‘कौन?’’
‘‘मैदान में शतरंज खेल रहा है। उसने हयात को मात दे दी।’’
''है कौन?’’
‘‘बाहर से आया है यार। अब्बास भाई का ससुराली है।’’
''चलो देखते हैं।’’
‘‘देखो जीनियस हारेगा नहीं।’’
‘‘क्या फ़र्क़ पड़ता है। खेल में तो हार-जीत होती रहती है।’’
''नहीं एक-दम नहीं। साले को हराना ज़रूरी है।’’
''अच्छा तो चलो।’’
‘‘हीरो बन रहा है। बात-बात पर अंग्रेज़ी झाड़ रहा है। मैंने कहा अपने जीलानी से खेल-कर दिखाओ?’’
वो वाक़ई’ हीरो लग रहा था। सफे़द सफ़ारी में मलबूस। पाऊँ में चमकते हुए जूते। सियाह चश्मे और और गले में गोल्डन चेन। वो रवानी से अंग्रेज़ी बोल रहा था। जीलानी ने महसूस किया कि उसकी अंग्रेज़ी सबको गिराँ गुज़र रही है। खेल शुरू’ हुआ तो हीरो ने सिगरेट सुलगाई। वो हर चाल पर कश लगाता, कोई चाल अच्छी पड़ जाती तो ज़ोर-ज़ोर से सर हिलाता और मिसरा गुनगुनाता। ‘‘क़यामत आई यूँ। क़यामत आई यूँ!’’ जीलानी के दिल की धड़कन बढ़ गई। हार गये तो बे-इज़्ज़ती हो जायेगी। वो संभल-संभल कर खेल रहे थे। आख़िर भारी पड़ गए और मात दे दी। दोस्तों ने ज़ोर-दार ना’रा लगाया। जीनियस ज़़िंदाबाद। ज़िंदाबाद! हीरो जब जाने लगा तो शाकिर बोला, ‘‘ह़ुज़ूर! पैंट में पीछे सुराख़ हो गया है। घर पहुँच कर रफ़ू करवा लीजिएगा।’’
हयात ने मिस्रा’ मुकम्मल किया।
‘‘क़यामत आई यूँ। पैंट बोला चूँ।’’
ज़ोरदार क़हक़हा पड़ा। जीलानी भी मुस्कुराए बग़ैर नहीं रह सके।
जीलानी आई. ए. एस. हो गए लेकिन मुहल्ले में उसी तरह़ घूमते। मैदान में शतरंज खेलते और नुक्कड़ की दुकान पर चाय पीते। उलफ़त उनसे पैसे नहीं लेता था। वो पैसा देना चाहते तो उलफ़त बड़े फ़ख़्र से कहता,
‘‘तुम्हारे लिए चाय फ़्री। तुम हमारी शान हो। मुहल्ले की जान हो!’’
मुहल्ले की जान कॉलोनी में आकर बे-जान हो गई थी।
मास्टर ख़लील भी शुरू’-शुरू’ में बेटे के यहाँ जाते थे, लेकिन आहिस्ता-आहिस्ता उनका भी जाना कम हो गया। अस्ल में वो लुँगी पहन कर ड्राइंग-रूम में बैठ जाते और चुरूट पीते। लुँगी और चुरूट में फा़सला है जो मास्टर ख़लील तय नहीं कर सकते थे। लुँगी उनकी औक़ात थी और चुरूट उनकी वो पहचान थी जो वो नहीं थे। मैडम ने पहले दबी ज़बान में टोका, लेकिन एक दिन खुल-कर ए’तिराज़ कर बैठें।
‘‘आप ड्राइंग-रूम में लुँगी पहन कर क्यों चले आते हैं?’’ मेरे मुलाक़ाती आख़िर क्या सोचेंगे? मेरा एक स्टेट्स है।’’
जीलानी उस वक़्त मौजूद थे। उन्होंने एक लम्हे के लिए वालिद-ए-मोहतरम की आँखों में झाँका। जीलानी की आँखें साफ़ कह रही थीं। ‘‘भुगतो!’’
मास्टर ख़लील उठ गये। जीलानी भी अपने कमरे में आकर चुप-चाप लेट गए और आँखें बंद कर लीं।
रिटायरमेंट के बाद जीलानी तन्हा हो गए। कॉलोनी में कहीं आना-जाना कम था। एक ही बेटा था जो अमेरिका में बस गया था। मैडम महिला आयोग की मिम्बर थीं। उनकी अपनी मस्रुफ़ियात थीं। जीलानी के वालिद फ़ौत कर चुके थे। आमडारी हाउस पर इफ़्तिख़ार का क़ब्ज़ा था।
मैडम ने कॉलोनी में अपनी कोठी बना ली थी। जीलानी की नज़रों में कोठी की कोई वक़‘अत नहीं थी। बेटा अमेरिका से वापस आना नहीं चाहता था। उसके बाद आख़िर रहने वाला कौन था?
मज़हब बुढ़ापे का लिबास है। जीलानी का ज़ियादा वक़्त मज़हबिय्यात के मुताला’ में गुज़रता था। इमाम ग़ज़ाली के बारे में पढ़ा कि उनको मौत की आगाही हो गई थी। इमाम ने उसी वक़्त वुज़ू किया और इन्ना लिल्लाह पढ़ते हुए चादर ओढ़ कर सो गए। जीलानी बहुत मुतअस्सिर हुए, बे-साख़्ता दिल से दुआ निकली, या मा’बूद! मुझे भी ऐसी मौत दे! अपने वतन ले चल...!
अस्ल में कॉलोनी में मरने के ख़याल से ही उनको वह्शत होती थी। यहाँ मरने वालों का हश्र उन्होंने देखा था। तजहीज़-ओ-तकफ़ीन के लिए किराए के आदमी आते थे। लेडी ‘आतिफ़ा हुसैन को कोई ग़ुस्ल देने वाला नहीं था। किसी तरह़ पैसे दे कर आलमगंज से ‘औरतें मंगवाई गई थीं। जस्टिस इमाम का लड़का तो गोर-कन से उलझ गया था। क़ब्र खोदने के हज़ार रूपए माँगता था। आख़िर सौदा साढ़े सात सौ पर तय हुआ। जीलानी को इस बात से सदमा पहुँचा कि कॉलोनी में आदमी सुकून से दफ़्न भी नहीं हो सकता। ये बात वतन में नहीं थी। मुहल्ले में किसी के घर ग़मी हो जाती तो किराये के आदमियों की ज़रूरत नहीं पड़ती थी। सभी जुट जाते। कोई कफ़न सीता, कोई ग़ुस्ल देता। सिर्फ़ गोर-कन दो सो रूपए लेता था। क़ब्रिस्तान भी नज़दीक था। जनाज़ा कंधों पर जाता था। यहाँ तो मय्यत ट्रक पर ढ़ोई जाती थी। क़ब्रिस्तान एयरपोर्ट के क़रीब था। वहाँ तक कंधा कौन देता? सभी अपनी-अपनी गाड़ियों से सीधा क़ब्रिस्तान पहुँच जाते और सियासी गुफ़्तगू करते। जीलानी को कोफ़्त होती। अगर बरसात में मौत हो गई? जीलानी इस ख़याल से काँप उठते थे। बरसात में पूरा शहर तालाब बन जाता। झिम-झिम बारिश में क़ब्रिस्तान तक पहुँचना दुश्वार होता। गाड़ी कहीं न कहीं गड्ढ़े में फँस जाती और ट्रक भी कौन लाता? और मय्यत को ग़ुस्ल देने वाले लोग? ज़ियादा उलझन इस बात की थी। अगर कोई नहीं मिला तो ग़ुस्ल कौन देगा? क्या पता मैडम मोल-तोल करें और मय्यत पड़ी रहे?
एक दिन नमाज़ में देर तक सज्दे में पड़े रहे। गिड़गिड़ा कर दुआ माँगी,
‘‘या मा’बूद! कोई सूरत निकाल। वतन ले चल। या मेरे मौला। या परवरदिगार!’’
एक बार आमडी हाउस जाने का मौक़ा’ मिला। इफ़्तिख़ार की लड़की की शादी थी। वो ख़ुद बुलाने आया था। मैडम ने घुटने में दर्द का बहाना बनाया लेकिन जीलानी ने शादी में शिरकत की। मुहल्ले में बहुत कुछ बदल गया था। मैदान में जहाँ शतरंज खेलते थे वहाँ सरकारी पम्प हाउस बन गया था। खपरैल मकान पुख़्ता इमारतों में बदल गये थे। उलफ़त की दुकान पर उसका लड़का बैठता था। वहाँ अब बिरयानी भी बनती थी। इफ़्तिख़ार की दुकान भी अब तरक़्क़ी कर गई थी। उसका लड़का आमडारी हाउस में साइबर कैफे़ चला रहा था। हयात को शिकायत थी कि मुहल्ले में अब वो बात नहीं थी। बाहर के लोग आकर बस गये थे लेकिन हक़ दर्ज़ी ज़िंदा थे और उसी तरह कफ़न सीते थे और रोते थे कि सबका कफ़न सीने के लिए एक वही ज़िंदा हैं। हसन बानो का मकान जूँ का तूँ था। वो अभी तक जबरिय्या स्कूल में पढ़ा रही थी। हयात ने बताया कि फ़ंड की कमी की वजह से साल भर से उसे तनख़्वाह नहीं मिली। मुहल्ले के बच्चों को कु़रआन पढ़ा कर गुज़ारा कर रही थी। जीलानी ने पूछा था कि घर में उसके साथ और कौन है?
‘‘उसकी बेवा भाँजी अपने दो बच्चों के साथ रहती है।’’ हयात ने कहा था।
और जीलानी ने हसन बानो को देखा। वो हयात के साथ उलफ़त की दुकान से चाय पी कर निकले थे। हसन बानो घर की दहलीज़ पर लाठी टेक कर खड़ी थी। सारे बाल सफे़द हो गए थे। एक पल के लिए उनकी निगाहें मिलीं। जीलानी ठिठक गए। हसन बानो भी चौंक गई। उसकी आँखों में चमक पैदा हुई और चेहरे पर हिजाब का नूर छा गया! जीलानी के दिल में हूक सी उठी। उन्होंने हयात का हाथ थाम लिया। हसन बानो अंदर चली गई।
‘‘प्लीज़ जीलानी। प्लीज़!’’
‘‘मैं इसका गुनहगार हूँ।’’ जीलानी कमज़ोर लहजे में बोले।
हयात ख़ामोश रहा।
‘‘मुझे इस की सज़ा भी मिल गई। मैं जला-वतन हो गया।’’
‘‘जानते हो तुम्हारा क़ुसूर क्या है?’’ हयात ने पूछा।
‘‘क्या?’’
‘‘इता'अत-गुज़ारी!’’
जीलानी दिल पर बोझ लिए उसी दिन लौट गए।
दूसरे दिन सुबह-सुबह हयात का फ़ोन आया।
‘‘हसन बानो गुज़र गई!’’
‘‘गुज़र गई?’’ जीलानी तक़रीबन चीख़ पड़े।
‘‘ऐसा कैसे हुआ?’’
‘‘उस दिन जब तुम्हारा दीदार हुआ। बिस्तर पर लेटी। फिर नहीं उठी।’’
जीलानी पर सकता सा छा गया।
‘‘वो जैसे तुम्हारी ही राह तक रही थी।’’
जीलानी ने फ़ोन रख दिया।
‘‘किसका फ़ोन था?’’ मैडम ने पूछा।
जीलानी ख़ामोश रहे, आँसूओं को ज़ब्त करने की कोशिश की।
‘‘माई फ़ुट!’’ मैडम मुँह बिचकाती हुई कमरे से निकल गईं।
जीलानी ने तकिए को सीने से दबाया और आँखें बंद कर लीं।
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