Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

शहर

MORE BYतरन्नुम रियाज़

    प्लास्टिक की मेज़ पर चढ़ कर सोनू ने ने’मत-ख़ाने की अलमारी का छोटा सा किवाड़ वा किया तो अंदर क़िस्म-क़िस्म के बिस्कुट, नमक-पारे , शकर-पारे और जाने क्या-क्या ने’मतें रखीं थीं। पल-भर को वो नन्हे से दिल पर कचोके लगाता हुआ ग़म भूल कर मुस्कुरा दिया। और नाइट सूट की लंबी आसतीन से सूखे हुए आँसुओं भरे रुख़्सार पर एक और ताज़ा बहा हुआ आँसू पोंछ कर उसने बिस्कुट का डिब्बा हाथ में ले लिया और अपने पाँच साला वजूद का बोझ सँभालता मेज़ से नीचे उतर आया। उसे भूक भी बहुत लगी थी। सुब्ह से उसने कुछ नहीं खाया था, उसकी छोटी सी अढ़ाई बरस की बहन सोबिया भी सुब्ह से भूकी थी। सारा दिन वो मसहरी पर लेटी अपनी मम्मी को पुकार-पुकार कर थक गई थी। और बहुत ज़ियादा रोते रहने के बाइ’स निढाल सी हो कर उसने अपना घुंघरियाले बालों वाला नन्हा सा सर अपनी अम्मी के फैले हुए बाज़ू पर रख छोड़ा था... दिन-भर शायद वो सोती रही थी और कुछ देर पहले ही उठ कर ड्राइंगरूम में आई थी।

    इस शहर में आए उन्हें सिर्फ़ एक हफ़्ता हुआ था।

    अमान को बहुत अ’र्से से इस शहर में अपनी तब्दीली करवाने की ख़्वाहिश थी लेकिन इसमें बस एक ही परेशानी थी कि रिहाइश का इंतिज़ाम निहायत मुश्किल काम था। उसके क़स्बे के अनवार साहिब भी इस कंपनी में काम करते थे मगर वो हैड ऑफ़िस से वाबस्ता थे और शहर में रिहाइश-पज़ीर थे। रिहाइश भी कंपनी की तरफ़ से मिली हुई थी क्योंकि वो पच्चीस बरस से उसी दफ़्तर में थे। इसके बा’द आने वाले मुलाज़िमीन में से बहुत कम को फ़्लैट मयस्सर आया था। ग़ैर शादी-शुदा लोग तो एक कमरे वाली रिहाइश में दो, या तीन-तीन के हिसाब से होस्टल की तरह कमरा बांट लेते थे मगर फ़ैमिली वाले अरकान के लिए ये मसअला सबसे पेचीदा था।

    अमान अपने क़स्बे में कंपनी का ब्रांच मैनेजर था। अनवार साहिब हर तीन माह के बा’द अपनी कंपनी का कोई काम निकाल कर अपने आबाई घर आते। बुज़ुर्ग वालिदैन से मुलाक़ात भी हो जाती और कंपनी का काम भी निमटा लेते।

    इस बार अनवार साहिब अपने साथ अमान के लिए कुछ सपने भी ले आए थे। बड़े शहर में रहने के। बच्चों को बड़े-बड़े स्कूलों में ता’लीम दिलवाने के और हैड ऑफ़िस में रह कर तरक़्क़ी के नए

    रास्ते वा होने के।

    वो रिटायरमैंट ले रहे थे और अमान के लिए ट्रांसफ़र की बात भी कर आए थे।

    अमान अगर बर-वक़्त पहुँचता तो उसे और कुछ बरस इंतिज़ार करना पड़ता और फ़ैमिली फ़्लैट उसे जब ही मिलता जब फ़ैमिली साथ होती वर्ना उसे बैचलर रूम्ज़ में रहना था। अनवार साहिब ने फ़्लैट की चाबी अभी दफ़्तर में जमा’ नहीं कराई थी। वो ये काम अमान की मौजूदगी में कराना चाहते थे। डिप्टी डायरेक्टर उनकी इ’ज़्ज़त करते थे , उन्हें यक़ीन था कि वो उनकी बात मान लेंगे। और इससे पहले कि कोई दूसरा आने की कोशिश करता, वो किसी की इ’ल्मियत से पेशतर अमान के हक़ में फ़ैसला चाहते थे।

    अमान ने दो दिन के अंदर सारी तैयारियाँ मुकम्मल कर लीं और मा’ बाबरा और बच्चों के शहर रवाना हो गया।

    अनवार साहिब का फ़्लैट 14 मंज़िला इ’मारत का सबसे ऊपरी फ़्लैट था। इ’मारत की हर मंज़िल पर तीन-तीन फ़्लैट थे मगर सबसे ऊपर वाली मंज़िल में यही एक फ़्लैट था। क्योंकि एक तरफ़ डिश एंटीना था और दूसरी तरफ़ पानी की टैंकियाँ। दरमियान में ये एक फ़्लैट बन पाया था। उसके ऊपर बड़ा सा कुशादा टैरेस था जिसमें तक़रीबात वग़ैरह हुआ करतीं। वहाँ से नीचे देखने पर सारा शहर दुल्हन के सितारे लगे आँचल की तरह नज़र आता।

    इससे नीचे के तीन फ्लैट्स में से दो आबाद थे और एक पर कुछ तनाज़ा चल रहा था। एक फ़्लैट के मकीन कहीं बाहर गए हुए थे और एक में अमान की ही कंपनी में काम करने वाले विक्रम भसीन रहते थे

    बाबरा को फ़्लैट और अमान को शहर बहुत पसंद आया। फ़्लैट कुशादा था। तीन ख़्वाबगाहों, ड्राइंगरूम और बावर्चीख़ाने पर मुश्तमिल। हर कमरे के साथ मुल्हिक़ा ग़ुस्ल-ख़ाने, और लिबास बदलने के लिए छोटा सा अहाता। ऊंची छतें , बड़ी-बड़ी खिड़कियाँ, लंबे-लंबे दरवाज़े। तीन दिन में फ़्लैट सज गया। ज़रूरत का सब सामान गया सिवाए टेलीफ़ोन के। टेलीफ़ोन की फ़ीस पिछले तीन माह से अदा नहीं हुई थी और इन मेहरबानियों के बदले अमान को अनवार साहिब के लिए इतना तो करना ही था। वर्ना ख़्वाह-मख़ाह अनवार साहिब की ग्रैजुएटी वग़ैरह मुतास्सिर होती। बल्कि अमान को तो कई महीने का बिजली का बिल भी भरना पड़ा था जब जा कर बिजली की स्पलाई बहाल हुई। टेलीफ़ोन का बिल अदा करने का वक़्त नहीं था क्योंकि अमान ने पहले दिन ऑफ़िस ज्वाइन करने के बा’द दुबारा ऑफ़िस का रुख़ तक नहीं किया था कि बग़ैर बिजली के इस शहर में एक दिन के लिए भी रहना मुश्किल था और सारा वक़्त उसे इधर-उधर भटकना पड़ा था।

    कोई पाँचवें दिन अमान दफ़्तर गया कि भसीन साहिब के फ़्लैट में उसके लिए फ़ोन आया था। उसे साईट पर जाना था और वापसी दूसरे दिन की थी। वहाँ कुछ ऐसा काम पड़ गया कि अमान दूसरे दिन सका।

    सुब्ह दरवाज़े की घंटी बजी थी तो सोनू की आँख उसी आवाज़ से खुल गई थी। मम्मी और सोबिया सो रही थीं। सोनू दरवाज़े तक गया और उसने दरवाज़े की निचली चटख़्नी भी खोली थी मगर मेज़ पर खड़े होने के बावुजूद उसका हाथ दरवाज़े के ऊपर वाली चटख़्नी तक पहुँची सका।

    “जी कौन है?”, उसने पुकारा भी था मगर बाहर से कोई जवाब आया। आने वाले ने शायद उसकी आवाज़ नहीं सुनी थी। और दरवाज़ा खुलने पर लौट गया था।

    “मम्मी। कोई घंटी बजा रहा है। मम्मी... मम्मी।”, उसने कई बार मम्मी को पुकारा था मगर मम्मी जाने आज कैसी नींद सो रही थीं। जाग ही नहीं रही थीं।

    “मम्मी... मम्मी जी... कोई दरवाज़े की घंटी बजा रहा है।”, उसने ऊंची आवाज़ में पुकारा तो सोबिया ने अब्रुओं के रुख़ पर ख़मीदा पलकों वाली मुनी-मुनी आँखें खोल दीं। और उठ कर बैठ गई। आँखें झपक-झपक कर इधर-उधर देखा और भाई को मम्मी पुकारते सुनकर ख़ुद भी मम्मी-मम्मी पुकारना शुरू’ कर दिया।

    मगर मम्मी बोल ही नहीं रही थीं। मम्मी के दहाने के चारों तरफ़ कोई सफ़ेद सी चीज़ जमी हुई थी। हाथ पाँव भी कुछ अ’जीब तरह से फैले हुए थे।

    सोबिया ने माँ की तरफ़ से कोई जवाब पा कर रोना शुरू’ कर दिया।

    “चुप हो जा ना। रोती क्यों है।”, सोनू ने झल्लाकर कहा तो सोबिया और ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी।

    “मम्मी सो रही हैं सोबी।”, वो बहन को समझाने के अंदाज़ में बोला।

    “मम्मी। मम्मी उठिए ना।”, सोनू ने फिर माँ को जगाने की कोशिश की। जब तक दरवाज़े की घंटी दुबारा बजने लगी थी।

    “कौन है...”, वो दरवाज़े के क़रीब जा कर और ऊंची आवाज़ में बोला। कोई जवाब आया।

    वो वापिस कमरे में आया। सोबिया बा-क़ायदा हिचकियाँ ले-ले कर रो रही थी। सोनू कुछ देर माँ के चेहरे को देखता रहा। फिर रोती हुई बहन को ब-ग़ौर देखने लगा।

    “मम्मी।”, उसने मम्मी को पूरी ताक़त से झंझोड़ा मगर मम्मी बे-हिस-ओ-हरकत पड़ी रहीं।

    वो कुछ देर गुमसुम सा बैठा रहा। फिर सोबिया के क़रीब जा कर उसने अपने छोटे-छोटे हाथों से उसके आँसू पोंछे।

    “नहीं रोना सोबी। मम्मी सो रही हैं।”, मगर सोबी थी कि चुप ही नहीं हो रही थी।

    “चुप हो जा।”, वो चीख़ा और साथ ही दहाड़ें मार-मार कर रोने लगा।

    जाने कब तक दोनों बहन भाई रोते रहे मगर अम्मी ने चुप ही कराया कुछ बोलीं। सोबिया कोई घंटा भर रोने के बा’द थक कर सो गई।

    वो सो गई तो सोनू फिर माँ के क़रीब गया। उसका चेहरा दोनों हाथों में लेकर दाएँ-बाएँ हिलाने लगा।

    “मम्मी।”

    इसने ज़ोर-ज़ोर से मम्मी का सर हिलाया, “मम्मी... मम्मी जी।”

    उसने आँसुओं में भीगी आवाज़ में मुहब्बत घोल कर पुकारा। मम्मी ने कोई जवाब दिया। कुछ देर बा’द उठकर वो ड्राइंगरूम चला गया। पर्दा सरका कर खड़ी के शीशे से बाहर देखने लगा

    सामने एक बड़ा सा पार्क था जिसमें छोटे-छोटे खिलौनों जैसे रंग-बिरंगे बच्चे खेल रहे थे। पार्क में कई तरह के छोटे बड़े झूले लगे हुए थे। इधर-उधर आइसक्रीम और वेफर्स के पैकेट वाले अपनी छोटी-छोटी हाथ गाड़ियाँ लिए हुए घूम रहे थे। एक रेड़ी पर निहायत नन्ही-नन्ही बोतलों में कोल्ड ड्रिंक्स सजी हुई थीं। पार्क की दूसरी जानिब लंबी सी सड़क पर छोटी-छोटी बेशुमार गाड़ियाँ भाग रहीं थीं। सोनू ने ये सारी चीज़ें इस क़दर छोटी जसामत में आज से पहले कभी देखीं थीं। उसके ज़हन में अ’जीब-अ’जीब सवाल और ख़याल उभरने लगे। वो कमरे में लौट आया।

    “मम्मी जी।”, उसके सीने से दर्द-भरी कराह निकली। और उसने अपना छोटा सा सर मम्मी के सीने पर रख दिया और धीरे-धीरे सिसकने लगा। आँसुओं से मम्मी के शब-ख़्वाबी के लिबास का गिरेबान भीग-भीग गया मगर मम्मी ने आँखें नहीं खोलीं। रो-रो कर जब वो हल्कान हो गया तो उसे नींद गई।

    जाने कितना वक़्त वो सोता रहा।

    “छू। छू।”, नींद में उसके कानों में सोबिया की आवाज़ पड़ी तो उसने आँखें खोल दीं।

    “छूछू।”, सोबिया ने मम्मी की तरफ़ से नज़र हटा कर भाई को देखकर कहा।

    “सूसू करना है?”, सोनू ने पूछा तो उसने सर ऊपर से नीचे की तरफ़ हिलाया। सोनू ने ग़ुस्ल-ख़ाने का हैंडल घुमा कर दरवाज़ा खोल दिया।

    बाहर शाम हो चुकी थी।

    सोबिया बाथरूम से आकर माँ के पास लेट गई।

    “मम्मी... मम... मम्मी।”, सोबिया ने अपनी शहादत की उंगली से माँ की आँख खोलने की कोशिश की... वो नाकाम हो कर फिर रोने लगी।

    मम्मी ये वो मम्मी को पुकारती हुई हिचकियाँ लेने लगी।

    सोनू बहन को बेबसी से देखता रहा।

    “मम्मी उठिए ना... मम्मी जी... सोबी रो रही है। उसे भूक लगी है।”

    वो गुलू-गीर आवाज़ में माँ से मुख़ातिब हुआ... उसे ख़ुद भी भूक लगी थी मगर जब तक उसने सोबिया की भूक का ज़िक्र किया, इस तरफ़ उसका ख़याल गया था।

    अब उसे भूक का एहसास होने लगा।

    वो माँ के पास से उठ कर बावर्चीख़ाने में चला गया। तमाम बर्तन धुले-धुलाए रखे थे। किसी में कुछ खाने को था।

    उसने रेफ्रीजरेटर खोला... उसमें सेब रखे थे... वो दो सेब उठा कर कमरे में गया।

    एक सेब को ख़ुद कतरने लगा और दूसरा सोबिया को पकड़ा दिया। सोबिया उसे खाने की कोशिश करने लगी। मगर उसके मुँह में उगे आठ दाँत सेब के सख़्त छिलके के साथ इंसाफ़ कर सके और वो महज़ सेब की सतह पर एक-आध निशान लगा कर रह गई और चुप-चाप भाई को देखने लगी। सोनू ने सेब का एक टुकड़ा तोड़ कर दिया तो वो उसे चबाने की कोशिश में मुँह के अंदर इधर-उधर घुमाती रही और आख़िर-कार निगल गई।

    दोनों सेब ख़त्म हो गए तो सोनू रेफ्रीजरेटर में पड़ा आख़िरी सेब उठा लाया... कुछ देर दोनों बहन भाई सेब पर ज़ोर आज़माई करते रहे। इससे फ़ारिग़ हो कर फिर मम्मी को जगाने की कोशिश करने लगे।

    मम्मी कुछ बोली तो वो रो-रो कर मम्मी को हिलाने लगे। घर में इतनी गर्मी थी मगर मम्मी का बदन एक दम ठंडा पड़ा हुआ था... पता नहीं क्यों?

    फिर किसी वक़्त उन्हें नींद गई।

    दूसरी सुब्ह भी मम्मी नहीं उठीं। दरवाज़े की घंटी दो बार बजी थी। जिससे सोनू जाग गया था

    “जी... कौन है।”, कोई जवाब आया। शायद मज़बूत दीवारों और भारी दरवाज़े के उस पार उसकी कमसिन आवाज़ पहुँची नहीं पाई थी और आने वाला फिर लौट गया था।

    सोबिया ने जागते ही रोना शुरू’ कर दिया था। और मम्मी के पास जा कर ज़ोर-ज़ोर से चीख़ते हुए रो-रो कर जब मायूस हो गई तो हिचकियाँ लेती हुई बाहर गई...

    उसका फूल सा चेहरा कुम्हला गया था।

    बावर्चीख़ाने में सोनू रेफ्रीजरेटर खोले ब-ग़ौर अंदर देख रहा था। परसों का पड़ा हुआ दूध फट चुका था। सोबिया को क़रीब देखकर उसने उसके कांधे पर हाथ रख दिया।

    “दूदू पिएगी?”, उसने मम्मी की तरह पूछा था।

    “हूँ”, वो ज़ोर-ज़ोर से सर हिला कर बोली।

    उसने फटा हुआ दूध चम्मच से सोबिया के फीडर में डालने की कोशिश में बहुत सा दूध गिरा कर थोड़ा सा डालने में कामयाबी हासिल की और फीडर बहन के बढ़े हुए हाथों में थमा दिया।

    सोबिया वहीं फ़र्श पर चित्त लेट कर दूध पीने लगी। जब फटे हुए दूध का कोई टुकड़ा रबर के निप्पल का छेद बंद करने लगता, वो पैर पटख़-पटख़ कर पूरी ताक़त से दूध पीने की कोशिश करने लगती और रोने लग जाती फिर ख़ुद ही चुप हो जाती।

    सोनू ने दूध के कुछ बचे हुए चम्मच ख़ुद भी पिए और सोबिया के पास जा बैठा... बोतल ख़ाली हुई तो सोबिया उठ कर बैठ गई... फिर खड़ी हो कर मम्मी-मम्मी पुकारती हुई ख़्वाबगाह में चली गई।

    सोनू भी कमरे में गया। और कुछ देर दरवाज़े के पास खड़ा हो कर माँ को देखने लगा। मम्मी की शक्ल आज अच्छी नहीं लग रही थी।

    मिसिज़ भसीन की जुज़-वक़्ती मुलाज़िमा सुब्ह ऊपर आई थी तो किसी ने दरवाज़ा नहीं खोला था... दरअस्ल अमान ने उनके हाँ फ़ोन किया था कि बाबरा को बता दें कि वो एक दिन और रुक गया है और कल जाएगा। क्योंकि बाबरा बहुत जल्द घबरा जाती है... मुलाज़िमा से दरवाज़ा खुलने की ख़बर सुनकर मिसिज़ भसीन ने सोचा था कि पड़ोसी कहीं घूमने गए होंगे। या शायद सो रहे हों। या जो भी...

    “सोबी जा अंदर बैठें।”, सोनू ने सोबिया से कहा।

    “खिड़की से बाहर देखेंगे।”, वो सर इस्बात में हिला कर बोला...।

    “नहीं... मम्मी पाश...”, उसने झटके से सर नफ़ी में हिलाया।

    “मम्मी तो बोलती हैं नहीं... तू मेरे पास जा।”, वो उदास हो कर बोला। उसका चेहरा आज पीला नज़र रहा था। छोटे-छोटे होंटों पर पपड़ियाँ जमी हुई थीं।

    “आना सोबी... जा।”, वो धीरे-धीरे सिसकने लगा... सोबिया माँ के फैले हुए बाज़ू पर सर रखे अपना अँगूठा चूसती रही और सर नफ़ी में हिला-हिला कर भाई को देखती रही...।

    सोनू उसके क़रीब जा कर उसे उठाने लगा तो उसे महसूस हुआ कि मम्मी के पास से ख़राब सी बू रही थी। मम्मी नहाई नहीं कल से... कपड़े भी नहीं बदले... हम भी नहीं नहाए... उसने अपना गिरेबान सूँघा... वहाँ उसे परसों के लगाए हुए बेबी पाउडर की हल्की सी महक आई... उसने फिर मम्मी की तरफ़ देखा... मम्मी की शक्ल बदली-बदली सी लग रही थी। वो आहिस्ता-आहिस्ता एक दो उल्टे क़दम उठाता हुआ दीवार से लग गया। उसकी नज़रें माँ के चेहरे पर गढ़ी थीं। वो दीवार के साथ चलता हुआ कमरे के दूसरे कोने में पहुँची गया... और दीवार से फिसलता हुआ फ़र्श पर बैठ गया। उसके दिल में अ’जीब क़िस्म का ख़ौफ़ सा छा रहा था। उसे नींद भी रही थी। मगर वो पता नहीं क्या सोच रहा था। ख़ुद उसकी समझ में भी नहीं रहा था। आँख लगने लगती तो फ़ौरन आँखें खोल कर माँ के चेहरे को देखने लगता... दूर बैठा हुआ। वहाँ से माँ के तलवे नज़र रहे थे और फिर माँ का बाक़ी जिस्म। बा’द में चेहरा। ठोढ़ी से शुरू’ होता हुआ। उसका दिल धक-धक कर रहा था। उसने दोनों हाथ उठा कर अपनी आँखों पर रख दिए। और... फिर पता नहीं कब वो दीवार से लगा-लगा फ़र्श पर गया। उसके घुटने उसके सीने से लगे हुए थे और वो सो चुका था।

    सुब्ह फिर दरवाज़े की कालबेल लगातार कुछ पल बजी तो वही बेदार हुआ। दरवाज़े तक गया और बेचारगी से उसे देखता रहा। कुछ मिनट बा’द लौट आया... घर में होता तो खिड़की से नानी को आवाज़ लगाता। यहाँ तो वो दरवाज़ा खोल सकता था खिड़की। खिड़की खोल भी लेता तो उसकी आवाज़ कौन सुन पाता कि खिड़की से नज़र आने वाले लोग उसकी आवाज़ की रसाई से बहुत दूर थे।

    आज सोबिया अभी तक सो रही थी। वो दरवाज़े पर ठहर कर माँ की तरफ़ देखने लगा। माँ का चेहरा बग़ैर पानी के गुल-दान में पड़े कई दिन पुराने फूल सा लग रहा था। वो आहिस्ता-आहिस्ता माँ के कुछ क़रीब जा कर ग़ौर से देखने लगा। मम्मी की शक्ल बदल गई थी। ये शक्ल किसी और की थी। मैले से मटियाले चेहरे वाली... उसकी मम्मी तो गोरी थी... तो क्या ये उसकी मम्मी नहीं थी... तो क्या उसकी मम्मी की शक्ल को कुछ हो गया है... या... या ये कोई और है। कोई अ’जीब सी शय... इंसान जैसी कोई शय...

    ज़हन में इस ख़याल के आते ही वो ज़ोर से चीख़ पड़ा। सोबिया ने झट से आँखें खोलीं और रोने लगी। वो चीख़ता हुआ कमरे से बाहर भागा और ड्राइंगरूम के लंबे सोफ़े के अ’क़ब में जा छपा। उसका छोटा सा वजूद थर-थर काँप रहा था। और आँखों से मोटे-मोटे आँसू बह रहे थे। सोबिया कुछ देर रोती रही फिर उठकर भाई को ढूँढने लगी।

    “बैया। बैया।”, वो बावर्चीख़ाने में गई और रोते-रोते भाई को पुकारने लगी। वहाँ उसे पा कर ड्राइंग रुम में गई।

    “बैया। आ। आ”, उसने नहीफ़ सी आवाज़ में पुकारा।

    सोनू सोफ़े के पीछे से निकल आया। उसके ख़ौफ़-ज़दा दिल में एहसास-ए-ज़िम्मेदारी ने क़ुव्वत भर दी। बहन को देख उसके क़रीब चला गया और दोनों हाथों में उसका चेहरा ले कर उसके आँसू पोंछने लगा। उसे महसूस हुआ कि उसकी सोबी को बहुत तेज़ बुख़ार है।

    “बैया। पानी।”, वो हिचकियाँ लेती हुई बोली।

    “तुझे बुख़ार है... जा। इधर लेट जा... मैं पानी लाता हूँ।”

    उसने सोफ़े पर चढ़ने में बहन की मदद की और बावर्चीख़ाने की तरफ़ गया। ख़्वाबगाह के क़रीब से गुज़रते वक़्त उसने एक अधूरी सी नज़र कमरे की तरफ़ तेज़ी से डाली फिर रेफ्रीजरेटर के पास चला गया और बोतल निकाल कर पानी गिलास में उंडेलने लगा। सारी बोतल ख़ाली कर के ही कहीं गिलास भर सका था।

    गिलास और चमचा लिए वो बहन के पास गया और उसे धीरे-धीरे पानी पिलाने लगा। बीच-बीच में एक-आध चम्मच वो ख़ुद भी पीता रहा।

    “भूकी लगी है?”, उसने निहायत मुहब्बत से सोबिया से पूछा तो उसने नफ़ी में सर हिला दिया।

    सुब्ह जब दरवाज़े की घंटी सुनकर सोनू बेबसी से पलट आया था उस वक़्त मिस्टर भसीन के हाँ फिर अमान ने टेलीफ़ोन किया था। और फिर मिसिज़ भसीन ने अपनी जुज़-वक़्ती मुलाज़िमा को ऊपर रवाना किया था जो लगातार तीन चार घंटियाँ बजा कर लौट आई थी।

    सोबिया ड्राइंग रुम के सोफ़े पर निढाल पड़ी थी।

    सोनू ज़िम्मेदार भाई की तरह उसके क़रीब बैठा था। बीच-बीच में दोनों ऊँघ लेते। शायद मुसलसल नक़ाहत या रात-भर घुटी हुई आलूदा फ़िज़ा में रहने के बाइ’स उनकी ऐसी हालत हो गई थी।

    कभी-कभी सोनू सर घुमा कर चूर नज़रों से बेडरूम की तरफ़ देखता और जल्दी से चेहरा दूसरी तरफ़ फेर लेता। वक़्फ़े-वक़्फ़े से उसके आँसू बह निकलते थे।

    इस बार सोबिया जागी तो फिर रोने लगी।

    “दूध पिएगी सोबी?”, उसने आवाज़ में प्यार भर कर कहा।

    “मगर दूध तो है ही नहीं। अच्छा ठहर जा मैं कुछ और देखता हूँ।”

    सोबिया ने कुछ कहा। सोनू को ख़ुद भी बहुत भूक लग रही थी।

    वो तेज़ तेज़-क़दम उठाता हुआ बावर्चीख़ाने की तरफ़ गया और प्लास्टिक की मेज़ खींच कर ने’मत-ख़ाने की अलमारी के ठीक नीचे तक ले गया।

    बिस्कुट का डिब्बा लेकर जब वो ख़्वाबगाह के बाहर से गुज़रा तो उसने बे-इख़्तियार सा हो कर अंदर निगाह दौड़ाई हालाँकि वो वहाँ से सीधा ड्राइंग रुम में भाग आना चाहता था। क्योंकि उसे पता था अंदर उसकी मम्मी नहीं। पता नहीं कौन है और क्या है। उसने देखा कि बैड पर पड़ी हुई मम्मी जैसी कोई चीज़ जैसे दब कर फैल गई थी। बंद आँखें जैसे बड़े-बड़े उभरे हुए दायरों में धंसी पड़ी थीं। उस चीज़ के हाथ पाँव और चेहरा जाने किस रंग के थे... दूसरे ही पल उसने मुँह दूसरी तरफ़ मोड़ा और पूरी ताक़त लगा कर ड्राइंग रुम की तरफ़ भागा। उसका चेहरा ख़ौफ़ से पीला पड़ गया था। बदन पसीना-पसीना हो रहा था।

    शायद वो एक ज़ोरदार चीख़ मारकर बेहोश हो जाता मगर बुख़ार में चुप-चाप लेटी हुई बहन ने उसके हवास को क़ाबू में रखा। चीख़ उसके नन्हे से सीने में घुट कर रह गई।

    वो बहन के क़रीब चला गया और बाछें खोल कर मुस्कुराने लगा तो उसके सूखे-सूखे लब सफ़ेद हो रहे थे।

    “बिस्कुट। लाया हूँ।”, वो थरथराती हुई आवाज़ में बोला।

    “खाएगी वो प्यार से पूछने लगा। और सोबिया टुकुर-टुकुर भाई को देखती रही।

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Rekhta Gujarati Utsav I Vadodara - 5th Jan 25 I Mumbai - 11th Jan 25 I Bhavnagar - 19th Jan 25

    Register for free
    बोलिए