ताँगे वाले का भाई
स्टोरीलाइन
कहानी एक ऐसे शख़्स की है जिसे जवानी में हुए एक हादसे के चलते औरत ज़ात से नफ़रत हो जाती है। वह उसकी जवानी की बहारों के दिन थे जब एक दिन अपने दोस्तों के साथ बैठा वह शराब पी रहा था कि अचानक ख़याल आया कि इस मौक़े पर कोई लड़की होनी चाहिए। दोस्तों के इसरार पर उसने एक ताँगे वाले से लड़की का इंतिज़ाम करने के लिए कहा। ताँगे वाला रात को एक बुर्क़ा-पोश को ताँगे में बिठा लाया। मगर कमरे में जाकर जब उसने उस औरत का नकाब खोला तो दंग रह गया। बुर्क़े में कोई औरत नहीं बल्कि हिजड़ा था, जिसने ख़ुद को ताँगे वाले का भाई बताया था।
सय्यद ग़ुलाम मुर्तज़ा जीलानी मेरे दोस्त हैं। मेरे हाँ अक्सर आते हैं, घंटों बैठे रहते हैं। काफ़ी पढ़े लिखे हैं।
उनसे मैंने एक रोज़ कहा!“शाह साहब! आप अपनी ज़िंदगी का कोई दिलचस्प वाक़िया तो सुनाइए!”
शाह साहब ने बड़े ज़ोर का क़हक़हा लगाया, “मंटो साहब, मेरी ज़िंदगी दिलचस्प वाक़ियात से भरी पड़ी है। कौन सा वाक़िया आपको सुनाऊं?”
मैंने उनसे कहा, “जो भी आपके ज़ेहन में आ जाये।”
शाह साहब मुस्कुराए, “आप मुझे बड़ा परहेज़गार आदमी समझते होंगे, आपको मालूम नहीं मैंने दस बरस तक दिन रात शराब पी है और ख़ूब खुल खेला हूँ। अब चूँकि दिल उचाट हो गया है इसलिए मैंने शग़ल छोड़ रखे हैं।”
मैंने पूछा, “कहीं आपने शादी तो नहीं कर ली?”
“हज़रत, मैं पाँच बरस से लाहौर में हूँ, अगर मैंने शादी की होती तो आपको उसकी इत्तिला मिल जाती। ”
“तो क्या आप अभी तक कुंवारे हैं?”
“जी हाँ।”
“बड़े तअ’ज्जुब की बात है!”
शाह साहब ने एक आह भरी,“चलिए, आपको एक दास्तान सुना दूं। आप उसे लिख कर अपने पैसे खरे कर लीजिएगा।”
मुझे पैसे खरे करने तो थे, फिर भी मैंने उनसे कहा, “नहीं शाह साहब, आप अपनी दास्तान सुनाइए, देखें इसका अफ़साना बनता भी है कि नहीं। वैसे मैं आपसे वा’दा करता हूँ कि अगर मैंने आपकी दास्तान को अफ़साने में ढाल लिया तो मुझे जो मुआ’वज़ा मिलेगा, सबका सब आपका होगा।”
शाह साहब हंसे,“छोड़ो यार, मैं अपनी बीती हुई ज़िंदगी के टुकड़ों की क़ीमत वसूल नहीं करना चाहता, तुम अफ़साना-निगार लोग अ’जीब ज़ेहन के होते हो। दास्तान सुन लो, बाक़ी तुम जानो, मुझे मुआ’वज़े वग़ैरा से कोई सरोकार नहीं।”
शाह साहब के लब-ओ-लहजा से ये साफ़ ज़ाहिर था कि उन्हें मेरी बात पसंद नहीं आई इसलिए मैंने उसके बारे में मज़ीद गुफ़्तगू करना मुनासिब न समझी और उनसे कहा,“आप अपनी दास्तान बयान करना शुरू कर दें।”
शाह साहब ने मेरे सिगरेट केस से सिगरेट निकाल कर सुलगाया। मुझे बड़ा तअ’ज्जुब हुआ इसलिए कि मैंने उन्हें चार पाँच बरस के अ’र्से में कभी सिगरेट पीते नहीं देखा था। मैंने अपनी हैरत का इज़हार करते हुए उनसे कहा,“शाह साहब, आप सिगरेट पीते हैं!”
शाह साहब के होंटों पर जिनमें सिगरेट अटका हुआ था, अ’जीब क़िस्म की मुस्कुराहट नुमूदार हुई,
“मंटो साहब! आपने अपनी ज़िंदगी में इतने सिगरेट नहीं पिए होंगे जितने मैं पी चुका हूँ। आज आप ने ऐसी बात छेड़ दी कि ख़ुद-ब-ख़ुद मेरे हाथ आपके सिगरेट केस की तरफ़ उठ गए, विस्की है आप के पास?”
मैंने जवाब दिया, “जी हाँ, है।”
“तो लाओ एक पटियाला पैग, मैं दस बरस का रखा हुआ रोज़ा तोड़ूंगा। तुमने आज ऐसी बातें की हैं कि मेरा सारा जिस्म माज़ी में चला गया है।”
मैंने अपनी अलमारी से विस्की की बोतल निकाली और शाह साहब के लिए एक पटियाला पैग बना कर हाज़िर कर दिया। उन्होंने एक ही जुरए में गिलास ख़ाली कर दिया। आस्तीन से होंट साफ़ करने के बाद वो मुझसे मुख़ातिब हुए, “हाँ, तो अब कहानी सुनो। लेकिन ये बोतल यहां से ग़ायब कर दो।”
मैंने विस्की की बोतल उठाई और अंदर जा कर अलमारी में रख दी। वापस आया तो देखा शाह साहब दूसरा सिगरेट सुलगा रहे हैं।
मैं कुर्सी उठा कर उनके पास बैठ गया, वो मुस्कुराए लेकिन ये मुस्कुराहट कुछ ज़ख़्मी सी थी। उन्हों ने इसी ज़ख़्मी मुस्कुराहट से कहना शुरू किया, “जो वाक़िया मैं अब बयान करने वाला हूँ, आज से क़रीब क़रीब दस बरस पहले का है। हमारा हल्क़ा-ए-अहबाब ज़्यादा तर खाते-पीते और काफ़ी मालदार हिंदुओं का था। बड़े अच्छे लोग थे, हर रोज़ पीने-पिलाने का शग़ल रहता। उस हल्क़े में मेरे इलावा कई और दोस्तों को शराब के इलावा औरतों की भी ज़रूरत महसूस हुआ करती, वो किसी न किसी तरह अपनी ज़रूरत पूरी करते। मुझसे कहते कि तुम भी आओ, मगर मैं इनकार कर देता। अपनी मर्ज़ी के ख़िलाफ़... मेरा दिल वैसे चाहता था कि किसी औरत की क़ुरबत नसीब हो।”
मैंने शाह साहब से कहा,“आपने शादी क्यों न कर ली?”
शाह साहब ने जवाब दिया,“मैंने... सच पूछो तो इसके मुतअ’ल्लिक़ कभी सोचा ही नहीं था। ”
“क्यों?”
“कभी ख़याल ही न आया।”
“ख़ैर, आप अपनी दास्तान जारी रखिए!”
शाह साहब ने सिगरेट को एश ट्रे में दबाया। “प्यारे मंटो! मैंने बहुत कोशिश की कि अपने दोस्तों के साथ शराबनोशी के सिवा किसी और शग़ल में न फंसुँ, लेकिन उन कमबख़्तों ने आख़िर एक दिन मुझे आमादा कर ही लिया और ये तय पाया कि किसी दलाल के ज़रिये ख़ुश शक्ल लौंडिया मंगवाई जाये। हम चार दोस्त फ़्लैट से बाहर निकले तो एक तांगे वाला जो कि मेरा वाक़िफ़ था, मुझे देख कर पुकार उठा, “शाह जी... शाह जी, आओ... आओ।” हम चारों दोस्त उसके तांगे पर बैठ गए। उस वक़्त मैं पूरा पूरा क़ाइल हो चुका था कि शराब के साथ औरत ज़रूर होनी चाहिए। चुनांचे मैंने अपनी सारी शराफ़त अपनी जेब में डाल के उसके कान में कहा कि वो किसी लौंडिया का बंदोबस्त कर दे।”
जब उसने ये सुना तो वो भौंचक्का सा हो कर रह गया। उसको यक़ीन नहीं आता था कि मैं कभी ऐसी वाहियात बात करूंगा, लेकिन जब मैंने उसके कान में फिर कहा कि “मुझे वाक़ई एक लड़की की अशद ज़रूरत है,” तो उसने बड़े अदब से कहा,“शाह जी, तुसीं जो हुक्म देव, बंदा हाज़िर ए। ऐसी तगड़ी कुड़ी ले के आवां गा कि सारी उम्र याद रखोगे।”
तांगे वाला चला गया और हम वापस अपने फ़्लैट में आ गए। शाम का वक़्त था जब वो ये मुहिम सर करने के लिए गया था। हम देर तक इंतिज़ार करते रहे। तरह तरह के ख़यालात मेरे दिल में आते थे वो लड़की किस क़िस्म की होगी, कहीं कोई बाज़ारी औरत तो न निकल आएगी?
हम जब इंतिज़ार करते करते थक गए तो ताश खेलना शुरू कर दी। रात के बारह बज गए, हम मायूस हो कर बाहर निकले तो देखा कि तांगे वाला घोड़े के चाबुक लगाता चला आरहा है। पिछली नशिस्त पर एक बुरक़ापोश औरत बैठी थी, मेरा दिल धक धक करने लगा।
तांगे वाले ने मुझसे कहा,“शाह जी! जो माल मैं लेने गया था वो दिसावर चला गया है, अब ये दूसरा माल बड़ी कोशिशों से ढूंढ कर लाया हूँ।”
मैंने उसको पाँच रुपये दिए। फिर हम चारों दोस्त सोचने लगे कि इस बुर्क़ापोश औरत को कहाँ ले जाएं? अपने फ़्लैट में ले जाना ठीक नहीं था इसलिए कि महल्लेदारी थी, लोग चे मिगोईयां करते। बात का बतंगड़ बन जाता... ख़्वाह-मख़्वाह एक फ़ज़ीहता हो जाता, चुनांचे हमने फ़ैसला किया कि अपने दोस्त रहमान के पास चलते हैं जो अकेला रहता है।
रात के एक बजे के क़रीब हम इस बुर्क़ापोश औरत के हमराह रहमान के मकान पर पहुंचे। बहुत देर तक दस्तक देने के बाद उसने दरवाज़ा खोला। कम्बल ओढ़े था, उसे ग़ालिबन बुख़ार था।
मैंने सारी बात दबी ज़बान में बताई तो उसने भी दबी ज़बान ही में कहा, “शाह जी, आपको क्या हो गया है? मेरा मकान हाज़िर है, लेकिन आपको मालूम नहीं कि इस महीने की बीस तारीख़ को मेरी शादी होने वाली है, मेरा साला अंदर है। उसकी मौजूदगी में ये सिलसिला जो आप चाहते हैं, कैसे हो सकता है?”
कुछ देर मेरी समझ में न आया उससे क्या कहूं, लेकिन थोड़े से तवक्कुफ़ के बाद मैंने उसको डाँटा,
“यार! तुम निरे खरे बेवक़ूफ़ हो... अपने साले को चलता करो। हम इतनी दूर से तुम्हारे पास आए हैं, क्या तुम में इतनी मुरव्वत भी बाक़ी नहीं रही... बीस तारीख़ को तुम्हारी शादी आ रही है, ठीक है लेकिन आज मेरी शादी है, ये मेरी दुल्हन बुर्क़ा पहने तांगे में बैठी है। तुम्हें अपने दोस्तों का कुछ तो ख़याल आना चाहिए।”
रहमान को मेरी हालत पर कुछ तरस आ गया, चुनांचे उसने अपने साले को जगाया और उसको अपने बुख़ार के लिए कोई ज़रूरी दवा लेने के लिए बाहर भेज दिया, शहर में क़रीब क़रीब केमिस्टों की सब दुकानें बंद थीं लेकिन उसने अपने साले से कहा,“शहर की दुकानें देखो जहां से भी तुम्हें ये दवा मिले लेकर आओ!”
लड़का बरखु़र्दार क़िस्म का था, नुस्ख़ा लेकर आँखें मलता चला गया! उस ग़रीब को ताँगा भी शायद नज़र न आया जिसमें बुर्क़ापोश औरत बैठी थी।
मैंने सोचा कि हुजूम ठीक नहीं होगा, मालूम नहीं मेरे दोस्त क्या हरकतें करें। चुनांचे मैंने उनको किसी न किसी तरह आमादा कर लिया कि वो तांगे में वापस चले जाएं। पाँच रुपये तांगे वाले को और दे दिए मगर उसने बुरक़ापोश सवारी उतारी तो कहा,“हुज़ूर, इसकी फ़ीस तो देते जाइए।”
मैंने पूछा, “कितनी है?”
“पच्चीस रुपये।”
मैंने जेब से नोट निकाले और गिन कर पाँच पाँच के पाँच नोट उसके हवाले कर दिए और उस बुर्क़ा-पोश औरत को अपने दोस्त के मकान में ले आया।
रहमान को बुख़ार था, वो अ’लाहिदा कमरे में जा कर लेट गया। मैं बहुत देर तक इस बुर्क़ापोश औरत से गुफ़्तगू करता रहा।
उसने कोई जवाब न दिया और न अपने चेहरे से नक़ाब ही हटाया। मैं तंग आगया, उसको टटोला तो वो बिल्कुल स्पाट थी। आख़िर मैंने ज़बरदस्ती उसका बुर्क़ा उलट दिया ।
मेरी हैरत की इंतहा न रही... जब देखा कि वो औरत नहीं, हिजड़ा था। निहायत मकरूह क़िस्म का !
मुझे सख़्त गु़स्सा आया, मैंने उससे पूछा,“ये क्या वाहियात पन है?”
उस हिजड़े ने जिसके चेहरे पर रोओं का नीला नीला गुबार मौजूद था, बड़े निस्वानी अंदाज़ में जवाब दिया, “मैं, तांगे वाले का भाई हूँ।”
शाह साहब ने इसके बाद मुझसे कहा, “मंटो साहब ! उस दिन के बाद मुझे इस सिलसिले से कोई रग़बत नहीं रही।”
- पुस्तक : بغیر اجازت
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