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ताऊस चमन की मैना

नैयर मसूद

ताऊस चमन की मैना

नैयर मसूद

MORE BYनैयर मसूद

    स्टोरीलाइन

    अवध की शाहाना तहज़ीब, रख-रखाव, वाक शैली, हुकमुरानों की कुशादा-दिली, ख़ुश-ज़ौक़ी और ज़िंदगी के मामलात का चित्रण किया गया है। गुज़रते वक़्त के साथ उस तहज़ीब के मिटने का मातम भी है। सुलतान आलम की क़ैद से काले ख़ाँ अपनी बेटी फ़लक-आरा को ख़ुश करने के लिए मैना चुरा कर दे देता है। पकड़े जाने पर सुलतान आलम माफ़ कर देते हैं और मैना भी उसे दे देते हैं, लेकिन अंग्रेज़ बहादुर की इच्छा पूरी करने के लिए वज़ीर-ए-आज़म साज़िश करके काले ख़ाँ को जेल भेज देते हैं। जब वो जेल से रिहा हो कर वापस आता है तो लखनऊ का नक़्शा बदल चुका होता है और सुलतान आलम कलकत्ते में नज़रबंद कर दिए जाते हैं।

    रोज़ का मा’मूल था। मैं बाहर से आता, दरवाज़ा खटखटाता, दूसरी तरफ़ से जुमाराती की अम्माँ के खाँसने-खंखारने की आवाज़ क़रीब आने लगती, लेकिन इससे पहले ही दौड़ते हुए छोटे-छोटे क़दमों की आहट दरवाज़े पर आकर रुकती। इधर से मैं आवाज़ लगाता, “दरवाज़ा खोलो। काले ख़ाँ आए हैं।”

    दरवाज़े के पीछे से खिलखिलाने की दबी-दबी आवाज़ आती और क़दमों की आहट दूर भाग जाती। कुछ देर बा’द जुमाराती की अम्माँ पहुँचतीं, दरवाज़ा खुलता और मैं घर में हर तरफ़ कुछ ढूँढता हुआ सा दाख़िल होता। एक एक कोने को देखता और आवाज़ लगाता, “अरे भई, काले ख़ाँ की गोरी-गोरी बेटी है?” कभी पुकारता, “यहाँ कोई फ़लक-आरा शहज़ादी रहती है?” और कभी कामिनी की शाख़ों को हिला कर कहता, “हमारी मैना किसी ने देखी है?”

    साथ-साथ कनखियों से देखता जाता कि नन्ही फ़लक-आरा एक कोने से भाग कर दूसरे कोने में छिप रही है और रह-रह कर हँस पड़ती है। लेकिन मैं अंधा-बहरा बना उसे वहाँ ढूँढता जहाँ वो नहीं होती थी। आख़िर मुझे अपने पीछे उसके खिलखिलाकर हँसने की आवाज़ सुनाई देती। मैं चीख़ मार कर उछल पड़ता, फिर घूम कर उसे गोद में उठा लेता और वो वाक़ई’ मैना की तरह चहकना शुरू’ देती।

    रोज़ का यही मा’मूल था, और ये उस वक़्त से शुरू’ हुआ था जब शाही जानवरों के दारोग़ा नबी-बख़्श ने मुझको क़ैसरबाग़ के ताऊस चमन में मुलाज़िमत दिलाई थी। इससे पहले मैं गोमती के किनारे जानवरों के रमनों के आस-पास आवारा-गर्दी किया करता, ऊँचे-ऊँचे कटहरों के पीछे घूमते हुए शेरों-तेंदुओं को देखता और तमन्ना करता कि किसी रमने का शेर कटहरा फांदकर बाहर आए और मुझे फाड़ खाए।

    उस वक़्त यही मेरा रोज़ का मा’मूल था, और ये उस दिन से शुरू’ हुआ था जब मेरी बीवी ग्यारह महीने की फ़लक-आरा को छोड़कर मर गई थी। इससे पहले मैं वक़्फ़ हुसैनाबाद मुबारक में नौकर था। इमामबाड़े की रौशनियों का इंतिज़ाम मेरे ज़िम्मे था। तनख़्वाह कम थी लेकिन गुज़र हो जाती थी। बीवी सुघड़ थी। इसी तनख़्वाह में घर भी चलाती और परिंदे पालने का शौक़ भी पूरा करती थी। हमारे यहाँ कई तोते पले हुए थे जिन्हें उसने ख़ूब पढ़ाया था। देसी मैनाएँ भी थीं, लेकिन उसे मैना का अरमान था क्योंकि उसने सुन रखा था मैना बिल्कुल आदमियों की तरह बातें करती है। उसे ख़ुश करने के लिए मैंने वा’दा कर लिया था कि अगली तनख़्वाह पर उसके लिए मैना ले आऊँगा।

    लेकिन तनख़्वाह मिलने से चार दिन पहले उसके सीने में दर्द उठा और दूसरे ही दिन वो चल बसी। मेरा हर शय से जी उचाट हो गया। नौकरी पर जाना भी छोड़ दिया। अपने आपसे बेगाना हो गया था। फिर भला फ़लक-आरा की परवरिश क्या करता। जुमाराती की अम्माँ होतीं तो इस बच्ची का जीना होता। वो मेरे ही मकान की बाहरी कोठरी में रहती थीं। छः महीने पहले उनका कमाता हुआ जुमाराती गोमती के किसी कुंड में फंस कर डूब गया था। इसके बा’द से मेरी बीवी उनकी ख़बर रखती थी। बीवी के बा’द फ़लक-आरा की निगह-दाश्त उन्होंने अपने ज़िम्मे ले ली थी। जब तक मैं घर से बाहर रहता वो मेरे घर में रहतीं, रोटी भी पका देती थीं और मैं दो वक़्त के खाने के इ’लावा डली तंबाकू के लिए कुछ पैसे उनके हाथ पर रख देता था।

    नौकरी ख़त्म हो गई थी। हुसैनाबाद के दारोग़ा अहमद अ’ली ख़ाँ ने कई बार आदमी भी भेजा लेकिन मैंने पलट कर उधर का रुख़ नहीं किया तो उन बेचारे ने भी मजबूर हो कर तनख़्वाह मौक़ूफ़ करा दी और मैं महाजनों से सूदी क़र्ज़ ले-ले कर काम चलाने लगा। घर सिर्फ़ रात को जाता था। उस वक़्त फ़लक-आरा सो चुकी होती थी। सुब्ह-सुब्ह तोते मेरी बीवी के सिखाए हुए बोल दुहराते तो मुझे घर में ठहरना मुश्किल हो जाता। आख़िर एक दिन मैं उठा और सारे परिंदों को चिड़िया बाज़ार में बेच आया।

    उसी ज़माने में एक दिन दारोग़ा नबी-बख़्श ने मुझे पास बुलाया। कई दिन से वो मुझको रमनों के पास आवारा-गर्दी करते देख रहे थे। उन्होंने कुछ ऐसी दिल-सोज़ी से मेरा हाल दरियाफ़्त किया कि मैंने सब कुछ बता दिया। उन्होंने बड़ी तसल्ली दी लेकिन महाजनों से क़र्ज़ लेने की बात पर बहुत नाराज़ हुए। क़र्ज़ अदा करने की सूरत में जो कुछ होना था उसका ऐसा नक़्शा खींचा कि मैं बदहवास हो गया और ख़ुद को कभी ज़िंदाँ की दीवारों से सर टकराते, कभी नन्ही बच्ची की उंगली थामे लखनऊ के गली कूचों में भीक मांगते देखने लगा।

    “देखो काले ख़ाँ, अभी सवेरा है”, दारोग़ा ने कहा, “कहीं नौकरी-चाकरी कर लो और क़र्ज़ भुगताने की फ़िक्र शुरू’ कर दो नहीं तो...”

    “दारोग़ा साहब, मगर नौकरी कहाँ कर लूँ?”

    “क्यों?”, उन्होंने कहा, “एक तो हुसैनाबाद मुबारक ही का दरवाज़ा खुला हुआ है।”

    “वहाँ मिल सकती है, लेकिन दारोग़ा अहमद अ’ली ख़ाँ से किस तरह आँखें चार करूँगा। उन्होंने कितनी बार आदमी बुलाने भेजा, मैंने पलट कर नहीं देखा। अब क्या मुँह लेकर उनसे नौकरी माँगूँ।”

    “अच्छा, बाग़ों में काम कर लोगे?”

    “कर लूँगा।”, मैंने कहा, “घास खोदने का काम होगा, वो भी कर लूँगा।”

    “बस, तो चलो मेरे साथ, अभी!”, उन्होंने कहा, “एक असामी ख़ाली है।”

    दारोग़ा उसी वक़्त मुझे बादशाह मंज़िल के दफ़्तरों में ले गए। कई जगह मेरा नाम और हुल्या वग़ैरह दर्ज किया गया। ज़मानती की जगह दारोग़ा ने अपना नाम लिखवाया। फिर हम लक्खी दरवाज़े पर पहुँचे। यहाँ सरकारी अ’मले के आदमियों, सिपाहियों वग़ैरह का हुजूम था। दारोग़ा ने कई लोगों से साहब सलामत की, फिर मुझसे कहा, “यहीं खड़े रहो। अभी नाम पुकारा जाएगा।”

    और दरवाज़े पर झूलता हुआ उ’न्नाबी ज़रबफ़्त का पर्दा ज़रा सा हटा कर अंदर चले गए।

    मैं लक्खी दरवाज़े की सनअ’तों को देखता और हैरान होता रहा। आख़िर दफ़्तरों से मेरे काग़ज़ात बन कर गए और मेरा नाम पुकारा गया। एक ख़्वाजा-सरा ने मुझसे कई सवाल किए, मेरे जवाबों को काग़ज़ात से मिलाया, फिर उ’न्नाबी पर्दे की तरफ़ इशारा किया और कहा, “ताऊस चमन में चले जाओ।”

    अब मैं पर्दे के दूसरी तरफ़ खड़ा था। उस वक़्त की घबराहट में वहाँ की बहार क्या देखता, कई रविशों पर मोर नाचते घूमते नज़र आए तो समझा यही ताऊस चमन है। लेकिन दारोग़ा नबी-बख़्श कहीं दिखाई नहीं दे रहे थे। समझ में आता था किधर का रुख़ करूँ। हर तरफ़ सन्नाटा-सन्नाटा सा था। दरख़्तों पर और बारह-दरी की शक्ल के बड़े-बड़े पिंजरों में परिंदे अलबत्ता बहुत थे। फ़ाख़्ता और शामा की आवाज़ें रह-रह कर रही थीं। कभी-कभी दूर रमनों की तरफ़ कोई हाथी चिंघाड़ देता था, बस। मैं परेशान खड़ा इधर-उधर देख रहा था कि दूर पर सब्ज़-रंग के बहुत बड़े-बड़े मोर खड़े नज़र आए। ज़रा ग़ौर से देखा तो पता चला दरख़्त हैं जिन्हें मोरों की सूरत में छांटा है।

    “ताऊस चमन!”, मैंने दिल में कहा और लपकता हुआ वहाँ पहुँच गया। चमन के फाटक पर भी चांदी के पत्रों से मोर बनाए गए थे। अंदर दारोग़ा तले ऊपर रखी हुई संग-ए-मरमर की सिलों के पास खड़े थे।

    “चले आओ मियाँ काले ख़ाँ!”, उन्होंने मुझे फाटक के बाहर रुका हुआ देखकर आवाज़ दी और मैं उनके पास चला गया। चमन के बीचों-बीच में कई मिस्त्री एक नीचा सा चबूतरा बना रहे थे। दारोग़ा ने उन्हें कुछ हिदायतें दीं, फिर मेरा हाथ पकड़कर चमन का एक चक्कर लगाया। मैं उन दरख़्तों की छँटाई देखकर हैरान था। मोरों की एक ऐसी सच्ची शक्लें बनी थीं कि मा’लूम होता था दरख़्तों को पिघला कर किसी साँचे में ढाल दिया गया है। तिकोनी कलग़ियाँ और नोकदार चोंचें तक साफ़ नज़र रही थीं। सबसे कमाल का वो मोर बनाया था जो गर्दन पीछे की तरफ़ मोड़ कर अपने परों को कुरेद रहा था।

    हर मोर पास-पास लगे हुए पतले तनों वाले दो दरख़्तों को मिला कर बनाया गया था। यही तने मोर के पैरों का काम करते थे, और उनकी कुछ जड़ें इस तरह ज़मीन पर उभरी हुई छोड़ दी गई थीं कि बिल्कुल मोर के पंजे बन गए थे। दारोग़ा ने बताया कि रोज़ अँधेरे मुँह बहुत से माली सीढ़ियाँ लगा कर और पाड़ बाँध कर एक-एक दरख़्त की छँटाई करते हैं। मैंने ता’रीफ़ों पर ता’रीफ़ें शुरू’ कीं तो दारोग़ा हँसने लगे।

    “तुम नंगे पेड़ों ही को देखकर अ’श-अ’श कर रहे हो!”, उन्होंने कहा, ”इसी महीने तो इनकी बेलें उतारी गई हैं। नई बेलें चढ़ के फूलेंगी तब परों के रंग देखना।”

    इसके बा’द वो मुझे क़रीब के एक और चमन में ले गए जिसके सब दरख़्त शेर की शक्ल के थे।

    “ये असद चमन है”, उन्होंने बताया, “बादशाह ने इस चमन के दरख़्तों के भी नाम रखे हैं।”

    फिर वो मुझे ताऊस चमन में वापिस लाए।

    “तुम्हारा काम ताऊस चमन को आईने की तरह रखना है।”, उन्होंने कहा और अधूरे चबूतरे की तरफ़ इशारा किया, “उसकी तैयारी के बा’द काम कुछ बढ़ेगा, बढ़कर भी आधे दिन से ज़ियादा का होगा। तुम्हारी बारी एक हफ़्ता सुब्ह से दोपहर, एक हफ़्ता दोपहर से मग़रिब तक।”

    उन्होंने मेरे कामों की कुछ तफ़सील बताई। आख़िर में कहा, “आज से तुम सुल्तान-ए-आ’लम के मुलाज़िम हुए। अल्लाह मुबारक करे। बस अब घर जाओ। कल से आना शुरू’ कर दो, और ये वाही-तबाही फिर छोड़ो।”

    मैं उनको दुआ’एँ देने लगा।

    “कैसी बातें करते हो”, उन्होंने कहा और मिस्त्रियों को हिदायतें देने लगे।

    (2)

    बीवी के मरने के बा’द उस दिन पहली बार मैंने अपनी फ़लक-आरा को ग़ौर से देखा। उसने बिल्कुल माँ का रंग-रूप पाया था। यक़ीन करना मुश्किल था कि ये चीनी की गुड़िया सी बच्ची उस काले देव की बेटी है जिसे लोग शैदियों के अहाते का कोई हब्शी समझ लेते हैं। मुझे फ़लक-आरा पर तरस आया और ख़ुद पर ग़ुस्सा भी कि माँ से बिछड़ कर ये नन्ही सी जान इतने दिन तक बाप की मुहब्बत को भी तरसती रही। मगर ख़ैर, दो ही तीन दिन में वो मुझसे ऐसा हिल गई कि अपनी माँ से भी हिली होगी, और मैं भी बस किसी-किसी दिन बाज़ार की सैर कर लेने के सिवा काम पर से सीधा घर आता और दरवाज़े के पीछे उसके दौड़ते हुए छोटे-छोटे क़दमों की आहट का इंतिज़ार करता था।

    मैं उसके लिए बाज़ार से कुछ नहीं लाता था। तनख़्वाह हालाँकि हुसैनाबाद से ज़ियादा मिलती थी लेकिन क़र्ज़ों की वापसी में इतनी कट जाती थी कि बस दाल रोटी भर का ख़र्च निकल पाता था। ख़ुद उसने अभी फ़रमाइशें करना नहीं सीखा था। लेकिन एक दिन मुझसे बातें करते करते अचानक बोली, “अब्बा, अल्लाह हमें मैना ला दो।”

    मैं चुप रह गया। बीवी के मरने के बा’द मैंने क़सम सी खाली थी कि अब घर में कोई परिंदा नहीं पालूँगा, फिर भी जब मैंने देखा कि वो उम्मीद भरी नज़रों से मुझे देख रही है तो मैंने कहा, “हम अपनी मैना को उसकी मैना ला के बिल्कुल देंगे।”

    उस दिन से वो अपनी मैना का इंतिज़ार करने लगी। एक दिन मैंने चिड़िया बाज़ार का एक फेरा भी किया। मैना के दाम देसी मैना से ज़ियादा थे, इतने ज़ियादा भी नहीं कि मैं मोल ले सकता, लेकिन जितनी तनख़्वाह उस वक़्त हाथ आती थी उसमें नहीं ले सकता था। मैं चिड़ियों से ज़रा हट कर पिंजरे वालों के क़रीब चला गया। गाहकों की भीड़ थी और इस भीड़ में उस दिन पहली बार मैंने हुज़ूर-ए-आ’लम के ईजादी क़फ़स का ज़िक्र सुना। लोगों की बातों से मुझे मा’लूम हुआ कि वो बादशाह को नज़्र करने के लिए बहुत दिन से एक बड़ा पिंजरा बनवा रहे हैं। ये भी मा’लूम हुआ कि लखनऊ में हर तरफ़ उसका चर्चा है। चिड़िया बाज़ार के इन गाहकों में से कई ने उसे बनते देखने का दा’वा किया और ये भी कहा कि उनकी समझ में नहीं आता इतना बड़ा पिंजरा क़ैसरबाग़ में पहुँचाया किस तरह जाएगा। इस पर एक पुराने बुड्ढे ने कहा, ”ए मियाँ ये वज़ीरों के मुआ’मले हैं। ये चाहें तो सल्तनत इधर से उधर पहुँचा दें। आप इत्ती सी पिंजरी के लिए हलकान हो रहे हैं।”

    सब लोग हँसने लगे। पिंजरा देखने का एक दावेदार बोला, “बड़े मियाँ, आप बे-देखे की बात कर रहे हैं। पिंजरी? अजी अगर आपने उसकी ऊँचाई...”

    “कितनी होगी? रूमी दरवाज़े से ज़ियादा?”

    “रूमी दरवाज़ा तो ख़ैर, लेकिन हुसैनाबाद के फाटकों से कम होगी।”

    “बस?”, बड़े मियाँ बोले, “फिर उसे तो वो बाएँ हाथ की छंगुलिया में लटका कर रूमी दरवाज़े के ऊपर...”

    क़हक़हे लगने लगे और मैं वहाँ से घर चला आया।

    दूसरे ही दिन मैंने ताऊस चमन में भी हुज़ूर-ए-आ’लम के ईजादी क़फ़स का ज़िक्र सुना। चबूतरा तैयार हो गया था। चमन की हरियाली में उसकी चमकीली संगीन सफ़ेदी आँखों को भली भी लगती थी और चुभती भी थी। दारोग़ा नबी-बख़्श ने मुझे बताया कि क़फ़स इसी चबूतरे पर रखा जाएगा।

    “मगर दारोग़ा साहब”, मैंने पूछा, “इतना बड़ा क़फ़स यहाँ तक पहुँचेगा किस तरह?”

    “टुकड़ों-टुकड़ों में रहा है भाई।”, दारोग़ा ने बताया, “फिर यहीं जोड़ा जाएगा। हुज़ूर-ए-आ’लम के आदमी आते होंगे। अब यहाँ उनका तसर्रुफ़ होगा। रात-भर काम करेंगे, कल क़फ़स में जानवर छोड़े जाएँगे...”

    “जानवर छोड़े जाएँगे या बंद किए जाएँगे?”, मैंने हँसकर कहा।

    “एक ही बात है। अमाँ ज़बान के खेल छोड़ो और मतलब की सुनो। हुज़ूर-ए-आ’लम तो ख़ैर ही रहे हैं, अ’जब नहीं हज़रत सुल्तान-ए-आ’लम भी तशरीफ़ लाएँ। कल से तुम्हारा अस्ली काम शुरू’ होगा। तुम्हें ईजादी क़फ़स और उसके जानवरों की निगाह-दारी पर रखा गया है। क्या समझे? और कल आईएगा ज़रूर। कहीं छुट्टी ले बैठिएगा।”

    उसी वक़्त एक चोबदार ताऊस चमन में दाख़िल हुआ। उसने दारोग़ा के पास जाकर चुपके -चुपके कुछ बातें कीं। दारोग़ा ने जवाब में कहा, “सर आँखों पर आएँ। हमारा काम पूरा हो गया।”

    उन्होंने चबूतरे की तरफ़ इशारा किया, फिर मुझसे कहा, “चलो भाई। क़फ़स के लिए चमन छोड़ो।”

    दूसरे दिन मैं वक़्त से बहुत पहले घर से निकल खड़ा हुआ। नन्ही फ़लक-आरा ने रोज़ की तरह चलते चलते याद दिलाया, “अब्बा, हमारी मैना...”

    “हाँ बेटी, बिल्कुल लाएँगे।”

    “आप रोज़ भूल जाते हैंगे”, उसने ठनक कर कहा और मैं दरवाज़े से बाहर गया।

    कुछ दूर जाने के बा’द मैंने मुड़ कर देखा। वो दरवाज़े का एक पट पकड़े मुझको देख रही थी, बिल्कुल उसी तरह जैसे उसकी माँ मुझे नौकरी पर जाते देखा करती थी।

    रमनों के पास से होता हुआ क़ैसरबाग़ के शुमाली फाटक में, वहाँ से लक्खी दरवाज़े में दाख़िल हुआ और सीधा ताऊस चमन पहुँचा। आज वहाँ बड़ी चहल-पहल थी। चमन के बाहर सिपाहियों का पहरा था और दारोग़ा नबी-बख़्श उनसे बातें कर रहे थे। मुझे देखते ही बोले, “आओ भई काले ख़ाँ, देखा मैंने क्या कहा था? हज़रत सुल्तान-ए-आ’लम तशरीफ़ ला रहे हैं। तुमने अच्छा किया जो आज सवेरे से गए। मैं आदमी दौड़ाया ही चाहता था।”

    फिर वो मुझे लेकर ताऊस चमन में दाख़िल हुए। सामने ही चबूतरे पर हुज़ूर-ए-आ’लम का ईजादी क़फ़स नज़र रहा था। मैं समझता था ये क़फ़स कोई बड़ा सा, ख़ूबसूरत पिंजरा होगा, बस। मगर उसे देखकर मेरी तो आँखें खुली की खुली रह गईं। क़फ़स क्या था एक इ’मारत थी। उसका ढांचा कोई चार-चार उंगल चौड़ी पटरियों से तैयार किया गया था। पटरियाँ एक रुख़ से लाल, दूसरे रुख़ से सब्ज़ थीं। मा’लूम नहीं लकड़ी की थीं या लोहे की, लेकिन उन पर रोग़न ऐसा किया गया था कि लाल और ज़मुर्रद का धोका होता था।

    जिस दीवार की पटरियाँ बाहर लाल, अंदर सब्ज़ थीं उसके मुक़ाबिल वाली दीवार की पटरियाँ बाहर से सब्ज़, अंदर से लाल रखी गई थीं। इस तरह एक तरफ़ से देखने पर पूरा क़फ़स लाल नज़र आता था, दूसरी तरफ़ से जाकर देखो तो सब्ज़। पटरियों के बीच की जगहों में फूलों और परिंदों की शक्लें बनाती हुई रुपहली तीलियाँ और तीलियों की बीच की जगहों में सुनहरे तारों की नाज़ुक जालियाँ थीं। हर तरफ़ छोटे दरवाज़े और खिड़कियाँ बनाई गई थीं। अस्ल दरवाज़ा क़द-ए-आदम से ऊँचा था और उसकी पेशानी पर दो जलपरियाँ शाही ताज को थामे हुए थीं। छत के चारों कोनों पर रुपहली बुर्जियाँ और बीच में बड़ा सा सुनहरा गुंबद था। गुंबद के कलस पर बहुत बड़ा चाँद था। बुर्जियों की कलसियाँ तले ऊपर बैठाए हुए सितारों से बनाई थीं।

    क़फ़स के बड़े दरवाज़े से कुछ हट कर दस-दस की चार क़तारों में छोटे-छोटे गोल पिंजरे रखे हुए थे और हर पिंजरे में एक मैना थी। दारोग़ा ने कहा, “इन्हें अच्छी तरह देख लो काले ख़ाँ, असील पहाड़ी मैनाएँ हैं, मैनाएँ नहीं सोने की चिड़ियाँ हैं, बादशाह ने ख़ास इस क़फ़स के लिए मुहय्या कराई हैं। इन्हें शहज़ादियाँ समझो।”

    पिंजरों के सामने संदल की एक ऊँची नाज़ुक सी मेज़ थी जिस पर हाथीदांत से फूल-पत्तियाँ और तरह-तरह की चिड़ियाँ बनी हुई थीं।

    “अच्छा अब इधर देखो”, दारोग़ा ने मेज़ की तरफ़ इशारा करते हुए कहा, “इस पर एक एक पिंजरा रखा जाएगा। हज़रत मुलाहिज़ा फ़रमाते जाएँगे। तुम यहाँ दरवाज़े के पास खड़े होगे। हज़रत के मुलाहिज़े के बा’द हर पिंजरा हाथों-हाथ होता हुआ तुम्हारे पास आएगा। तुम्हारा काम जानवर को पिंजरे से निकाल कर क़फ़स में डालना होगा। ये बहुत चौकसी का काम है। ज़रा ढीले पड़े और चिड़िया फुर्र...”

    “फ़िक्र कीजिए उस्ताद”, मैंने कहा, “हज़ार चिड़ियाँ इस पिंजरे से उस पिंजरे में कर दूँ, मजाल है जो हाथ बहक जाए।”

    “सच कहते हो भाई”, दारोग़ा बोले, “फिर भी, हज़रत का सामना होगा, ज़रा औसान ठिकाने रखना।”

    इसके बा’द वो बाहर चले गए और मैं फिर क़फ़स को देखने लगा। अंदर से वो एक छोटा सा क़ैसरबाग़ हो रहा था। फ़र्श पर संग-ए-सुर्ख़ की बजरी बिछी हुई थी। बीच में पानी से भरा हुआ हौज़, जिसमें छोटी-छोटी सुनहरी कश्तियाँ तैर रही थीं और उन कश्तियों में भी थोड़ा-थोड़ा पानी था। फ़र्श पर लाल सब्ज़ चीनी की नीची-नीची नाँदों में पतली लंबी शाख़ों वाले छोटे क़द के दरख़्त थे।

    दीवारों से मिली मिली बसंत-मालती, बिशन-कान्ता, जूही और कुछ विलाएती फूलों की बेलें थीं। उनमें टहनियों से ज़ियादा फूल थे और उन्हें इस तरह छांटा गया था कि क़फ़स की सनअ’तें उनमें छिप जाने के बजाए और उभर आई थीं। जगह-जगह सितारों की वज़्अ’ के आईने जड़े थे जिनकी वज्ह से क़फ़स में जिधर देखो फूल ही फूल नज़र आते थे। पानी के कासे, दाने की कटोरियाँ, हांडियाँ, छोटे-छोटे झूले, घूमने वाले अड्डे, पतले-पतले मचान और आशियाने हर तरफ़ थे और इन्हीं से मा’लूम होता था कि ये जगह परिंदों के लिए है।

    हवा चल रही थी और पूरा क़फ़स बहुत हल्की आवाज़ में झनझना रहा था। मुझे महसूस हुआ कि ताऊस चमन में अचानक ख़ामोशी छा गई है और मैं चौंक पड़ा। मैंने देखा बादशाह हुज़ूर-ए-आ’लम अपने ख़ास-ख़ास मुसाहिबों के साथ ताऊस चमन में दाख़िल हो रहे हैं। सबसे पीछे दारोग़ा नबी-बख़्श सीने पर हाथ बाँधे, सर झुकाए चल रहे थे। संदल की मेज़ के पास आकर बादशाह रुके और देर तक क़फ़स को देखते रहे।

    “वाह!”, उन्होंने कहा, फिर वज़ीर-ए-आ’ज़म को देखा, “हुज़ूर-ए-आ’लम, ये हमारे ही यहाँ का काम है?”

    “जहाँपनाह”, हुज़ूर-ए-आ’लम सीने पर हाथ रखकर झुके और बोले, “एक-एक तार लखनऊ के कारीगरों का मोड़ा हुआ है।”

    “उन्हें कुछ ऊपर से भी दिया?”

    “सुल्तान-ए-आ’लम के तसद्दुक़ में एक-एक की सात-सात पुश्तें खाएँगी।”

    “अच्छा किया”, बादशाह बोले, “तो कुछ बढ़ा के हमसे भी दिलवा दीजिए।”

    हुज़ूर-ए-आ’लम और ज़ियादा झुक गए। मैं बादशाह के चेहरे की तरफ़ नहीं देख रहा था। कोई भी नहीं देख रहा था। सब आँखें झुकाए, हाथ बाँधे खड़े थे। कुछ देर बा’द मुझे बादशाह की आवाज़ सुनाई दी, “लाओ भई नबी-बख़्श।”

    मैंने दारोग़ा की तरफ़ देखा। इन्होंने सर और अबरुओं को बहुत ख़फ़ीफ़ सी जुंबिश देकर मुझे सँभल जाने का इशारा किया। उनके पीछे से किसी मुलाज़िम ने पहला पिंजरा बढ़ाया। दारोग़ा ने उसे दोनों हाथों में सँभाला और दो क़दम आगे बढ़कर शीशे के किसी नाज़ुक बर्तन की तरह बहुत एहतियात से मेज़ पर रख दिया और पीछे हट गए। बादशाह ने पिंजरा हाथ में उठा लिया। मैना पिंजरे में इधर-उधर फुदक रही थी। बादशाह ने हँसकर कहा, “ज़रा क़रार तो लो, चुलबुली बेगम!”, और पिंजरा वापिस मेज़ पर रख दिया।

    एक मुसाहिब ने पिंजरा उठा कर दूसरे मुसाहिब को दिया, दूसरे ने तीसरे को, और आख़िर में पिंजरा मेरे पास गया। मैंने उसे क़फ़स के दरवाज़े की झरी के क़रीब किया और बड़ी फुर्ती के साथ चुलबुली बेगम को निकाल कर क़फ़स में डाल दिया। एक और मुलाज़िम ने ख़ाली पिंजरा मेरे हाथ से ले लिया। इतनी देर में मेज़ पर दूसरा पिंजरा गया था। बादशाह ने उसे भी हाथ में उठाया। उसकी मैना अड्डे पर सर झुकाए बैठी थी। बादशाह ने उसे हल्की सी चुमकारी दी तो उसने और ज़ियादा सर झुका लिया। बादशाह ने कहा, “ऐ बी, सूरत तो देखने दो।”, फिर पिंजरा मेज़ पर रखकर बोले, “ये हयादार दुल्हन हैं।”

    फिर ये पिंजरा मेरे पास आया और मैंने हयादार दुल्हन को भी क़फ़स में पहुँचा दिया। इसी तरह एक के बा’द एक मैनाएँ बादशाह के पास आती रहीं और वो उनके नाम रखते रहे। किसी का नाम नाज़ुक-क़दम रखा, किसी का आहू-चश्म, किसी का बिरोगन; एक पिंजरा जैसे ही बादशाह के हाथ में आया उसकी मैना ने पर फड़फड़ाकर चहचहाना शुरू’ कर दिया। बादशाह ने उसका नाम ज़ुहरा-परी रखा। देर तक पिंजरे मेरे हाथ में आते और मैनाओं के नाम मेरे कान में पड़ते रहे। बादशाह की मौजूदगी से शुरू’-शुरू’ में मुझे जो घबराहट हो रही थी वो अब कुछ कम हो गई थी और मैं हर मैना को क़फ़स में डालने से पहले एक नज़र देख भी लेता था। मुझको सब मैनाएँ एक सी मा’लूम हो रही थीं, लेकिन बादशाह को हर एक में कोई कोई बात सबसे अलग नज़र आती और इसी के लिहाज़ से उसका नाम रखते थे। बाईस-तेईस पिंजरों के बा’द अचानक मैंने बादशाह की आवाज़ सुनी,

    “फ़लक-आरा।”

    और एक पिंजरा मेरे हाथ में गया। मैंने दिल ही दिल में दुहराया, ”फ़लक-आरा”, और उस मैना को ग़ौर से देखा। वो भी दूसरी मैनाओं की तरह थी, मेरी समझ में नहीं आया कि बादशाह ने उसका नाम फ़लक-आरा क्यों रखा है। मैना को देखकर उन्होंने जो कुछ कहा होगा वो मैं सुन नहीं पाया था। मैंने फ़लक-आरा को और ग़ौर से देखा। वो गर्दन उठाए पिंजरे में बैठी थी। उसने भी मुझको देखा और मुझे ऐसा मा’लूम हुआ कि मैं अपनी नन्ही फ़लक-आरा को देख रहा हूँ। इसमें मुझे कुछ देर लग गई और अभी पिंजरा मेरे हाथ में और चिड़िया पिंजरे ही में थी कि मैंने देखा अगला पिंजरा मेरी तरफ़ रहा है। मैंने बौखला कर फ़लक-आरा को ऐसे बे-तुकेपन से क़फ़स में डाला कि वो मेरे हाथ से छूटते-छूटते बची। ख़ैरत गुज़री कि किसी ने देखा नहीं और फ़लक-आरा क़फ़स में पहुँच कर एक झूले पर बैठ गई।

    इसके बा’द सोलह-सतरह पिंजरे और आए। हर मैना को क़फ़स में डालने से पहले मैं एक नज़र फ़लक-आरा पर ज़रूर डाल लेता था। वो उसी तरह झूले पर बैठी हुई थी और मुझे देख रही थी। उस वक़्त मुझे ये देखकर तअ’ज्जुब हुआ कि अगरचे मैं उसमें और दूसरी मैनाओं में कोई फ़र्क़ नहीं बता सकता लेकिन उसे सब मैनाओं से अलग पहचान सकता हूँ।

    चालीसों मैनाएँ क़फ़स में पहुँच चुकी थीं और इधर से उधर उड़ती फिर रही थीं। कुछ देर बा’द फ़लक-आरा ने भी अपने झूले पर हल्की सी उड़ान भरी और क़फ़स के पूरबी हिस्से में एक टहनी पर जा बैठी।बादशाह धीमी आवाज़ में दारोग़ा को कुछ समझा रहे थे कि रमनों की तरफ़ से एक शेर की दहाड़ सुनाई दी। बादशाह ने बोलते-बोलते रुक कर पूछा, “ये मोहिनी किस पर बिगड़ रही हैं नबी-बख़्श?”

    दारोग़ा चुपके से मुस्कुराए और सर ज़रा नीचे कर के आँखें मटकाते हुए बोले, “ग़ुलाम जान की अमान पावे तो अ’र्ज़ करे।”

    “बताओ बताओ।”

    “वो सुल्तान-ए-आ’लम ही पर बिगड़ रही हैं।”

    “अरे-अरे, हमने क्या किया है भई?”, बादशाह ने पूछा, फिर उनका चेहरा ख़ुशी से दमकने लगा, “अच्छा अच्छा, हम समझ गए। आज हम उनसे मिले बग़ैर सीधे इधर जो चले आए, यही बात है ना?”

    दारोग़ा सीने पर दोनों हाथ रखकर झुक गए और बोले, ”सुल्तान-ए-आ’लम से ज़ियादा उनकी अदाऐं कौन पहचानेगा। इसी पर नाज़ दिखाती हैं। फिर बीमारी से उठी हैं, इससे और खिंखिनी हो रही हैं। ग़ुलाम की तो बात ही नहीं सुनतीं।”

    “सच कहते हो”, बादशाह ने कहा, मुसाहिबों की तरफ़ देखा, फिर हुज़ूर-ए-आ’लम की तरफ़, फिर नबी-बख़्श की तरफ़ और बोले, “तो चलो भई, उनको मनाएँ।”

    सब लोग और उनके पीछे-पीछे दारोग़ा भी चमन से बाहर निकल गए। इतनी देर में मुलाज़िमों ने दाने की थैलियाँ और पानी के बड़े बधने लाकर क़फ़स के दरवाज़े के पास रख दिए थे। मैंने दरवाज़ा ज़रा सा खोला और तिर्छा हो कर क़फ़स में दाख़िल हो गया। एक छोटे दरवाज़े से हाथ बढ़ा-बढ़ा कर थैलियाँ और बधने उठा लिए और सब बर्तनों में दाना-पानी भर दिया। मैनाएँ उड़ती हुई एक टहनी से दूसरी टहनी पर बैठ रही थीं। सब उसी तरह एक सी नज़र रही थीं, लेकिन फ़लक-आरा को मैंने फिर पहचान लिया और उसके पास खड़ा कुछ देर उसे चुमकारता रहा।

    “मैं तुम्हें फ़लक मैना कहूँगा”, मैंने उसे चुपके से बताया।

    क़फ़स से बाहर निकल कर मैं ताऊस चमन की हदबंदी करने वाली बग़ियों में पहुँचा जिन्हें जाली से घेरकर ऊपर जाली ही की छतें बनाई गई थीं। उनमें तरह-तरह की हज़ारों चिड़ियाँ चहक रही थीं। यहाँ भी मैंने दाने पानी के बर्तन भरे, ज़मीन की सफ़ाई की, छोटी झाड़ियों पर पानी के छींटे दिए और ताऊस चमन में आया।

    दारोग़ा रमनों से वापिस गए थे और क़फ़स के पास खड़े शायद मेरा ही इंतिज़ार कर रहे थे।

    “चलो भाई, ये मुहिम भी सर हुई।”, उन्होंने कहा और क़फ़स को चारों तरफ़ से घूम फिर कर देखने लगे।

    “हमारे शहर में भी कैसा-कैसा कारीगर पड़ा है, दारोग़ा साहब!”, मैंने कहा।

    लेकिन दारोग़ा क़फ़स की सैर देखने में महव थे।

    “इतना हम कहेंगे”, आख़िर वो बोले, “हुज़ूर-ए-आ’लम ने इसे जी लगा कर बनवाया है।”

    (3)

    ताऊस चमन में मेरा काम कुछ मुश्किल नहीं था। थोड़े दिनों में मुझको हर बात का ढब गया। मैं जल्दी काम ख़त्म कर लेता और जितना वक़्त बचता वो क़फ़स की मज़ीद सफ़ाई-सुथराई में लगा देता था। मैनाएँ अब मुझको अच्छी तरह पहचानने लगी थीं और मुझे देखते ही दाने के ख़ाली बर्तनों के पास बैठना शुरू’ कर देती थीं। फ़लक मैना को शायद अंदाज़ा हो गया था कि उसपर मेरी ख़ास तवज्जोह है। वो मुझसे बहुत हिल गई थी, मुझे क़फ़स के दरवाज़े पर देखकर क़रीब आती और सब मैनाओं से पहले चहचहाती थी।

    एक दिन महल्लात में मा’लूम नहीं क्या था कि ताऊस चमन और ईजादी क़फ़स की सैर को कोई नहीं आया। मैंने अपना सारा काम ख़त्म कर लिया था और अब क़फ़स को ज़रा पीछे हट कर देख रहा था।हौज़ में तैरती हुई दो कश्तियाँ आपस में मिल गई थीं और देखने में अच्छी नहीं मा’लूम हो रही थीं। मैं एक-बार फिर क़फ़स में दाख़िल हुआ और कश्तियों को अलग अलग कर के वहीं खड़ा रहा।

    चहचहाती हुई मैनाएँ क़फ़स भर में उड़ती फिर रही थीं। सब के पोटे भरे हुए थे इसलिए किसी की तवज्जोह मेरी तरफ़ नहीं थी। लेकिन फ़लक मैना बार-बार मेरे क़रीब आती, ज़ोर-ज़ोर से बोलती, फिर दूर किसी अड्डे पर बैठ जाती, फिर वहाँ से उड़ान भर कर मेरी तरफ़ आती, बोलती और दूर भाग जाती। बिल्कुल इसी तरह मेरी अपनी फ़लक-आरा किसी-किसी दिन मुझसे खेल करती थी। मुझे ये सोच कर उस पर बड़ा तरस आया कि रोज़ मैं जब वापिस घर पहुँचता हूँ तो वो मुझसे भाग कर छिपने के बजाए दरवाज़े ही पर मिलती है और पूछती है, ”अब्बा हमारी मैना लाए?”, और मेरे ख़ाली हाथ देखकर उदास हो जाती है।

    उसका उतरा हुआ चेहरा मेरी निगाहों के सामने घूमने लगा। अचानक मेरे दिल में बुराई गई और मैंने कुछ और ही सोचना शुरू’ कर दिया। क़फ़स में चालीस मैनाएँ उड़ती फिरती हैं। उनकी सही-सही गिनती करना आसान नहीं। आसान क्या, मुम्किन ही नहीं। सितारों की शक्ल वाले आईने एक-एक को दस दस कर के दिखाते हैं। यूँ भी चालीस और उनतालिस में फ़र्क़ ही कौन सा है? एक मैना कम हो जाए तो किसी को पता भी चलेगा। उसी वक़्त फ़लक मैना मेरे क़रीब आकर बोली और मैंने हाथ लपका कर उसे बहुत आहिस्तगी के साथ पकड़ लिया। उसके परों को सहलाता हुआ मैं क़फ़स के एक गोशे में गया और उड़ती हुई मैनाओं को गिनने लगा। बार-बार गिनने पर भी पता नहीं चल पाया कि मैनाएँ चालीस हैं या उनतालिस। मुझे इत्मीनान हो गया। फ़लक मैना को मैंने एक झूले पर बिठा कर हल्का सा पेंग दिया और क़फ़स से बाहर निकल आया।

    उस दिन लक्खी दरवाज़े से निकलते-निकलते मैं फ़लक मैना को घर ले आने का पक्का फ़ैसला कर चुका था और इसे एक मा’मूली सा काम समझ रहा था जिसमें मुझको शर्म या पशेमानी वाली कोई बात नज़र नहीं रही थी, बल्कि शर्मिंदगी थी तो सिर्फ़ अपनी फ़लक-आरा से कि मैं इतने दिन ख़्वाह-मख़ाह उसे मैना के लिए तरसाता रहा, और पछतावा था तो फ़क़त इसका कि फ़लक मैना को आज ही क़फ़स से क्यों नहीं निकाल लाया।

    चिड़िया बाज़ार में रुक कर मैंने थोड़े मोलतोल के बा’द एक सस्ता सा पिंजरा ख़रीद लिया।पिंजरे वाले ने पैसे गिनते गिनते पूछा, ”कौन सा जानवर है?”

    “पहाड़ी मैना”, मैंने कहा और मेरा दिल आहिस्ता से धड़का।

    “पहाड़ी मैना पाली है तो शैदी साहब पिंजङ़ा भी वैसा ही रखना था”, उसने कहा।

    “ख़ैर, आपकी ख़ुशी।”

    मैं पिंजरा लेकर आगे बढ़ गया, लेकिन चंद ही क़दम चला हूँगा कि हाथ पाँव सनसनाने लगे और गला ख़ुश्क हो गया। ऐसा मा’लूम हो रहा था जैसे कोई मेरे कान में कह रहा हो, “काले ख़ाँ! बादशाही परिंदे की चोरी?”

    रास्ते भर मुझको यही आवाज़ सुनाई देती रही। कई बार इरादा किया पिंजरा फेर आऊँ, फिर ख़याल आया फ़लक-आरा को किसी तरह ख़ाली पिंजरे से बहला लूँगा। घर पहुँचते पहुँचते मुझे ख़ुद पर हैरत होने लगी कि मैंने ऐसी ख़तरनाक बात का इरादा किया था। ख़ुशी भी बहुत हो रही थी कि मैंने फ़लक मैना को क़फ़स से निकाल नहीं लिया।

    यक़ीन मुझे अब भी था कि एक मैना की चोरी पकड़ी नहीं जा सकती थी फिर भी मा’लूम हो रहा था मौत के मुँह से निकल आया हूँ।

    घर पहुँचा तो फ़लक-आरा मेरे हाथ में पिंजरा देखकर ख़ुशी से चीख़ पड़ी, “हमारी मैना गई!”

    लेकिन जब वो दौड़ती हुई मेरे क़रीब आई तो पिंजरा ख़ाली देखकर फिर उसका चेहरा उतर गया। उसने मेरी तरफ़ देखा और रूहाँसी हो गई। मैंने उसे गोद में उठा लिया और कहा, “भई आज पिंजरा आया है, कल मैना भी जाएगी।”

    “नहीं”, उसने कहा, “आप झूट बहुत बोलते हैंगे।”

    “झूट नहीं बेटी, कल देखना”, मैंने कहा, “तुम्हारी मैना हमने ले भी ली है।”

    “सच्ची?”, वो चहक कर बोली और उसका चेहरा ख़ुशी से चमकने लगा, “तो वो कहाँ है?”

    “एक बहुत बड़े से पिंजरे में है”, मैंने कहा, “वो तो ज़िद कर रही थी कि हम आज ही बहन फ़लक-आरा के पास जाएँगे। हमने कहा, भई आज तो हम तुम्हारे लिए पिंजरा मोल लेंगे। फिर फ़लक-आरा पिंजरे को धोएगी, सजाएगी, उसमें तुम्हारे खाने पीने के बर्तन रखेगी, तब हम तुमको ले चलेंगे।”

    फ़लक-आरा की ख़ुशी देखने वाली थी। फ़ौरन मेरी गोद से उतर कर उसने पिंजरे को सीने से लगा लगा कर चूमा, उसी वक़्त उसे ख़ूब अच्छी तरह धोया-पोंछा, उसके अंदर कामनी की पत्तियों का फ़र्श किया, फिर मिट्टी का आबख़ोरा और दाने के लिए सकोरी रखी। मुझसे मैना की एक-एक बात पूछती रही, उसकी चोंच कैसी है, पर किस रंग के हैं, क्या-क्या बातें करती है। रात को उसे ठीक से नींद नहीं आई। बार-बार जाग कर मैना की बातें करने लगती थी।

    दूसरे दिन घर से निकला तो दूर तक उसकी आवाज़ सुनाई देती रही, “आज हमारी मैना आएगी, आज हमारी मैना आएगी।”

    रास्ते भर मैं यही सोचता रहा कि आज जब ख़ाली हाथ घर लौटूँगा तो फ़लक-आरा से क्या बहाना करूँगा। चमन में मैनाओं को दाना-पानी देते हुए भी तरह-तरह के बहाने सोचता रहा। उस दिन काम में मेरा दिल नहीं लग रहा था फिर भी मग़रिब तक मैंने सारे काम निपटा दिए और एक-बार फिर पलट कर क़फ़स के अंदर गया। मुझे ख़याल आया कि आज मैंने फ़लक मैना की तरफ़ देखा तक नहीं है। उस वक़्त वो क़फ़स की पच्छिमी जाली के एक मचान पर बैठी हुई थी और चुप-चाप मेरी तरफ़ देख रही थी। मैं उसके क़रीब गया तो उसने गर्दन घुमा ली और दूसरी तरफ़ देखने लगी। मैंने उसे चुमकारा।

    उसने धीरे से पर फड़फड़ाए और फिर मुझे देखने लगी। मैंने में चारों तरफ़ क़फ़स नज़रें दौड़ाईं। सब मैनाएँ अपनी अपनी जगह साकित बैठी थीं। कल मुझे शाही मैना की चोरी के ख़याल से जो डर लगा था वो अचानक जाता रहा, फ़लक-आरा को बहलाने के लिए जो बहाने सोचे थे वो भी दिमाग़ से निकल गए और मैना की चोरी फिर एक मा’मूली बात मा’लूम होने लगी। मैंने इधर-उधर देखा।

    ताऊस चमन में सन्नाटा था, माली काम ख़त्म कर के जा चुके थे। कोई मुझे नहीं देख रहा था। मैंने फिर फ़लक मैना को चुमकारा। उसने फिर धीरे से पर फड़फड़ा कर मेरी तरफ़ देखा और मैंने एक दम से हाथ बढ़ा कर उसे पकड़ लिया। उसने ख़ुद को छुड़ाने के लिए ज़ोर किया लेकिन जब मैं चुमकार-चुमकार कर उसके परों पर हाथ फेरने लगा तो आँखें मूँद लीं और बदन ढीला छोड़ दिया। मैं कुछ देर दम साधे खड़ा रहा, फिर उसे अपने कुर्ते की लंबी जेब में डाला और क़फ़स से बाहर निकल आया।

    लक्खी दरवाज़े तक कई जगह पहरे के सिपाही मिले लेकिन उन्हें मा’लूम था कि मैं ताऊस चमन में शाम तक बारी कर रहा हूँ। किसी ने मुझसे कुछ नहीं पूछा और मैं जेब में हाथ डाले-डाले क़ैसरबाग़ से निकल कर घर की तरफ़ रवाना हो गया। जी तो चाहता था पूरी रफ़्तार से दौड़ने लगूँ लेकिन किसी तरह अपने क़दमों को थामे हुए चलता रहा।

    फ़लक-आरा सो चुकी थी। जुमाराती की अम्माँ मेरा रास्ता देख रही थीं। उन्हें खाना देकर रुख़्सत किया। मकान का दरवाज़ा अंदर से बंद कर के मैना को जेब से निकाला और पिंजरे के पास ले गया। आज फ़लक-आरा ने पिंजरे को और भी सजा रखा था। तीलियों के बीच-बीच में चाँदनी के फूल अटकाए थे, झाड़ू के तिनके में रंगीन कपड़े की कतरन बाँध कर अपने ख़याल में झंडा बनाया था जो पिंजरे के सहारे टेढ़ा-टेढ़ा खड़ा था, पिंजरे के अंदर आब-ख़ोरे में लबालब पानी भरा हुआ था, सकोरी में रोटी के टुकड़े भीग रहे थे और पुरानी रूई की दो तीन बत्तियाँ सी बना कर शाही मैना के लिए गाव तकिए तैयार किए गए थे। मैंने मैना को आहिस्ता से पिंजरे में पहुँचाया और पिंजरा अलगनी में लटका दिया। मैना कुछ देर तक पिंजरे में इधर से उधर चक्कर काटती रही, फिर आराम से एक जगह ठहर गई।

    सुब्ह फ़लक-आरा के खिलखिलाने और मैना के चहचहाने की आवाज़ों से मेरी आँख खुली। फ़लक-आरा ने मा’लूम नहीं किस वक़्त अलगनी के नीचे मूँढा रख कर पिंजरा उतार लिया था और अब उसी मूँढे पर पिंजरा रखे, ज़मीन पर घुटने टेके बार-बार पिंजरे को चूमती थी और मैना बार-बार बोल रही थी। मुझे देखते ही फ़लक-आरा ने ख़बर सुनाई, “अब्बा, हमारी मैना गई।”

    देर तक वो मुझे बताती रही कि मैना क्या कह रही है।मैंने भी पिंजरे के पास बैठ कर मैना से दो तीन बातें कीं, लेकिन उसने इस तरह मेरी तरफ़ देखा गोया मुझे पहचानती ही नहीं। इतने में फ़लक-आरा ने पूछा, “अब्बा, इसका नाम क्या है?”

    “फ़लक-आरा।”, मेरे मुँह से निकला, फिर मैं रुका, और बोला, “फ़लक-आरा बेटी, इसका नाम मैना है।”

    “वाह, मैना तो ये ख़ुद है।”

    “इसीलिए तो इसका नाम मैना है।”

    “तो मैना तो सबका नाम होता है।”

    “इसीलिए इसका भी नाम मैना है।

    इस तरह मैं उसके छोटे से दिमाग़ को उलझाता रहा। अस्ल में ख़ुद मेरा दिमाग़ उलझा हुआ था।

    कई दिन तक मैं डरता हुआ ताऊस चमन पहुँचता और डरा हुआ वहाँ से वापिस आता। हर वक़्त चौकन्ना रहता। क़ैसरबाग़ में कोई मुझे ज़रा ग़ौर से देखता तो जी चाहता भाग खड़ा हूँ। घर पर देखता कि फ़लक-आरा मैना का पिंजरा सामने रखे इससे दुनिया जहान की बातें कर रही है। मुझे देखते ही वो बताना शुरू’ कर देती कि आज मैना ने उससे क्या-क्या बातें की हैं। धीरे-धीरे मेरी वहशत कम होने लगी, और एक दिन, जब फ़लक-आरा मैना की बातें बता रही थी, मैंने कहा, “मगर तुम्हारी मैना हम से तो बोलती नहीं।”

    “आप भी तो उससे नहीं बोलते, वो शिकायत कर रही थी।”

    “अच्छा? क्या कह रही थी भला?”

    “कह रही थी तुम्हारे अब्बा तुमको चाहते हैं, हमको नहीं चाहते।”

    “मगर उसकी बहन तो उसे बहुत चाहती है।”

    “कौन बहन?”

    “फ़लक-आरा शहज़ादी!”

    इस पर वो इस तरह हँसी कि मेरा सारा डर ख़त्म हो गया और दूसरे दिन मैं बे-धड़क ताऊस चमन में दाख़िल हुआ। शाम के वक़्त मैंने कई मर्तबा मैनाओं को गिना मगर सही-सही नहीं गिन सका। सफ़ाई के बहाने से क़फ़स के सारे आईनों को उतार लिया, फिर गिना, फिर भी गिनती ग़लत हो गई। इसके बा’द मैं रोज़ किसी किसी हीले से दो एक मालियों को ताऊस चमन में बुलाता और उनसे मैनाओं की गिनती कराता। उनकी बताई हुई ता’दादें ऐसी होतीं कि मुझे हँसी जाती थी।

    मालियों से मैनाओं को गिनवाने में मुझको उतना ही मज़ा आने लगा जितना फ़लक-आरा को अपनी मैना से बातें करने में आता होगा, और ये मेरा रोज़ का मा’मूल हो चला था कि एक दिन बादशाह फिर ताऊस चमन में तशरीफ़ लाए।

    ईजादी क़फ़स के पास रुक कर वो दरबारियों और दारोग़ा नबी-बख़्श से बातें करने लगे। डरने की कोई वज्ह नहीं थी लेकिन मेरा दिल धड़-धड़ कर रहा था। बादशाह नबी-बख़्श को रमने के हाथियों के बारे में कुछ बता रहे थे। बीच-बीच में वो एक नज़र क़फ़स पर भी डाल लेते और उसकी मैनाओं को इधर से उधर उड़ते देखते थे। एक-बार इन्होंने ज़रा ज़ियादा देर तक मैनाओं को देखा, फिर नबी-बख़्श से पूछा, “इनकी ता’लीम शुरू’ करा दी?”

    “आ’लम-पनाह”, दारोग़ा हाथ जोड़ कर बोले, “मीर दाऊद रोज़ फ़ज्र के वक़्त आकर सिखाते हैं।”

    अब बादशाह ने अपने मुसाहिबों से क़फ़स की बातें शुरू’ कर दीं। इसके बनाने में कारीगरों ने जो-जो सनअ’तें दिखाई थीं, उनका ज़िक्र हुआ। कुछ कारीगरों के नाम भी लिए गए जिनमें बा’ज़ लखनऊ के मशहूर सुनार थे। मेरी घबराहट अब दूर हो चुकी थी। मैं सोच रहा था हमारे बादशाह अपने नौकरों से भी कैसे इल्तिफ़ात के साथ बात करते हैं और उनकी आवाज़ किस क़दर नर्म है। उसी वक़्त मुझे बादशाह की नर्म आवाज़ सुनाई दी, “भई नबी-बख़्श, आज फ़लक-आरा नहीं दिखाई दे रहीं हैं।”

    एक दम से जैसे किसी ने मेरे बदन से सारा ख़ून खींच लिया। दारोग़ा ने कहा, “जहाँपनाह, कहीं टहनियों में छिप गई हैं। अभी तो सारे में उड़ती फिर रही थीं।”

    बादशाह धीरे से हँसे और बोले, “हमसे शर्मा तो नहीं रही हैं? और उन्हें देखो, हयादार दुल्हन को, कैसी चुहलें कर रही हैं। भई हयादार दुल्हन, यही तुम्हारे लच्छन रहे तो तुम्हारा नाम बदल कर शोख़-अदा रख देंगे।”

    सब लोगों ने सर झुका कर मुँह पर रूमाल रख लिए और बे-आवाज़ हँसने लगे। कोई और वक़्त होता तो मैं भी बादशाह को इस तरह मज़े-मज़े की बातें करते देखकर निहाल हो जाता और अपने तमाम जानने वालों के सामने उनका एक-एक लफ़्ज़ दुहराता, लेकिन उस वक़्त तो मेरे कानों में एक ही आवाज़ गूँज रही थी: “भई नबी-बख़्श, आज फ़लक-आरा नहीं दिखाई दे रही हैं।”

    बादशाह अब फिर हाथियों की बातें कर रहे थे और मैं कफ़स से कुछ हट कर खड़ा हुआ था। बादशाह की बात सुनकर पहले तो मुझे ऐसा महसूस हुआ था कि मैं अचानक सिकुड़ कर बालिश्त भर का रह गया हूँ, लेकिन अब ये मा’लूम हो रहा था कि मेरा बदन फैल कर इतना बड़ा हुआ जा रहा है कि मैं किसी की भी नज़रों से ख़ुद को छिपा नहीं पाऊँगा। मैं मुट्ठियाँ भींच भींच कर सिकुड़ने की कोशिश कर रहा था। इस कश्मकश में मुझे पता भी नहीं चला कि बादशाह कब वापिस गए। जब मैं चौंका तो ताऊस चमन में सन्नाटा था, सिर्फ़ क़फ़स के अंदर उड़ती मैनाओं के परों की आवाज़ थी।

    मेरा बस नहीं था कि अभी उड़ कर घर पहुँच जाऊँ और शाही मैना को ला कर क़फ़स में डाल दूँ। मग़रिब के वक़्त तक किसी तरह काम ख़त्म कर के घर वापिस हुआ। रास्ते भर तो इसी फ़िक्र में रहा कि मैना को किसी तरह क़फ़स में पहुँचा दूँ। लेकिन जब घर पहुँचा और फ़लक-आरा ने रोज़ की तरह चहक-चहक कर मैना का दिन-भर का हाल सुनाना शुरू’ किया तो मुझे ये फ़िक्र भी लग गई कि मैना को तो ले जाऊँ मगर फ़लक-आरा से क्या कहूँगा। उस रात बहुत देर तक जागता और करवटें बदलता रहा।

    दिन चढ़े सो कर उठा तो ख़याल आया कि कल से ताऊस चमन में मेरी बारी सुब्ह की हो जाएगी। फिर एक हफ़्ते तक मैना को क़फ़स में पहुँचाना आसान होगा, जो कुछ करना है आज ही करना है। फ़लक-आरा उस वक़्त भी मैना से खेल रही थी। दोनों में जुदाई डाल देने का ख़याल मुझे तकलीफ़ दे रहा था लेकिन उसी वक़्त एक तदबीर मेरे दिमाग़ में गई। मैंने पिंजरे के पास बैठ कर मैना को ग़ौर से देखा, और फ़लक-आरा से कहा, ”बेटी, ये तुम्हारी मैना की आँखें कैसी हो रही हैं?”

    “ठीक तो हैं।”, फ़लक-आरा ने मैना की आँखें देखते हुए कहा।

    “कहीं भी नहीं ठीक हैं। कैसी मैली-मैली तो हो रही हैं, और देखो किनारे किनारे ज़र्दी भी है। उफ़्फ़ोह इसे भी यरक़ान हो गया है।”

    “यरक़ान क्या?”, फ़लक-आरा ने घबरा कर पूछा।

    “बहुत बुरी बीमारी होती है। बादशाह के बाग़ की कितनी मैनाएँ इसमें मर चुकी हैं।”

    फ़लक-आरा और भी घबरा गई, बोली, “तो हकीम साहब से दवा ले आओ।”

    “हकीम साहब चिड़ियों की दवाएँ थोड़ी देते हैं”, मैंने कहा, “इसे तो नसीरुद्दीन हैदर बादशाह के अंग्रेज़ी अस्पताल में भर्ती कराना होगा। शायद बच ही जाए। इसकी हालत तो बहुत ख़राब है, फिर भी शायद... देखो कहीं रास्ते ही में मर जाए।”

    ग़रज़ मैंने भोली-भाली बच्ची को इतना दहलाया कि वो रो कर कहने लगी, “अल्लाह अब्बा इसे जल्दी लेकर जाओ।”

    “अभी तो अस्पताल बंद होगा”, मैंने उसे बताया, “जब काम पर जाएँगे तो उसे लेते जाएँगे

    जाने का वक़्त आया तो मैंने मैना को पिंजरे से निकाला। फ़लक-आरा बोली, “अब्बा, पिंजरे ही में ले जाओ।”

    “वहाँ चिड़ियाँ पिंजरों में नहीं रखी जातीं। उनके लिए पूरा मकान बना हुआ है। तुम पिंजरा साफ़ करके रखो। जब ये अस्पताल से अच्छी हो कर आएगी तो मज़े से अपने पिंजरे में रहेगी।”

    फ़लक-आरा ने मैना को मेरे हाथ से ले लिया। देर तक उसे प्यार करती रही, फिर बोली, “अब्बा, इस पर कोई दुआ’ फूँक दो।”

    “रास्ते में फूँक देंगे”, मैंने कहा, “लाओ देर हो रही है। अस्पताल बंद हो जाएगा।”

    मैना को उसके हाथ से लेकर मैंने कुर्ते की जेब में डाल लिया और जल्दी से दरवाज़े के बाहर निकल आया। जानता था कि फ़लक-आरा हर-रोज़ की तरह दरवाज़े का एक पट पकड़े खड़ी हुई मुझे जाते देख रही है, लेकिन मैंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा।

    क़िस्मत ने साथ दिया और ताऊस चमन में दाख़िल होते ही मौक़ा’ मिल गया। मालियों में से कोई मेरी तरफ़ मुतवज्जेह नहीं था। मैं क़फ़स के अंदर गया। माली अपने अपने काम में लगे हुए थे। मैंने एक-बार ज़ोर से खाँस कर गला साफ़ किया। फिर भी किसी ने मेरी तरफ़ नहीं देखा। अब क़फ़स के एक किनारे पर जाकर मैंने फ़लक मैना को जेब से निकाला और हल्के से उछाल दिया। उसने पर फटफटा कर ख़ुद को हवा में टिकाया, फिर एक झूले पर बैठ गई, वहाँ से उड़ी,एक मचान पर पहुँची, मचान से नीचे ग़ोता मारा और हौज़ के किनारे बैठी। जहाँ भी वो बैठती दूसरी कई मैनाएँ उसके पास बैठतीं और इस तरह चहचहातीं जैसे पूछ रही हों, बहन इतने दिन रहीं?

    जिस दिन ताऊस चमन में मैनाएँ आई हैं उसके बा’द से आज पहला दिन था कि मेरे दिल पर कोई बोझ नहीं था। नन्ही फ़लक-आरा को बहलाने के लिए बहुत सी बातें मैंने रास्ते ही में सोच ली थीं और मुझे यक़ीन था कि कई दिन वो इसी में ख़ुश रहेगी कि उसकी मैना अस्पताल में अच्छी हो रही है, फिर उसे भूल-भाल जाएगी। आज मैंने क़फ़स की सारी मैनाओं को ग़ौर से देखा और मुझे भी उनमें कुछ-कुछ फ़र्क़ नज़र आया, और फ़लक मैना को तो मैं हज़ारों मैनाओं में पहचान सकता था। इस वक़्त वो सबसे अलग-थलग एक टहनी पर बैठी थी और टहनी धीरे-धीरे नीचे ऊपर हो रही थी। मैंने क़रीब जाकर उसको चुमकारा। वो चुप-चाप मेरी तरफ़ लगी।

    “फ़लक-आरा याद रही है?”, मैंने उससे पूछा।

    वो उसी तरह मेरी तरफ़ देखती रही। मैंने कहा, “हमसे नाराज़ तो नहीं हो?”

    अचानक मुझे ख़याल आया कि मैं बिल्कुल बादशाह की तरह बोल रहा हूँ। मैं आप ही आप डर गया और जल्दी-जल्दी क़फ़स का काम ख़त्म करके बाहर आया।

    (4)

    घर आकर, जैसा कि मेरा ख़याल था, मुझे फ़लक-आरा को बहलाने में कोई मुश्किल नहीं हुई। मैंने ख़ूब मज़े ले-ले कर उसे बताया कि किस तरह उसकी मैना ने कड़वी दवा पीने से इंकार कर दिया और उसके लिए मीठी-मीठी दवा बनवाई गई।

    “और भैया जब उसे मूंग की खिचड़ी खाने को दी गई”, मैंने बताया, “तो उसने कहा हम मूंग की खिचड़ी नहीं खाते, तो डाक्टर ने पूछा फिर क्या खाती हो।”

    “उसने कहा होगा हम तो दूध जलेबी खाते हैं”, फ़लक-आरा बीच में बोल पड़ी।

    “हाँ”, मैंने कहा, “डाक्टर की समझ में नहीं आया, बेचारा अंग्रेज़ था ना? हमसे पूछने लगा विल मिस्टर काले ख़ाँ, ये जलेबी क्या होता है।”

    फ़लक-आरा हँसी से लोट गई। उसने ख़ाली पिंजरे को उठा कर सीने से लगा लिया और “जलेबी क्या होता है”, कह-कह कर देर तक हँसती रही। रात गए तक मैंने उसे अस्पताल और उसकी मैना के क़िस्से सुनाए।

    जब वो सो गई तो मैंने उठकर पिंजरे को उसकी सजावटों समेत कोठरी के कबाड़ में छिपा दिया। मैं चाहता था फ़लक-आरा अपनी मैना को बिल्कुल भूल जाए।

    सुब्ह वो सो कर उठी तो चुप-चुप थी। देर के बा’द उसने मुझसे सिर्फ़ इतना पूछा, “अब्बा, हमारी मैना अच्छी हो जाएगी?”

    “हाँ, अच्छी हो जाएगी”, मैंने जवाब दिया।

    “लेकिन बेटी, बीमार की ज़ियादा बातें नहीं करते हैं, इससे बीमारी बढ़ जाती है।”

    इसके बा’द उसने मुझसे ये भी नहीं पूछा कि उसकी मैना का पिंजरा क्या हुआ।

    मैं उसे बहलाने की तरकीबें सोच रहा था कि किसी ने दरवाज़ा खटखटाया। मैं बाहर निकला। दारोग़ा नबी-बख़्श का आदमी खड़ा था।

    “ख़ैरियत तो है, महरम अ’ली?”, मैंने पूछा

    “दारोग़ा साहब ने आज सवेरे से बुलाया है”, उसने कहा, “हज़रत सुल्तान-ए-आ’लम ताऊस चमन में तशरीफ़ ला रहे हैं।”

    “आज?”, मैंने हैरान हो कर पूछा, “अभी परसों ही तो...”

    “चिड़ियाँ पढ़ गई हैं ना?”, महरम अ’ली बोला, “वही सुनने...”

    “अच्छा तुम चलो।”

    मैंने जल्दी-जल्दी कपड़े बदले। बाहर निकल कर जुमाराती की माँ से फ़लक-आरा के पास जाने को कहा और लपकता हुआ ताऊस चमन पहुँच गया। रास्ते में कई बार मैंने फ़लक मैना को क़फ़स में पहुँचा देने पर ख़ुद को शाबाशी दी।

    आज ईजादी क़फ़स के सामने चांदी की मुनक़्क़श चोबों पर सब्ज़ अतलस का मुक़य्यशी झालरों वाला छोटा शामियाना तना हुआ था। दारोग़ा और बहुत से मुलाज़िम क़फ़स के पास जम्अ’ थे। उनके बीच में बूढ़े मीर दाऊद इस तरह ऐंठे हुए खड़े थे जैसे वो बादशाह हों और हम सब उनके ग़ुलाम। मीर दाऊद की नाज़ुक मिज़ाजियों और अकड़ के क़िस्से लखनऊ भर में मशहूर थे, लेकिन सब मानते थे कि परिंदों को पढ़ाने में उनका जवाब नहीं है।

    “हाँ मियाँ काले ख़ाँ”, दारोग़ा ने मुझे देखते ही कहा, क़फ़स को देख-भाल लो, ज़रा जल्दी...”

    मैंने बड़ी फुर्ती के साथ क़फ़स का फ़र्श साफ़ किया। पौदों पर पानी छिड़का, गिरे-पड़े फूल-पत्ते समेटे और बाहर निकला ही था कि जिलौ-ख़ाने की तरफ़ शहनाइयाँ और नक़्क़ारे बजने लगे। हम सब होशियार हो कर खड़े हो गए। मुझे मीर दाऊद की आवाज़ सुनाई दी, “फिर कहता हूँ, सबक़ के बीच में कोई बोले, नहीं जानवर हश्क जाएँगे।”

    दारोग़ा को कुछ ग़ुस्सा गया। बोले, “मीर साहब, एक-बार कह दिया, हज़रत के सामने किसी की मजाल है जो चूँ भी कर जाए, मगर आप हैं कि जब से यही रट लगाए हैं।”

    जवाब में मीर साहब ने बड़े इत्मीनान के साथ दारोग़ा के सीने पर उंगली रखकर फिर वही कहा, “सबक़ के बीच में कोई बोले, नहीं जानवर हश्क जाएँगे।”

    “अमाँ जाओ मीर साहब, दारोग़ा मुँह बना कर बोले”, क्या मिट्ठुओं की सी बात कर रहे हो।”

    मीर साहब तिलमिला कर कुछ कहने चले थे कि शाही जलूस दूर पर नज़र आने लगा। हम सब ताऊस चमन के फाटक पर दो क़तारें बना कर खड़े हो गए। कुछ देर में जलूस फाटक पर पहुँचा। आज बादशाह के साथ हुज़ूर-ए-आ’लम और मुसाहिबों के इ’लावा बेलीगारद के कई अंग्रेज़ अफ़्सर भी थे। हुज़ूर-ए-आ’लम उन्हें क़फ़स की एक-एक चीज़ दिखाने लगे। फिर बादशाह ने उनसे धीरे-धीरे कुछ कहा और मीर दाऊद को आँख से इशारा किया। मीर साहब तस्लीम बजा लाए और बढ़कर क़फ़स के क़रीब गए। उन्होंने मुँह से कुछ सीटी सी बजाई। क़फ़स में उड़ती हुई मैनाएँ उनकी तरफ़ आकर झूलों और अड्डों पर बैठ गईं और ज़ोर-ज़ोर से चहचहाने लगीं। मीर साहब ने कल्ले फुलाए, पिचकाए और एक अ’जीब सी आवाज़ मुँह से निकाली। मैनाएँ ज़रा देर को चुप हुईं, फिर सब के गले फूल गए और उनकी आवाज़ें एक आवाज़ हो कर सुनाई दीं,

    सलामत, शाह अख़्तर, जान-ए-आ’लम

    सुलैमान-ए-ज़माँ, सुल्तान-ए-आ’लम

    एक एक लफ़्ज़ उतना सच्चा निकल रहा था कि मुझको हैरत हो गई। बिल्कुल ऐसा मा’लूम हो रहा था कि बहुत सी गाने वालियाँ एक साथ मिलकर मुबारकबादी गा रही हैं। मैनाओं ने दो बार यही शे’र पढ़ा, दम-भर को रुकीं, फिर भारी आवाज़ और मर्दाने लहजे में बोलीं, “वेलकम टू ताऊस चमन!”

    इस पर अंग्रेज़ अफ़सरों को इतना मज़ा आया कि वो बार-बार मुट्ठियाँ बाँध कर हाथ ऊपर उछालने लगे। मैनाओं ने फिर पहला शे’र पढ़ा, फिर एक और शे’र, फिर एक और। बादशाह कुछ-कुछ देर बा’द मुस्कुरा कर मीर दाऊद की तरफ़ देखते, और मीर साहब अ’जब तमाशा सा दिखा रहे थे। सीना फुला कर तन जाते और फ़ौरन ही इस क़दर झुक कर तस्लीम करते कि मा’लूम होता कलाबाज़ी खा जाएँगे।

    मैनाओं ने एक नया शे’र पढ़ा और फिर पहला शे’र पढ़ना शुरू’ किया।

    “सलामत, शाह अख़्तर, जान-ए-आ’लम”

    लेकिन अभी शे’र पूरा नहीं हुआ था कि क़फ़स के पूरबी हिस्से से एक तेज़ बचकानी आवाज़ आई।

    “फ़लक-आरा शहज़ादी है?”

    सब मैनाएँ एक दम से चुप हो गईं और मीर दाऊद का मुँह खुला का खुला रह गया। फ़लक मैना एक टहनी पर अकेली बैठी थी और उसका गला फूला हुआ था। उसने फिर कहा,

    “फ़लक-आरा शहज़ादी है। दूध जलेबी खाती है।”

    बिल्कुल मेरी नन्ही फ़लक-आरा की आवाज़ थी। मेरी आँखों के आगे अँधेरा सा छाने लगा। मुझे ख़बर नहीं थी कि दूसरों पर इन बोलों का क्या असर हुआ लेकिन मैं ये सोच कर थर्रा गया कि महल की घोड़ियाँ भी दूध-जलेबी को ज़ियादा मुँह नहीं लगातीं और ये ज़ालिम मैना शहज़ादी को दूध-जलेबी खिलाए दे रही है, वो भी बादशाह के सामने। मुझे कुछ लोगों के धीरे-धीरे बोलने की आवाज़ें सुनाई दीं लेकिन समझ में नहीं आया कि कौन क्या कह रहा है इसलिए कि मेरे कानों में सीटियाँ बज रही थीं। और अब मुझे इन सीटियों से भी ज़ियादा तेज़ सीटी की आवाज़ सुनाई दी।

    “फ़लक-आरा शहज़ादी है। दूध जलेबी खाती है। काले ख़ाँ की गोरी-गोरी बेटी है।”, फिर फ़लक-आरा के खिलखिला कर हँसने और तालियाँ बजाने की आवाज़, और वही,

    “काले ख़ाँ की गोरी-गोरी बेटी है।काले ख़ाँ की गोरी-गोरी बेटी है।”

    अपनी आँखों के आगे छाए हुए अँधेरे में भी मैंने देखा कि दारोग़ा नबी-बख़्श आँखें फाड़-फाड़ कर मेरी तरफ़ देख रहे हैं। फिर मैंने देखा कि बादशाह ने दारोग़ा को देखा, फिर आहिस्ता-आहिस्ता गर्दन घुमाई और उनकी नज़रें मुझ पर गईं।

    मेरा बदन ज़ोर से थर-थर्राया और दाँत बैठ गए। मुझे ऐसा मा’लूम हुआ कि क़फ़स का सफ़ेद पथरीला चबूतरा ऊपर उछला और मेरे सर से टकरा गया।

    दूसरे दिन होश आया तो मैं नसीरउद्दीन हैदर के अंग्रेज़ी अस्पताल में लेटा हुआ था और दारोग़ा नबी-बख़्श झुक कर मुझे देख रहे थे। दारोग़ा पर नज़र पड़ते ही मुझको सब कुछ याद गया और मैं उठकर बैठने लगा लेकिन दारोग़ा ने मेरे सीने पर हाथ रख दिया।

    “लेटे रहो,लेटे रहो”, उन्होंने कहा, “अब सर की चोट कैसी है?”

    “चोट?”, मैंने पूछा और सर पर हाथ फेरा तो मा’लूम हुआ कई पट्टियाँ बँधी हुई हैं, कुछ तकलीफ़ भी हो रही थी। लेकिन इस वक़्त मुझे तकलीफ़ की पर्वा नहीं थी। मैंने दारोग़ा का हाथ पकड़ लिया और कहा, “दारोग़ा साहब, आपको क़सम है सच-सच बताईए, वहाँ क्या हुआ था?”

    “सब मा’लूम हो जाएगा, भाई, सब मा’लूम हो जाएगा। पहले अच्छे तो हो जाओ।”

    “मैं बिल्कुल अच्छा हूँ, दारोग़ा साहब”, मैंने कहा, “आपको क़सम है।”

    दारोग़ा कुछ देर टालते रहे, आख़िर मजबूर हो गए।

    “क्या पूछते हो मियाँ काले ख़ाँ”, उन्होंने कहना शुरू’ किया, तुम तो ग़श खा के आराम पा गए, वहाँ हम लोगों पर जो गुज़र गई... मगर पहले ये बताओ, तुम उसको किस वक़्त पढ़ा देते थे?”

    “किसको?”

    “फ़लक-आरा मैना को, और किसको।”

    “मैंने उसे कुछ नहीं पढ़ाया, दारोग़ा साहब, क़सम से।”

    “फिर?”, उन्होंने पूछा, “फिर ये बेहूदा कलाम उसने कहाँ सुन लिए?”

    मैं कुछ देर हिचकिचाता रहा, आख़िर बोला, “मेरे घर पर।”

    दारोग़ा हक्का-बक्का रह गए।

    “क्या कह रहे हो!”

    तब मैंने उन्हें अव्वल से आख़िर तक पूरा क़िस्सा सुना दिया। दारोग़ा सन्नाटे में गए। देर तक मुँह से आवाज़ नहीं निकल सकी। आख़िर बोले, “ग़ज़ब कर दिया तुमने, काले ख़ाँ। बादशाही परिंदे की चोरी! अच्छा उस दिन जो हज़रत ने फ़रमाया था कि फ़लक-आरा दिखाई नहीं दे रही है, तो क्या उस दिन भी वो तुम्हारे घर थी?”

    मैंने सर झुका लिया।

    “तुमने मुझे मार डाला”, दारोग़ा ने कहा, “मुझे कुछ पता नहीं, मैंने कह दिया अभी तो यहीं उड़ती फिर रही थी। वाह भाई, तुम तो हमारी भी नौकरी ले गए थे। अब कल जो उसने साहिबों के सामने आव-बाव बकना शुरू’ किया तो हज़रत पर सब कुछ रौशन हो गया। उफ़-उफ़, उसकी कल की लन-तरानियाँ सुनकर हज़रत ने जो कही, वही मैं कहूँ कि ये क्या ज़बान-ए-मुबारक से इरशाद हो रहा है।”

    “क्या?”, मैं उठकर बैठ गया, ”हज़रत ने क्या फ़रमाया?”

    “फ़रमाया तो बस इतना कि दारोग़ा साहब, हमारे जानवरों को बाहर भेजा कीजिए।”

    दारोग़ा ने बताया और ठंडी साँस भरी, “दारोग़ा साहब! आज तक हज़रत ने नबी-बख़्श के सिवा दारोग़ा नहीं कहा था, कि दारोग़ा साहब। इतने दिन की नमक-ख़्वारी के बा’द तुम्हारे सबब ये भी सुनना पड़ा। अभी तक कान कड़वे हो रहे हैं।”

    “दारोग़ा साहब”, मैंने लजाजत के साथ कहा, “अब तो क़सूर हुआ, जो सज़ा चाहिए...”

    “अच्छा ख़ैर”, उन्होंने हाथ उठा कर मुझे चुप करा दिया, “तो हज़रत तो रेज़ीडेंटी के साहिबों को लिए हुए सिधार गए, यहाँ ताऊस चमन में ग़दर मच गया। हुज़ूर-ए-आ’लम एक-एक को फाड़े खाते हैं। उधर मीर दाऊद साहब गज़ों उछल रहे हैं कि दुश्मनों ने उनकी मैनाओं को हश्काने के लिए बाहर का जानवर लाके क़फ़स में छोड़ दिया। मैं कह रहा हूँ ये बाहर का जानवर नहीं, हज़रत की पहचानी हुई मैना है। हुज़ूर-ए-आ’लम सामने खड़े हैं, मीर साहब ने उनका भी लिहाज़ नहीं किया। लगे चिल्लाने कि मैंने इसे नहीं पढ़ाया है, मैंने इसे नहीं पढ़ाया है। ऊपर से हुज़ूर-ए-आ’लम ने और ये कह के उनके मिर्चें लगा दें कि मीर साहब, वो तो ज़ाहिर है कि तुमने इसे नहीं पढ़ाया है, किस वास्ते कि ये तुम्हारी मैनाओं से अच्छा बोलती है। अब तो साहब क्या बताऊँ, क़फ़स से सर तो वहीं टकरा दिया, पियादों के हाथ घर को रवाना किए गए तो गोमती में फाँदे पड़ते थे। जो कुँआ रास्ते में आया दर्शन सिंह की बावली में तो समझो कूद ही गए थे।”

    मुझे मीर साहब की कूद-फाँद से क्या लेना देना था। मैंने कहा, “दारोग़ा साहब, ये बताईए, वहाँ मेरा क्या हुआ?”

    “होना क्या था।”, वो बोले, “जहाँपनाह ये मुक़द्दमा हुज़ूर-ए-आ’लम को सौंप कर सिधारे। सब पर खुला हुआ था कि ये कुछ तुम्हारी ही कारस्तानी है। उस अ’ल्लामा चिड़िया ने कोई कसर छोड़ी थी? हुज़ूर-ए-आ’लम ने तो वहीं खड़े-खड़े तुम्हारा फ़ैसला कर दिया था। मैंने टोपी उतार के उनके पैरों में डाल दी। ख़ैर, वो किसी तरह ठंडे पड़े, ज़मानत मंज़ूर की, गिरफ़्तारी का हुक्म वापिस लिया। अब मुक़द्दमा बनवा के इज़्हार लेंगे। देखो क्या फ़ैसला करते हैं, जुर्माना तो हुआ ही समझो, ऊपर से...”

    “दारोग़ा साहब”, मैं घबरा कर बोला, “यहाँ फूटी कौड़ी नहीं है। जुर्माना कहाँ से भरूँगा?”

    “अरे भाई, क्यों परेशान होते हो”, दारोग़ा ने कहा, “आख़िर हम किस दिन के लिए हैं? लेकिन बात जुर्माने ही पर टल जाए तब ना? हुज़ूर-ए-आ’लम खिसियाए हुए हैं, साहिबों के आगे किरकरी हुई है। क्या पता बंद भी करा दें, या गंगा पार उतरवा दें।”

    क़ैद-ख़ाने से ज़ियादा मुझे गंगा पार होने के ख़याल से वहशत हुई। सारी उ’म्र लखनऊ में गुज़री थी, बाहर कहीं जाता तो पागल हो जाता, मैंने कहा, “दारोग़ा साहब, इससे तो अच्छा है कि हुज़ूर-ए-आ’लम मुझे तोप-दम

    करा दें। ख़ुदा के वास्ते कोई तरकीब निकालिए।”

    फिर मुझे एक ख़याल आया।

    “क्यों दारोग़ा साहब, बादशाह को अ’र्ज़ी लिखूँ? शायद मुआ’फ़ी मिल जाए।”

    “अ’र्ज़ियाँ बादशाह को पहुँचती कहाँ हैं, मेरे भाई”, दारोग़ा ठंडी साँस लेकर बोले, “एकों-एक काग़ज़ पहले हुज़ूर-ए-आ’लम के मुलाहिज़े से गुज़रता है। अब वो जिस पर चाहें आप हुक्म सादर करें, जिसे चाहें हज़रत की ख़िदमत में पेश करें।”

    दारोग़ा उठ खड़े हुए। चलते चलते ज़रा रुके और बोले, “मगर ये ज़रूर है काले ख़ाँ, अ’र्ज़ी की तुम्हें सूझी अच्छी है।”

    “दारोग़ा साहब, लेकिन मुझे ख़ुदारा यहाँ से निकलवाईए”, मैंने कहा, “नहीं दवाओं के ये भपके मार डालेंगे।”

    “सच कहते हो। अच्छा तो छुट्टी मैं अभी दिलाए देता हूँ। तुम घर जाकर एक दिन दो दिन आराम कर लो। फिर किसी अच्छे मुंशी से अ’र्ज़ी लिखवाना। आप लिखने बैठ जाइएगा।”

    “मैं दारोग़ा साहब, जाहिल आदमी, आप लिख कर बनता काम बिगाड़ूँगा?

    “और हम कह क्या रहे हैं।”

    दारोग़ा साहब अस्पताल वालों से बात करके इधर के उधर निकल गए और मैं कुछ देर बा’द छु्ट्टी पाके घर गया।

    नन्ही फ़लक-आरा को गोद में बिठा कर मैं देर तक बहलाता रहा, लेकिन मुझे ख़बर कुछ नहीं थी कि मैं क्या कह रहा हूँ और वो क्या कह रही है।

    (5)

    दूसरे ही दिन मैं मुंशियों की फ़िक्र में निकल खड़ा हुआ। उस वक़्त लखनऊ में एक से एक लिखने वाले मिल जाते थे। मुंशी कालका प्रशाद तो मेरे ही मुहल्ले में थे। तीन को मैं जानता था कि बादशाह की ख़िदमत में रसाई रखते हैं, एक मिर्ज़ा रजब अ’ली साहब, एक मुंशी ज़हीरुद्दीन साहब, एक मुंशी अमीर अहमद साहब।

    मिर्ज़ा साहब बड़ी चीज़ थे, एक आ’लम में उनके क़लम की धूम थी, उनसे कहने की तो मेरी हिम्मत हुई, मुंशी ज़हीरुद्दीन को पूछता-पाछता उनके घर पहुँचा तो मा’लूम हुआ बिलग्राम गए हुए हैं। अब मुंशी अमीर अहमद साहब रह गए। उनका घर बताने वाला कोई मिला लेकिन ये मा’लूम हुआ कि वो जुमेरात के जुमेरात शाहमैना साहब के मज़ार पर हाज़िरी देते हैं। इत्तिफ़ाक़ की बात, उस दिन जुमेरात ही थी, वो भी नौचंदी जुमेरात। मग़रिब के वक़्त मच्छी भवन के पहलू से होता हुआ मैं शाह मैना साहब पहुँच गया। आदमियों की रेल-पेल थी, किसी तरह मज़ार तक पहुँचा। वहाँ क़व्वाली हो रही थी। मुंशी साहब ही का कलाम गाया जा रहा था। वो ख़ुद भी वहीं तशरीफ़ रखते थे। मैं उन्हें क़ैसरबाग़ में कई बार देख चुका था। एक कोने में खड़ा हो कर क़व्वाली सुनने लगा। रात गए महफ़िल बर्ख़ास्त हुई तो मुंशी साहब को लोगों ने घेर लिया। अब बातें हो रही हैं। ख़ुदा-ख़ुदा करके मुंशी साहब उठे, बाहर निकले। मैं पीछे-पीछे हो लिया। अब मुंशी साहब तस्बीह घुमाते हुए एक गली से दूसरी, दूसरी से तीसरी में मुड़ते जा रहे हैं और मैं साये की तरह साथ-साथ। आख़िर वो ठिठक कर रुक गए। मैंने सामने आकर सलाम किया। उन्होंने जवाब देकर मुझे ग़ौर देखा।

    “आपके करम का मुहताज हूँ”, मैंने कहा।

    मुंशी साहब जेब में हाथ डालने लगे। मैंने हाथ जोड़ लिए।

    “हुज़ूर, फ़क़ीर नहीं हूँ।”

    “अच्छा तो फिर?”

    “फ़क़ीरों से भी बद-तर हूँ। आप चाहें तो ख़ाना-ख़राबी से बच जाऊँ।”

    “अरे बंदा-ए-ख़ुदा क्यों पहेलियाँ बुझवा रहे हो? कुछ खुल कर नहीं कहोगे

    मैंने वहीं खड़े खड़े अपना क़िस्सा शुरू’ कर दिया मगर मुंशी साहब ने थोड़ी ही देर में मुझे रोक दिया। उनका मकान क़रीब गया था, वहाँ ले गए। मैंने कितना-कितना कहा कि रात बहुत गई है, मैं कल हाज़िर हो जाऊँगा, मगर उन्होंने उसी वक़्त सारा हाल सुना, बीच-बीच में कभी अफ़सोस करते, कभी हैरत, कभी हँस पड़ते, कभी बादशाह की ता’रीफ़ करने लगते। मैंने पूरा क़िस्सा सुना कर अपना मतलब अ’र्ज़ किया तो वो कुछ सोच में पड़ गए, फिर बोले, “सुनो भाई काले ख़ाँ, तुम्हारा क़िस्सा हमारे दिल को लग गया। अ’र्ज़ी तो तुम्हारी हम लिख देंगे, और जी लगा के लिखेंगे, लेकिन वो हज़रत तक पहुँचे तो क्यूँ-कर पहुँचे? ये तुम्हारे बस का काम नहीं, कोई वसीला है तुम्हारे पास?”

    “वसीला?”, मैंने कहा, “मुंशी साहब, मेरा तो जो कुछ वसीला हैं आप ही हैं। आप हज़रत सुल्तान आ’लम की ख़िदमत में...”

    “हाँ भाई, गाहे-गाहे हाज़िरी तो देता हूँ। ग़रीब-परर्वरी है हज़रत की कि याद फ़र्मा लेते हैं।”

    “तो फिर मुंशी साहब”, मैंने कुछ ख़ुश हो कर कुछ डरते-डरते कहा, “अगर वो अ’र्ज़ी आप ही...”

    मुंशी साहब हँसने लगे।

    “भई काले ख़ाँ... मगर सच है, तुम बादशाही कार-ख़ाने को क्या जानो। वहाँ ये थोड़ी होता है कि हज़रत ज़िल्ल-ए-सुबहानी, आदाब, ये चिट्ठी ले लीजिए, और हज़रत ने हाथ बढ़ा कर...”

    मैं झेंप गया, बोला, “मुंशी साहब, ये मेरा मतलब नहीं था। अस्ल ये है कि सुल्तान-ए-आ’लम को अ’र्ज़ी पहुँचवाने के लिए मैं आपके सिवा और किसी से नहीं कह सकता।”

    “अ’र्ज़ी बादशाह तक पहुँची भी तो हज़ार हाथों से होती हुई पहुँचेगी। फिर मुक़द्दमा तुम्हारा हुज़ूर-ए-आ’लम के हवाले हुआ है। वो काहे को पसंद करेंगे कि...”

    मुंशी साहब रुक कर देर तक कुछ सोचते रहे। बीच-बीच में अपने आपसे बातें भी करने लगते थे। कुछ लोगों के नाम भी लेते जाते थे। मियाँ साहिबान, मक़बूलुद्दौला, राहतुस्सुलतान, इमामन, और मा’लूम नहीं कौन-कौन। आख़िर में कहने लगे, “अच्छा मियाँ काले ख़ाँ, अल्लाह ने चाहा तो अ’र्ज़ी तुम्हारी हज़रत के मुलाहिज़े से गुज़र जाएगी, आगे तुम्हारी क़िस्मत...”

    मैंने मुंशी साहब को दुआ’एँ दे देकर उनकी ता’रीफ़ें शुरू’ कर दीं तो घबरा कर बोले , “अरे भाई, अरे भाई, क्यों गुनाह-गार करते हो? काम बनाने वाला अल्लाह है। लो बस अब तुम अपने घर को सिधारो।”

    वो उठ खड़े हुए। मैं चलने लगा तो दरवाज़े तक पहुँचाने आए। मैंने रुख़्सत होते वक़्त कहा, “मुंशी साहब, इसका अज्र अल्लाह आपको देगा। ग़रीब आदमी हूँ, आपका हक़-ए-मेहनत...”

    “हा!”, मुंशी साहब ने ज़बान दाँतों तले दबा ली, “उसका तो नाम भी मुँह से लेना”

    और मेरे कंधे पर हाथ रखकर फिर वही कहा, ”बात ये है काले ख़ाँ, तुम्हारा क़िस्सा हमारे दिल को लग गया है।”

    आसिफ़ुद्दौला बहादुर के इमाम-बाड़े का नौबत-ख़ाना रात का पिछ्ला पहर बजा रहा था। जुमाराती की अम्माँ बे-चारी, मैंने सोचा, मेरा रास्ता देखते-देखते सो गई होंगी। उन्हें जगाना अच्छा नहीं मा’लूम हुआ, सुब्ह तक शहर में आवारा-गर्दी करता रहा।

    (6)

    तीन-चार दिन गुज़रे होंगे कि क्या देखता हूँ दारोग़ा नबी-बख़्श दरवाज़े पर खड़े हैं। मैं घबरा गया, लेकिन उन्होंने मुझे बोलने का मौक़ा ही नहीं दिया, कहने लगे, “अरे मियाँ काले ख़ाँ, भाई तुम तो क़यामत निकले!”

    मैं और भी घबरा गया, बोला, “दारोग़ा साहब, वल्लाह मुझे कुछ ख़बर नहीं, क्या हुआ?”

    “क्या हुआ?”, दारोग़ा बोले, “ये हुआ कि तुम्हारी अ’र्ज़ी हज़रत सुल्तान आ’लम की ख़िदमत में पहुँच गई और मुलाहिज़े से गुज़रते ही उस पर हुक्म भी हो गया।”

    “हुक्म हो गया?”

    मैंने बे-ताब हो कर कहा, “क्या हुक्म हुआ दारोग़ा साहब?”

    “सुल्तानी फ़ैसले हम लोगों को बताए जाएँगे? क्या बात करते हो काले ख़ाँ, लेकिन इसे लिख रखो... अच्छा, पहले ये बताओ, अ’र्ज़ी में सारा हाल लिखवा दिया था? बिटिया का बिन माँ के होना, मैना के लिए तुम्हें दिक़ करना, और...”

    “अव्वल से आख़िर तक”, मैंने कहा, “अ’र्ज़ी मैंने देखी तो नहीं लेकिन मुंशी अमीर अहमद साहब ने कहा था जी लगाकर लिखूँगा।”

    “मुंशी अमीर अहमद साहब?”, दारोग़ा तअ’ज्जुब से बोले, “उन्हें पकड़ लिया? अमाँ हम तुम्हें ऐसा नहीं समझते थे। वही हम कहें ये अ’र्ज़ी हज़रत सुल्तान-ए-आ’लम तक पहुँच क्यूँ-कर गई?”

    “दारोग़ा साहब, वो अभी आप क्या कह रहे थे?”

    “अमाँ जो कह रहे थे वो कह रहे हैं।”

    “नहीं, वो आपने क्या कहा था, इसे लिख रखो।”

    “वो, हाँ”, दारोग़ा को याद गया, “हम कह रहे थे इसे लिख रखो कि तुम्हें मुआ’फ़ी मिल गई और तुम्हारी बिटिया को मैना।”

    “बिटिया को मैना?”, मैं हैरान हो कर बोला, “ये क्या कह रहे हैं दारोग़ा साहब?”

    “तुम अभी बादशाह के मिज़ाज से वाक़िफ़ नहीं हो”, दारोग़ा बोले, “आज जो सवेरे सवेरे बंदे अ’ली, उनका चोबदार, मुझसे तुम्हारा घर पूछने आया तो मैं भाँप गया। भई जी ख़ुश हो गया।”

    लेकिन मैंने देखा दारोग़ा बहुत ख़ुश नहीं हैं। रुके-रुके से थे और मा’लूम होता था कुछ और भी कहना चाहते हैं। मुझे घबराहट सी होने लगी। मैंने कहा, “दारोग़ा साहब, आपने हमेशा मेरे सर पर हाथ रखा है। इस वक़्त आप ख़ुश होंगे तो कौन होगा। लेकिन... दारोग़ा साहब... क्या कुछ और बात भी है?”

    दारोग़ा ज़रा क़समसाए, फिर बोले, “कह नहीं सकते काले ख़ाँ, हो सकता है कोई बात ना हो, हो सकता है बहुत बड़ी बात हो जाएगी। मगर तुम्हारी ख़ैर रहेगी।”

    “दारोग़ा साहब, ख़ुदा के लिए...”

    अब दारोग़ा साफ़ परेशान नज़र रहे थे।

    “भाई”, उन्होंने कहा, “ताज़ा वारदात भी सुन लो। आज नवाब साहब के तीन आदमी ताऊस चमन में थे।”

    “नवाब साहब?”

    “अरे हुज़ूर-ए-आ’लम, दस्तूर-ए-मुअ’ज़्ज़म, वज़ीर-ए-आ’ज़म, मदारुद्दौला, नवाब अ’ली नक़ी ख़ाँ बहादुर, कहो समझे।

    “समझा।”

    “या शायद चार आदमी थे”, दारोग़ा ने याद करने की कोशिश की, “ख़ैर, होगा, उन्हींने मुझे ताऊस चमन में बुलवाया। मैं गया तो देखा, ईजादी क़फ़स के सामने तने हुए खड़े हैं। मुझे देखते ही बड़े तेवरों के साथ पूछने लगे, इनमें फ़लक-आरा कौन सी मैना है। मैं जल गया, बोला इन्हीं में कहीं होगी, मैं कोई सब के नाम याद रखता फिरता हूँ? उनके भी दिमाग़ आसमान पर थे, कहने लगे इतने दिन से दारोग़ा हो और जानवर को नहीं पहचानते? मैंने कहा चलिए पहचानते हैं, नहीं बताते। आप पूछने वाले कौन? बात बढ़ने लगी। उनमें एक शायद नए-नए मुसाहिबी में आए थे, मूँछें निकल रही थीं, ज़रा सूरतदार भी थे। उन्होंने कुछ ज़ियादा रंग दिखाना शुरू’ किया तो मैंने कहा साहब-ज़ादे साहब, अपना जोबन सँभाल रखिए, पठान बच्चा हूँ, जब तक दाढ़ी मूँछें पूरी निकल आएँ मेरे सामने आगा-पीछा देखकर आईएगा।”

    मुझे हँसी गई।

    “दारोग़ा साहब, आपकी ज़बान से अल्लाह की पनाह!”

    “हाँ नहीं तो”, दारोग़ा वाक़ई’ ताव में आए हुए थे, अब वो लगे डँकारने।

    “मैंने कहा मेरे शहज़ादे, हम ख़ासे के शेरों को निवाला खिलाते हैं। ले बस अब चोंच बंद कीजिए। नहीं उठा कर मोहिनी के कटहरे में फेंकूँगा पहले, नाम पूछूँगा बा’द में।”

    शोर सुनकर महल्लात के बहुत से आदमी निकल आए, मुआ’मला रफ़ा’-दफ़ा’ कराया।

    कुछ देर हम दोनों सोच में डूबे रहे, फिर मैंने कहा, “बुरी वारदात हुई, दारोग़ा साहब।”

    “वारदात?”, दारोग़ा बोले, “वारदात मेरे यार अभी तुमने सुनी कहाँ। अब सुनो।

    महल्लात वालों में नवाब साहब के आदमियों के दोस्त-आश्ना भी थे, वो उनको अलग ले गए। तब भेद खुला कि उस दिन रज़ीडेंटी के जो साहिबान ताऊस चमन में आए थे, उनमें से किसी को तुम्हारी मैना के बे-हंगाम बोल भा गए। उसने नवाब साहब से उसकी ता’रीफ़ की। नवाब साहब खट से वा’दा कर बैठे कि मैना रैज़ीडेंटी पहुँचा दी जाएगी, यही नहीं, उसके लिए ईजादी क़फ़स ने नमूने का छोटा पिंजरा भी बनवा है।”

    मैं इतनी ही देर में फ़लक मैना को अपने घर का माल समझने लगा था। मैंने कहा, “लेकिन मैना तो हज़रत ने मेरी बेटी को इ’नायत की है।”

    “की है, दुरुस्त, मगर नवाब साहब ने भी तो गोरे साहब बहादुर से वा’दा किया है।”

    “तो क्या नवाब अपने बादशाह का हुक्म नहीं मानेंगे और इस...”

    “बस-बस, आगे कुछ कहो, काले ख़ाँ। तुम्हें ख़बर नहीं यहाँ क्या हो रहा है। मगर ख़ैर, नवाब साहब बादशाह के हुक्म पर अपना हुक्म तो क्या चलाएँगे, अलबत्ता वो मैना को तुमसे मोल ज़रूर लेंगे, वो भी मुँह-माँगे दामों। अच्छा ठीक है, बादशाही तुहफ़े इसी लिए होते हैं कि आदमी उन्हें बेच-बाच के पैसे बना ले। लेकिन इतना याद रखो काले ख़ाँ, मैना अगर रैज़ीडेंटी पहुँच गई तो बादशाह को मलाल होगा।”

    “मलाल हो उनके दुश्मनों को”, मैंने कहा, “नवाब साहब ख़रीद का डोल डालेंगे तो कहला दूँगा मेरी बेटी राज़ी नहीं, उसने मैना को बहन बनाया है।”

    “और नवाब साहब चुप होके बैठ जाएँगे?”, दारोग़ा फ़ौरन बोले, “कहाँ रहते हो भाई? अच्छा अब जो हम कह रहे हैं, ज़रा ध्यान से सुनो। छोटे मियाँ याद हैं?”

    “कौन छोटे मियाँ?”

    “अमाँ वही जिनके पास तस्वीरें उतारने वाला विलाएती बक्सा है। नाम लो भई, हमें तो उ’र्फ़ियत ही याद रहती है।”

    “अच्छा वो से छोटे मियाँ? दारोग़ा अहमद अ’ली ख़ाँ”, मैंने कहा, “उन्हें भूल जाऊँगा? हुसैनाबाद मुबारक में काम कर चुका हूँ।”

    “बस तो अगर मैना तुम्हारे पास पहुँच गई तो वो तुम्हारे घर आएँगे। जो वो कहें वही करना। ज़रा उसमें ख़िलाफ़ हो। और देखो, परेशान होना, तुम्हारा भला ही भला होगा। अच्छा हम चले। बाक़ी छोटे मियाँ बताएँगे।”

    “दारोग़ा साहब, कुछ आप भी तो बताते जाईए”, मैंने कहा, “मुझे अभी से हौल हो रही है।”

    “तो सुनो काले ख़ाँ, हम नहीं चाहते कि बादशाही परिंदा रैज़ीडेंटी में जाए। तुम चाहते हो?”

    “ज़िंदगी-भर नहीं।”

    “जाओ बस, चैन से बैठो।”

    दारोग़ा रुख़्सत हुए तो मैं घर में आया। ताऊस चमन वाले क़िस्से के बा’द आज पहली बार मैंने अपनी फ़लक-आरा को ग़ौर से देखा। वो बहुत झटक गई थी। मैं समझ गया अपनी मैना के लिए हड़क रही है लेकिन उसका नाम लेते डरती है। जी चाहा उसे अभी बता दूँ कि तुम्हारी मैना तुम्हारे पास रही है। लेकिन अभी मुझे ख़ुद ही ठीक-ठीक कुछ नहीं मा’लूम था, उसको क्या बताता। बस उसे गोद में लिए देर तक टहलता रहा।

    दारोग़ा नबी-बख़्श का ख़याल सही था। दूसरे ही दिन सवेरे-सवेरे शाही चोबदार और दो सरकारी अहल-ए-कार मेरे दरवाज़े पर मौजूद हुए। दारोग़ा ख़ुद भी उनके साथ थे, उनसे मेरी शनाख़्त कराके एक अहल-ए-कार ने शाही हुक्मनामा पढ़ना शुरू’ किया जिसका मज़मून कुछ इस तरह था, “काले ख़ाँ वलद यूसुफ़ ख़ाँ को मा’लूम हो कि अ’र्ज़-ए-दाशत उसकी हुज़ूर में गुज़री। हरगाह ताऊस चमन की मैना इस्मी फ़लक-आरा को चुरा कर अपने घर ले जाना उसका ब-मूजिब-ए-इक़रार उसके साबित है, बिना-बरीं उसको मुलाज़िमत-ए-सुल्तानी से बर-तरफ़ किया गया मगर तनख़्वाह उसकी बहाल रहेगी।

    मैना इस्मी फ़लक-आरा को ता’लीम देने के जल्दू में मैना मज़कूरा मुसम्मात फ़लक-आरा बेगम बिंत-ए-काले ख़ाँ को बर-सबील इनआ’म अ’ता हुई, नीज़ ख़ज़ाना-ए-आमिर से मैना मज़कूरा के दाने-पानी का ख़र्च एक अशर्फ़ी माहाना मुक़र्रर हुआ। नीज़ काले ख़ाँ वलद यूसुफ़ ख़ाँ को मा’लूम हो कि चोरी उस घर में करते हैं जहाँ माँगे से मिलता हो।”

    इस आख़िरी फ़िक़रे ने मुझे पानी-पानी कर दिया। सर झुका कर रह गया। इतने में दूसरे अहल-ए-कार ने सुर्ख़ बानात के ग़िलाफ़ से ढका हुआ पिंजरा चोबदार के हाथ से लेकर मेरे हाथ में दिया। फिर कमर से एक छोटी सी थैली खोल कर मुझे दी और उसके अंदर की बारह अशर्फ़ियाँ मेरे हाथ से गिनवाईं। बताया ये मैना का साल भर का ख़र्च है, और रसीद नवीसी की मुख़्तसर कार्रवाई के बा’द मुझे मुबारकबाद दी। दारोग़ा नबी-बख़्श ने भी मुबारकबाद दी, फिर चोबदार से कहा, “अच्छा मियाँ बंदे अ’ली, हमारा काम ख़त्म हुआ?”

    “काम हमारा भी ख़त्म हुआ”, उसने जवाब दिया, “क्यों दारोग़ा साहब, साथ चलिएगा।”

    “नहीं भाई, सोचते हैं हुसैनाबाद मुबारक में हाज़िरी दे आवें।”

    “हाँ-हाँ, ज़रूर जाईए।”

    बंदे अ’ली ने बड़े तपाक से कहा, “हमारे लिए भी दुआ’ कर दीजिएगा।”

    “लो, ये भी कहने की बात है?”

    दारोग़ा ने मेरी तरफ़ देखा और सर के हल्के से इशारे से पूछा, याद है? मैंने भी आहिस्ता से सर हिला दिया कि याद है।

    उन लोगों के जाने के बा’द घर में आया तो मा’लूम होता था ख़्वाब में हवा पर चल रहा हूँ। फ़लक-आरा अभी सो रही थी। मैंने पिंजरा सेहन में रखकर उस पर से ग़िलाफ़ हटाया तो आँखें चकाचौंद गईं।

    “सोना”, मेरे मुँह से निकला और पिंजड़े की ख़ूबसूरती मेरी निगाहों से ओझल हो गई।

    मैं अंदाज़ा लगाने की कोशिश करने लगा कि इसकी मालियत कितनी होगी। उसी वक़्त मुझे फ़लक मैना की हल्की सी आवाज़ सुनाई दी। वो मेरी तरफ़ मिची-मिची आँखों से देख रही थी। फिर उसने सर ऊपर नीचे किया और पर चला कर ज़ोर-ज़ोर से चहचहाने लगी। मैं दौड़ता हुआ कोठरी में गया और उसका पुराना पिंजरा निकाल लाया। मैना को इस पिंजरे से उस पिंजरे में करके नया पिंजरा कोठरी में छिपा रहा था कि बाहर से फ़लक-आरा की आवाज़ सुनाई दी, “हमारी मैना अच्छी हो गई, हमारी मैना अच्छी गई।”

    मैं कोठरी से बाहर आया तो उसने चहक-चहक कर मुझे भी ये ख़बर सुनाई। लेकिन मैं दूसरी फ़िक्रों में था।

    “अच्छा पहले मुँह हाथ धो लो, फिर उससे जी भर के बातें करना”, मैंने उससे कहा और बाहर दरवाज़े पर जा खड़ा हुआ।

    घर के अंदर से मैना के चहचहाने और फ़लक-आरा के खिलखिलाने की आवाज़ें चली रही थीं। वाक़ई’ ऐसा मा’लूम होता था कि दो बहनें बहुत दिन बा’द मिली हैं। आवाज़ें दम-भर को रुकीं, फिर मैंने सुना, “फ़लक-आरा शहज़ादी है, दूध जलेबी खाती है, काले ख़ाँ की गोरी-गोरी बेटी है।”

    फिर हँसी, फिर तालियों की आवाज़।

    मैं समझ नहीं सका कि ये फ़लक-आरा थी या उसकी मैना।

    (7)

    दिन-भर मैं कभी घर में आता, कभी दरवाज़े पर जाता। हर वक़्त मुझे गुमान था कि दारोग़ा अहमद अ’ली ख़ाँ आते ही होंगे, लेकिन दरवाज़े पर देर तक उनकी राह देखने के बा’द फिर घर में जाता। आख़िर क़रीब-ए-शाम वो आते दिखाई दिए। उनके साथ एक आदमी और था। कुछ देहाती सा मा’लूम होता था, लुंगी बाँधे, मोटा कुर्ता पहने, कमर में चादर लिपटा हुआ और सर पर बड़ा सा साफ़ा जिसका शमला उसने मुँह पर इस तरह लपेट लिया था कि सिर्फ़ आँखें और नाक का आधा बांसा खुला रह गया था। मुझे उसकी आँखों की चमक से कुछ डर सा लगा। इतनी देर में वो दोनों दरवाज़े पर पहुँचे। अ’लैक-सलैक हुई। अहमद अ’ली ख़ाँ ने जल्दी-जल्दी मेरा हाल अहवाल पूछा, फिर साफ़े वाले आदमी की तरफ़ इशारा करके पूछा, “इन्हें पहचानते हो ख़ाँ?”

    “सूरत देखूँ तो शायद पहचान लूँ।”

    “नहीं, यूँही पहचानते हो?”

    उन्होंने पूछा, फिर पूछा, “आगे कभी कहीं देखोगे तो पहचान लोगे?

    “इनके ढाँटे को पहचानूँ तो पहचानूँ।”

    “क़ाएदे की कही”, दारोग़ा सर हिला कर बोले, “अच्छा देखो, ये बादशाही मैना और इनआमी पिंजरे के ख़रीदार हैं। बोलो, क्या कहते हो?”

    मेरे मुँह से साफ़ इंकार निकलते-निकलते रह गया। मैंने कहा, “मैं क्या कहूँ, दारोग़ा साहब, आप मुख़्तार हैं।”

    “अच्छा तो तुमने हमें अपना मुख़्तार किया?”

    “किया।”

    “तो मैना तुम्हारी हमने इनके हाथ बेची। पिंजरा भी बेचा। पैसे सोच समझ कर तय कर लेंगे”, दारोग़ा ने कहा, फिर उस आदमी से बोले, “लीजिए इन्हें बैयाना दीजिए, क़सम भी दीजिए।”

    आदमी ने एक रुपया मेरे हाथ पर रख दिया और बोला, “काले ख़ाँ वलद यूसुफ़ ख़ाँ, कलाम-ए-पाक की क़सम खाओ, किसी को नहीं बताओगे कि मैना तुमने कितने की बेची। पिंजरे के पैसे अलबत्ता बता देना।मैना के पैसे कोई पूछे तो कह देना हम पर क़सम पड़ चुकी है।”

    मैंने क़सम खाई। छोटे मियाँ ने मुझसे कहा, “जाओ, ज़रा बेटी को बहला कर मैना और पिंजरा ले आओ।”

    मैं घर के अंदर आया। फ़लक-आरा पिंजरे के पास बैठी थी। मैंने उससे कहा, “फ़लक-आरा बेटी, अब इसके बसेरे का वक़्त है। नींद ख़राब करोगी तो फिर बीमार हो जाएगी। हम इसे हवा खिला के लाते हैं। डाक्टर साहब ने कहा है।”

    फ़लक-आरा जल्दी से उठकर अंदर दालान में चली गई। मैंने कोठरी से शाही पिंजरा निकाला, फ़लक मैना का भी पिंजरा उठाया और बाहर गया। दारोग़ा छोटे मियाँ ख़ुश हो कर बोले, ”पिंजरा बदल दिया? अच्छा किया काले ख़ाँ।”

    उन्होंने दोनों चीज़ें आदमी को दे दीं और पूछा, “पिंजरा पाया?”

    “पाया”, वो बोला।

    “मैना पाई?”

    “पाई।”

    “सिधारिए।”

    आदमी दोनों पिंजरे उठाए हुए मुड़ा और रवाना हो गया। मैं उसके पीछे लपकने ही को था कि छोटे मियाँ ने मेरा हाथ पकड़ लिया। मैं बोला, ”दारोग़ा साहब, मैना के बग़ैर मेरी बेटी...”

    “ग़म खाओ, काले ख़ाँ, ग़म खाओ”, उन्होंने कहा और सामने इशारा किया।

    ढाँटे वाला आदमी वापिस रहा था। शाही पिंजङ़ा उसने कमर के चादरे में लपेट कर सर पर रख लिया था और बिल्कुल धोबी मा’लूम हो रहा था। क़रीब आकर उसने मैना वाला पिंजरा छोटे मियाँ के हाथ में दे दिया और तेज़ क़दमों से वापिस चला गया।

    सूरज डूब चुका था और छोटे मियाँ का चेहरा मुझे ठीक से नज़र नहीं रहा था। उन्होंने पिंजरा मेरे हाथ में दे दिया। मुझे कुछ बेचैनी सी हो रही थी। वो बोले, “तुम्हारी ख़ैर ही ख़ैर है, काले ख़ाँ, बशर्त ठंडे ठंडे बात करो। आप ग़ुस्से में आओ दूसरे को ग़ुस्सा दिलाओ। और भाई आज सवेरे से सो जाना।”

    “सवेरे से?”, मैंने कहा, “आज नींद किस को आती है, दारोग़ा साहब।”

    “अरे भाई कह जो दिया तुम्हारी ख़ैर है। बस ठंडे रहना पर ज़रूर है।”

    वो वापिस गए। मैं पिंजरा लिए घर में आया। उसे सेहन की अलगनी में टाँगते-टाँगते मैंने कन-अँखियों से देखा। फ़लक-आरा दालान के खम्बे की ओट से झाँक रही थी। मैंने जाकर उसे तख़्त पर लिटा दिया। मैना की बातें करते-करते वो जल्दी ही सो गई। मैं उसे कुछ उड़ाने के लिए उठा था कि दारोग़ा नबी-बख़्श ने धीरे से दरवाज़ा थपथपाया।

    “सब इंतिज़ाम हो गया”, उन्होंने कहा, कुछ कहो नहीं, बस चले चलो। बिटिया और उसकी मैना को ले लो। घर में कोई और तो नहीं है?”

    “कोई नहीं”, मैंने कहा, फिर मुझे याद गया, “बस जुमाराती की अम्माँ हैं।”

    “ये कौन हैं? ख़ैर, उन्हें भी लो, डोली साथ लाया हूँ। और ज़रा जल्दी करो काले ख़ाँ।”

    “और दारोग़ा साहब, घर का सामान?”

    “तुम तो अभी वापिस आओगे। बस बिटिया, और वो किसकी अम्माँ हैं, उनका सामान उठाओ। एक दो अ’दद चाहे अपने भी रख लो।”

    (8)

    हुसैनाबाद में सतखंडे के पीछे नरकुलों के एक कुत्ते के नशेब में अल्मास ख़ानी ईंटों का छोटा सा मुहम्मद अ’ली शाही मकान था। वहाँ हम लोग उतरे। साफ़ सुथरी जगह थी, झाड़ू दी हुई, लोटों घड़ों में ताज़ा पानी भरा हुआ, दालान में चौकी पर कँवल जल रहा था। फ़लक-आरा सो रही थी। मैंने उसे एक पलंगड़ी पर लिटा कर मैना का पिंजड़ा सिरहाने टाँग दिया। सामान रखने धरने में कुछ देर नहीं लगी। दारोग़ा हमें उतारकर कहीं चले गए थे। ज़रा देर में वापिस आए। मुझे दरवाज़े पर बुलाया। कमर से एक थैली खोल कर मुझे दी और बोले, “पिंजरा बिक गया। रक़म छोटे मियाँ की तहवील में है। ऊपर के खर्चे के वास्ते ये सौ रुपये गिनो। या कहो पूरी रक़म अभी दिलवा दूँ?”

    “नहीं दारोग़ा साहब”, मैं घबरा कर बोला, “मेरा तो इतनी ही चांदी देखकर दम उल्टा जा रहा है।”

    दारोग़ा हँसने लगे, फिर बोले, “और दाने पानी की अशर्फ़ियों को भूल गए?”

    मैं वाक़ई’ भूल गया था, बल्कि उस वक़्त मुझको ये भी याद नहीं रहा था कि मैंने अशर्फ़ियाँ क्या कीं? दारोग़ा ने मेरी सरासीमगी देखी तो पूछने लगे, “क्या हो गया भाई?”

    उसी वक़्त मुझे याद गया। दौड़ता हुआ मकान में गया, एक बुक़चा खोला, शाही पिंजरे के ग़िलाफ़ में लिपटी हुई अशर्फ़ियाँ उठाईं और बाहर आकर दारोग़ा की तरफ़ बढ़ा दीं।

    “दारोग़ा साहब, मैं इन्हें कहाँ रखूँगा?”, मैंने कहा, “इनको अपनी तहवील में लीजिए, ख़्वाह छोटे मियाँ के पास रख दीजिए।”

    “औरों पर इतना एतबार किया करो काले ख़ाँ”, उन्होंने कहा।

    “शर्मिंदा कीजिए दारोग़ा साहब”, मैंने कहा, “आप लोग कोई और हैं?”

    “शाबाश है तुमको”, दारोग़ा ने कहा और अशर्फ़ियाँ कमरबंद में रख लीं, फिर बोले, “अच्छा, खाना आता होगा, खा-पी कर अपने मकान को सिधारो। रात को वहीं रहा करना, दिन का तुम्हें इख़्तियार है। हुज़ूर-ए-आ’लम के आदमी अगर आएँ तो दिल-जमई के साथ उनसे बात करना। और देखो, छोटे मियाँ का नाम आने पाए। वो तो कहते हैं आए और मुकर्रर आए, बिगड़े दिल आदमी हैं, लेकिन ख़्वाही-नख़्वाही का तहव्वुर दिखाने से फ़ाएदा? तुम ख़याल रखना। समझो वो तुम्हारे घर आए ही नहीं थे। अच्छा, अल्लाह हाफ़िज़।”

    ज़ियादा रात नहीं गई थी कि मैं अपने मकान पर पहुँच गया। फ़लक-आरा के बग़ैर अच्छा नहीं मा’लूम हो रहा था। बिस्तर पर पड़ा करवटें बदलता रहा। दिल बोल रहा था कुछ होने वाला है। आख़िर मुझसे लेटा गया। उठकर मकान से बाहर निकल आया। दरवाज़े के सामने टहलने लगा।

    रात थोड़ी और गई तो मैंने देखा दो जलती हुई मिशअ’लें मेरे मकान की तरफ़ बढ़ रही हैं। मैं तेज़ी से घर में दाख़िल हुआ और दरवाज़ा अंदर से बंद करके बिस्तर पर जा लेटा। ज़रा देर में दस्तक हुई।

    मशालचियों के इ’लावा चार आदमी और थे। उन्होंने मेरा नाम वग़ैरह दरियाफ़्त किया, रूखेपन से शाही इनआ’म की मुबारकबाद दी, फिर मैना को पूछा कहाँ है।

    “बिक गई”, मैंने कहा।

    “बिक गई?”, एक ने हैरत से पूछा, “आज के आज?”

    “मैं फ़क़ीर आदमी, बादशाही परिंदे को घर में कहाँ रखता?”

    इसके बा’द उन लोगों ने सवालों की बौछार कर दी। मिशअ’लों की रौशनी सीधी मेरे मुँह पर पड़ रही थी और मेरा डर बढ़ता जा रहा था, लेकिन मैंने अपने हवास बहाल रखे और हर सवाल का फ़ौरन जवाब दिया।

    “किसने ख़रीदी?”

    “मा’लूम नहीं, वो चेहरा छुपाए हुए था।”

    “देखोगे तो पहचान लोगे?”

    “नहीं, वो चेहरा छुपाए हुए था।”

    “कितने में बेची?”

    “नहीं बता सकता, उसने क़सम दे दी है।”

    “क्यों?”

    “वो जाने।”

    “छोटे मियाँ आए थे?”

    “कौन से छोटे मियाँ?”

    इसके बा’द कुछ देर ख़ामोशी रही, फिर पूछा गया, “तो मैना बिक गई?”

    “बिक गई।”

    “पैसे क्या किए?”, एक ने पूछा, हम मदारुद्दौला बहादुर के आदमी हैं, ज़रा सोच समझ कर बात करना। पैसे क्या किए, काले ख़ाँ?”

    “अभी सिर्फ़ बयाना लिया है।”

    “कितना?”

    “एक रुपया”, मेरे मुँह से निकल गया।

    फिर मुझे पसीने छूटने लगे। कौन मान सकता था कि मैंने सिर्फ़ एक रुपया लेकर सोने का पिंजरा और बादशाही परिंदा किसी अनजाने आदमी के हाथ में पकड़ा दिया होगा। उसी वक़्त किसी ने कड़क कर कहा, “काले ख़ाँ सोच समझ कर बात करो।”

    ऐसी आवाज़ थी कि गली के कई घरों से आदमी बाहर निकल आए। मैं ख़ामोश खड़ा था। आगे वाले मशालची ने अपनी मिशअ’ल इस हाथ से उस हाथ में ली। मिशअ’ल का शो’ला लहराया और बोलने वाले के मुँह पर रौशनी पड़ी। नौजवान आदमी था। नौजवान क्या लड़का कहना चाहिए। पूरी मूँछें भी नहीं निकली थीं। सूरत अच्छी थी। उसने फिर कड़क कर कहा, ”काले ख़ाँ तुम उस आदमी को नहीं पहचानते?”

    अचानक मेरा डर हवा हो गया।

    “चलिए पहचानते हैं”, मैंने कहा, “मगर नहीं बताते। आप पूछने वाले कौन?”

    वो लोग कुछ देर तक ख़ामोश खड़े मुझे घूरते रहे, फिर सब एक साथ मुड़े और वापिस चले गए। मुहल्ले वाले बढ़कर मेरे क़रीब गए। पूछने लगे क्या हुआ, क्या हुआ।

    “कुछ नहीं”, मैंने कहा, “बुरा ज़माना गया है।”

    मैंने घर का दरवाज़ा भी अंदर से बंद नहीं किया। बिस्तर पर लेट कर सोचता रहा।

    “बात बिगड़ गई, काले ख़ाँ”, आख़िर मैंने ख़ुद से कहा।

    और सच कहा। दूसरे दिन सवेरे-सवेरे मुझे गिरफ़्तार कर लिया गया। मेरे घर से ईजादी क़फ़स की एक गंगा-जमुनी कटोरी बरामद हुई थी।

    (9)

    मैं भूल चुका हूँ कि मैंने क़ैद-ख़ाने में कितनी मुद्दत गुज़ारी। मुझे तो ऐसा मा’लूम होता था कि मेरी सारी उ’म्र इसी पिंजरे में गुज़री जा रही है। क़ैदियों में ज़ियादा-तर लखनऊ के औबाश और उठाई-गीरे थे। उनसे मेरा दिल नहीं मिला। सबसे अलग-थलग रहता। फ़लक-आरा बहुत याद आती थी। कभी-कभी तो कहीं बिल्कुल क़रीब से उसके खिलखिलाने और फ़लक-मैना के चहचहाने की आवाज़ें कानों में आने लगतीं, बड़ी बेचैनी होती, लेकिन ये सोच कर कुछ इत्मीनान हो जाता था कि अपनी मैना के साथ उसका जी बहला रहता होगा और नबी-बख़्श और छोटे मियाँ उसकी ख़बर-गीरी मुझसे ज़ियादा कर रहे होंगे। सबसे बढ़कर पैसे का इत्मीनान था।

    अपनी तनख़्वाह तो ख़ैर अब क्या मिलती, लेकिन फ़लक मैना की माहाना एक अशर्फ़ी और शाही पिंजरे की क़ीमत मिला कर मेरे लिए इतनी दौलत थी कि कभी सोचता तो समझ में आता था उसे कहाँ तक ख़र्च करूँगा। फिर सोचने लगा कि उसे ख़र्च करने की नौबत भी आएगी या क़ैद-ख़ाने ही में घुट-घुट कर मर जाऊँगा। बड़ा जी चाहता कि किसी तरह फिर बादशाह को अ’र्ज़ी पहुँचवा दूँ। अभी तो मेरा मुक़द्दमा ही नहीं बना था। कुछ पता नहीं था कि मुक़द्दमा कब शुरू’ होगा और उसके बा’द अगर क़ैद की सज़ा मिलेगी तो कितने दिन की मिलेगी।

    लेकिन एक दिन कुछ कहे-सुने बग़ैर अचानक मैं रिहा कर दिया गया। मुझे ख़याल हुआ कि शायद दारोग़ा नबी-बख़्श ने मुंशी अमीर अहमद साहब को पकड़ लिया, लेकिन बाहर निकलने लगा तो देखा मेरी तरह और भी, शायद सभी क़ैदी छोड़ दिए गए हैं। बड़ा शोर हो रहा था मगर मैं एक किनारे हो कर बाहर निकल आया और सीधा सतखंडे की तरफ़ चला।

    कुछ दूर तो में अपनी धुन में निकला चला गया, फिर मुझे सब कुछ बदला-बदला मा’लूम होने लगा। शहर पर अ’जीब मुर्दनी सी छाई हुई थी। चौड़े रास्तों पर गोरों के फ़ौजी दस्ते गश्त कर रहे थे और मैं जिस गली में मुड़ता उसके दहाने पर अंग्रेज़ी फ़ौज के दो तीन सिपाही जमे हुए नज़र आते थे। गलियों के अंदर लोग टोलियाँ बनाए चुपके-चुपके आपस में बातें कर रहे थे। मुझे घर पहुँचने की जल्दी थी इसलिए कहीं रुका नहीं। लेकिन हर तरफ़ एक ही गुफ़्तगू थी, रुके बग़ैर भी मुझे मा’लूम हो गया कि अवध की बादशाही ख़त्म हो गई, सुल्तान-ए-आ’लम वाजिद अ’ली शाह को तख़्त से उतार दिया गया है। वो लखनऊ छोड़ कर चले गए हैं। अवध की सल्तनत अंग्रेज़ों के हाथ में गई है और इस ख़ुशी में उन्होंने बहुत से क़ैदियों को आज़ाद किया है।

    अज़ाँ-जुम्ला मैं भी था। ऐसा मा’लूम हुआ कि एक पिंजड़े से निकल कर दूसरे पिंजड़े में गया हूँ। जी चाहा लौट कर क़ैद-ख़ाने में चला जाऊँ, फिर फ़लक-आरा का ख़याल आया और मैं सतखंडे की सीधी सड़क पर दौड़ने लगा।

    घर पहुँचा तो सब कुछ पहले की तरह नज़र आया। फ़लक-आरा पहले तो मुझसे कुछ खिंची-खिंची रही, फिर मेरी गोद में बैठ कर अपनी मैना के नए-नए क़िस्से सुनाने लगी।

    लखनऊ में मेरा दिल लगना और एक महीने के अंदर बनारस में रहना, सत्तावन की लड़ाई, सुल्तान-ए-आ’लम का कलकत्ते में क़ैद होना, छोटे मियाँ का अंग्रेज़ों से टकराना, लखनऊ का तबाह होना, क़ैसरबाग़ पर गोरों का धावा करना, कटहरों में बंद शाही जानवरों का शिकार खेलना, एक शेरनी का अपने गोरे शिकारी को घायल करके भाग निकलना, गोरों का तैश में आकर दारोग़ा नबी-बख़्श को गोली मारना, ये सब दूसरे क़िस्से हैं और इन क़िस्सों के अंदर भी क़िस्से हैं।

    लेकिन ताऊस चमन की मैना का क़िस्सा वहीं पर ख़त्म हो जाता है जहाँ नन्ही फ़लक-आरा मेरी गोद में बैठ कर उसके नए-नए क़िस्से सुनाना शुरू’ करती है।

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