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तावीज़

बलवंत सिंह

तावीज़

बलवंत सिंह

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    स्टोरीलाइन

    एक ऐसे शख़्स की कहानी है, जो ख़ुद को किसी राजा साहब का आदमी बताकर एक होटल में ठहरता है। उसके साथ एक बच्ची भी होती है। मगर उसके पास एक भी पैसा नहीं होता। अपने ख़र्च के लिए भी वह होटल के मालिक से किसी न किसी बहाने से पैसे माँगता रहता है। आख़िर में वह उसे एक तावीज़ देकर होटल से चला जाता है। उसके जाने के बाद जब वह उस तावीज़ को खोलकर देखता है तो उसकी सारी हकीक़त उसे सामने खुल जाती है।

    चार नंबर साहिब दो रुपये मांगते हैं।

    बैरे का मतलब ये था कि जो साहिब कमरा नंबर 4 में ठहरे हुए हैं वो दो रुपये तलब करते हैं। मुझे ताज्जुब हुआ और ग़ुस्सा भी आया कि ये शगूफ़ा कैसा? जो मुसाफ़िर होटल में क़ियाम पज़ीर हो उससे हम रुपया वसूल करने के इवज़ उल्टा उसी को अपनी गिरह से रुपये अदा करें।

    मैंने बूटों के तस्मे कसते हुए पूछा, क्यों?

    वो तार देना चाहते हैं।

    कहाँ?

    हम का जानी... हजूर।

    बैरे के इस जवाब से झुंजलाहट तो हुई। लेकिन उससे ज़्यादा बातचीत करनी फ़ुज़ूल थी।

    अच्छा, तो तुम जाकर कहो कि ख़ुद मालिक रहे हैं।

    कुछ तो काम मंदा हो रहा था और कुछ इस क़िस्म के मुसाफ़िर परेशानी का बाइस होते थे। लेकिन होटल का बिज़नस ऐसा कि हर क़िस्म के इन्सान से निबाह करना पड़ता है।

    नीचे पहुंच कर मैंने मुलाज़िम से कहा कि चार नंबर साहिब को दफ़्तर में ही बुला लाओ। मैंने मैनेजर की जानिब मुतवज्जा हो कर पूछा,

    ये किस क़िस्म का मुसाफ़िर है?

    मैनेजर ने सर झुकाते हुए जवाब दिया, मुसलमान है।

    मैनेजर का लब-ओ-लहजा अजीब था। उसका जवाब भी ख़िलाफ़-ए-उम्मीद था। क़दरे ताम्मुल के बाद उसने कहना शुरू किया, अजी बड़ा रोब गांठता है। कहता है कि मैं बहुत पुराना आदमी हूँ। बड़ी नुक्ताचीनी करता है और अपने आपको किसी राजा साहिब का मुसाहिब बताता है।

    मालिक ने उसकी इन बातों को ज़्यादा अहमियत नहीं दी। क्योंकि होटल में अक्सर ऐसे लोग बहुत आया करते थे, मुझे उनसे निबटने में कोई दिक़्क़त महसूस नहीं होती थी।

    इसी अस्ना में हज़रत मौसूफ़ आगए। उनकी सूरत ख़िलाफ़-ए-उम्मीद बिल्कुल फ़िद्वी क़िस्म की दिखाई दी। पच्चास के क़रीब सिन। नाटा क़द, दाढ़ी मूंछ ग़ायब। यहां तक कि अब्रू का भी सफ़ाया कर डाला...और उन पर यूरोपीयन लेडीज़ के मानिंद आई बरू पैंसिल से ख़ुतूत खींच दिए गए थे। आँखों में काजल, पुतलियां रक़्साँ, बंद गले का कोट, पतलून नुमा पाएजामा, सूरत मज़हकाख़ेज़ लेकिन तेवर संजीदा थे।

    आते ही भरपूर आवाज़ में बोले, आदाब अर्ज़ करता हूँ। मैंने सलाम का जवाब देते हुए कुर्सी की जानिब इशारा किया, तशरीफ़ रखिए।

    आपने सर-ए-तस्लीम ख़म किया और फिर तशरीफ़ फ़र्मा हो गए।

    मैं कुछ कह पाया था कि वो बोल उठे,

    भायं (यानी मैं...)आपको पहचानता हूँ। आप... आप शायद मुझे नहीं पहचानते। भायं अक्सर आपके यहां क़ियाम पज़ीर होता हूँ। आपके मैनेजर भी नए आए हैं... इत्तिफ़ाक़ की बात भायं जब कभी आया तो मालूम हुआ कि हुज़ूर बाहर तशरीफ़ ले गए हैं।

    जी हाँ बा'ज़ औक़ात मैं बाहर भी चला जाया करता हूँ।

    ज़हे नसीब आज आपकी ज़यारत हासिल हो गई। मेरा नाम शाहा है।

    शाहा... अजीब नाम था शायद उसके बताने में ग़लती हुई है कुछ। आपका नाम शाह है।

    जी नहीं, शाह नहीं। शाहा। शा और हा... शाहा।

    अच्छा तो शाहा साहिब आपने मुझे याद फ़रमाया था।

    जी, जी, जी... मैं पांगरे सरकार के हुक्म से लखनऊ गया था वहां से यहां आया हूँ। हुज़ूर पांगरे सरकार को एक बावर्ची...

    ये पांगरे साहिब कौन हैं?

    आप पांगरे सरकार को नहीं जानते? नहीं आप ज़रूर जानते होंगे। पांगरे सरकार वही जौनपूर रियासत के राजा। अब तो देसी राज में उनकी रियासत भी ख़त्म हो गई। वर्ना अंग्रेज़ बहादुर के राज में धुर विलाएत तक उनकी धूम थी। अब भी उनकी शान-ओ-शौकत में कोई फ़र्क़ नहीं आया। अब उन्होंने कई क़िस्म के कारख़ाने और मिलें जारी कर दी हैं जिनके ज़रिये से उन्हें लाखों रुपये की आमदनी होती है हर माह। हैं तो हिंदू लेकिन तास्सुब छू कर नहीं गया सन् 1947 में इतने फ़सादात हुए लेकिन हम हमेशा सरकार के साथ रहे। क्या मजाल जो किसी का बाल भी बीका हुआ हो। सचमुच सरकार सही मअनी में ग्रेट हैं।

    यूपी में हर छोटा बड़ा ज़मींदार राजा कहलाता था। इसलिए मुझे उनसे ज़्यादा दिलचस्पी नहीं थी। चुनांचे मैंने मतलब की बात दर्याफ़्त की अच्छा तो आप...

    जी में सरकार का मुसाहिब हूँ।

    इस पर मैंने उसे मशकूक नज़रों से देखा। उस का लब-ओ-लहजा किसी हद तक शुस्ता ज़रूर था लेकिन शख़्सियत ऐसी नहीं थी कि उस पर यक़ीन किया जा सके... या फिर उनकी सूरत से राजा साहिब की हैसियत का अंदाज़ा लगाया जा सकता था।

    हाँ तो भायं अर्ज़ कर रहा था कि माएं उन मुसाहिबीन में से हूँ...

    आपका काम क्या होताहै?

    यही सरकार का दिल बहलाना। चुटकुले सुनाना, उन्हें ख़ुश रखना... जी तो सरकार का मतलूबा बावर्ची मुझे यहां मिल गया था। भायं ने रुपये के लिए इसी होटल का पता लिखा था। लेकिन रुपया अभी तक नहीं आया... अगर दो रुपये इनायत कीजिए तो एक तार रवाना कर दूं।

    इस क़िस्म के मुसाफ़िर हमेशा मशकूक हुआ करते हैं। मैं सोच में पड़ गया तो उन्होंने फ़ौरन कहा, भायं तार का मज़मून लिखे देता हूँ, आप मुलाज़िम को भेज कर तार दिलवा दें, बस मुझे रुपये की ज़रूरत नहीं है। पांगरे सरकार तार देखते ही रुपया भिजवा देंगे।

    उसके इस बयान से सच्चाई की बू आई। मैंने सोचा दो रुपये की हैसियत ही क्या है। इतना सा एतबार कर लेने में क्या हर्ज है।

    मुलाज़िम के जाने के बाद शाहा साहिब ने गुफ़्तगु जारी रखी।

    सरदार साहिब, आपको देखकर मुझे एक और सरदार साहिब याद रहे हैं...

    मैं चुप रहा लेकिन शाहा साहिब जारी रहे।

    वो पांगरे सरकार के दोस्त हैं वो भी किसी सिख शाही ख़ानदान से ताल्लुक़ रखते हैं। आप ही का सा डील-डौल। ये भरपूर और बा रोब चेहरा मज़बूत जिस्म। आप ही के हम उम्र। क्यों साहिब आपकी उम्र दर्याफ़्त कर सकता हूँ?

    मैंने ख़ुश्क लहजे में जवाब दिया, यही पच्चास साल के लगभग।

    ताज्जुब! ताज्जुब! हालाँकि आपकी इतनी उम्र ज़ाहिर नहीं होती।

    अट्ठाईस बरस का तो मेरा लड़का है।

    अच्छा तो छोटे हुज़ूर क्या करते हैं?

    वो मिल्ट्री में है, उससे छोटा जहाज़रानी सीख रहा है और उससे भी छोटा अभी पढ़ता है।

    ख़ूब ख़ूब। अल्लाह ने साहिब ज़ादीयाँ कितनी अता फ़रमाई हैं?

    इस बाब में सख़्त बदनसीब वाक़ा हुआ हूँ। एक लड़की थी। वो भी बचपन में मर गई।

    अल्लाह की देन है, अल्लाह के काम न्यारे हैं... जिन सरदार साहिब का ज़िक्र भायं कर रहा हूँ उनकी उम्र चालीस के लग भग होगी... साहिब आप उनके हम उम्र दिखाई देते हैं। जनाब वो ज़मीन पर खड़े हो कर शेर का शिकार खेलते हैं। पांगरे हुज़ूर उनसे कहा करते हैं, अरे सरदार साहिब आप तो ख़ुद ही शेर हैं। हाहा हाहा।

    उसके बाद चार दिन गुज़र गए। पांगरे सरकार ने तार का जवाब तक दिया। रुपये भेजने तो रहे दरकिनार।

    एक बार जब कि मैं शाहा के कमरे के आगे से गुज़रा तो ख़्याल आया कि इस सिलसिले में पूछगछ कर लूं। मैं उमूमन मुसाफ़िरों के कमरों में जाने से एहतिराज़ करता हूँ। लेकिन ये मुआमला ज़रा मशकूक था। दरवाज़ा खटखटाते हुए मैंने आवाज़ दी,

    शाहा साहिब।

    उधर शाहा साहिब तहबंद लहराते दिखाई दिए। मुझे देखते ही फ़र्श पर बिछ गए। बाछें खिल गईं। आईए आईए तशरीफ़ रखिए।

    उधर उधर की सरसरी बातों के बाद मैंने कहा, आपका बिल बढ़ रहा है। तार का जवाब भी नहीं आया।

    कुछ मज़ाइक़ा नहीं मालूम होता है सरकार शिकार पर चले गए हैं।

    इसके तो ये मअनी हुए कि वो बहुत दिनों तक नहीं आसकेंगे।

    जी नहीं, ऐसी बात नहीं है, सरकार जंगलों में मारे मारे नहीं फिरते हैं, वही राजाओं वाला हिसाब है। जंगल में कुल इंतिज़ामात होजाने पर ही जाते हैं और दो दिन धाएँ धाएँ कर के लौट आते हैं।

    ये गोया इशारा इस अमर की तरफ़ भी था कि मैं शाहा नहीं हूँ। सचमुच उसका बातचीत का अंदाज़ बड़ा दिलकश था... आँखों और नक़ली भवों से काम लेना वो ख़ूब जानते थे, हंसते तो मज़बूत पीले दाँत और बदसूरत मसूड़े दिखाई देने लगते। उस वक़्त मेरा ध्यान उनकी बातों की जानिब नहीं था। बल्कि अब मैं उनकी कुर्सी के पास बिछे हुए पलंग पर बैठी हुई एक लड़की को देख रहा था।

    उसकी उम्र बमुश्किल बारह बरस के लगभग होगी। लेकिन इस क़दर संजीदा मानों कि साठ बरस की बुढ़िया हो। उसका रंग ज़रा खुलता हुआ सा साँवला। आँखों में ज़हानत की चमक और उदासी की झलक दिखाई देती थी। होंट तर्शे हुए। वो ख़ूबसूरत तो नहीं। अलबत्ता पुरकशिश बच्ची थी।

    मेरे दर्याफ़्त करने पर शाहा ने सर घुमा कर बच्ची की जानिब देखा और तआरुफ़ कराया कि ये मेरी बच्ची है। उठो बेटी, सरदार साहिब को सलाम अर्ज़ करो।

    इस पर बच्ची उठकर मुअद्दबाना खड़ी हो गई और अपना दुबला पतला हाथ पेशानी तक ले जा कर आहिस्ता लहजे में बोली, सलाम अर्ज़ करती हूँ।

    मुझे इस पर बड़ा प्यार आया। सोचा बाप ने बच्ची को अच्छी तर्बीयत दी है। मैंने कमज़ोर शानों पर हाथ रखकर अपने क़रीब खींचा और उसकी पेशानी चूम कर बोला, तुम तो बड़ी अच्छी सी बच्ची हो। शाहा साहिब मुझे आप पर रश्क आता है।

    इस पर शाहा ने दुआ मांगने के अंदाज़ में दोनों हाथ ऊपर उठा लिए उसकी आँखों की पुतलियां भी खट से ऊपर को चढ़ गईं और निस्फ़ हद तक ग़ायब हो गईं। फिर उसने दर्दनाक लहजे में कहा, या अल्लाह! या रसूल पाक तेरा हज़ार हज़ार शुक्र अदा करता हूँ।

    शाहा उसी अंदाज़ में बैठे कुछ देर तक आसमान की जानिब तकते रहे फिर उन्होंने पुतलियों को जल्द जलद झपकाया जैसे आँसू पी जाने की कोशिश कर रहे हों। और फिर मुझसे मुख़ातिब हो कर बोले, सरदार साहिब ये बच्ची फ़रिश्ता है फ़रिश्ता।

    मैंने एक बार फिर बच्ची के मासूम चेहरे का जायज़ा लिया और तह-ए-दिल से गला साफ़ करते हुए कहा, बेशक, बेशक।

    दिन गुज़रते गए। शाहा का बिल बढ़ता जा रहा था। मैं अक्सर उनकी बच्ची आयशा से मिलने जाया करता था। वो मुझे बहुत प्यारी लगती थी। मैं शाहा से कहा करता था, काश मुझे भी बच्ची होती। शाहा बातों के बादशाह थे। वो सिर्फ़ हाँ मैं हाँ मिलाते उसे कहीं से कहीं पहुंचा देते, यहां तक कि ये याद ही रह जाता कि असल बात कहाँ से शुरू हुई थी।

    माद्दापरस्ती के बढ़ते हुए ज़ोर पर इज़हार-ए-तास्सुफ़ करते रहे, वो अक्सर कहते कि दुनिया में नित नए झगड़ों और दुखों की वजह ये है कि हम अल्लाह और उसके नबियों की तालीमात भूल गए हैं। किसी को क्या कहूं। ख़ुद मुसलमान वो मुसलमान नहीं रहे। सरवर-ए-कायनात हज़रत मुहम्मद की सवानिह हयात मुलाहिज़ा फ़रमाईए तो हैरान-ओ-शश्दर रह जाईए। हुज़ूर की ज़िंदगी में से एक छोटा सा वाक़िया अर्ज़ करता हूँ, हुज़ूर का मामूल था कि फ़ज्र की नमाज़ के बाद एक कूचे से होते हुए घर लौट आते थे, वहां एक निहायत बदज़न ख़ातून रहती थी। वो हुज़ूर की तालीमात को नऊज़-बिल्लाह पसंद नहीं करती थी और उसकी नफ़रत का ये आलम था कि आँ हज़रत उधर से गुज़रते तो वो ख़बीसा मकान की खिड़की में से कूड़े का भरा हुआ टोकरा हुज़ूर पर दे मारती। मुसाहिबीन मारे ग़ज़ब के काँपने लगे। लेकिन आँ हज़रत उनको रोकते और कमाल-ए-ज़ब्त से काम लेकर अपने लिबादे और रेश शरीफ़ को कूड़े करकट से पाक करते और आगे बढ़ जाते। एक रोज़ ऐसा हुआ कि उन पर कूड़े का टोकरा नहीं फेंका गया। आँ हज़रत के क़दम रुक गए और उन्होंने मुसाहिबीन में से एक को इशारा किया कि मालूम करो। आज ख़ातून मौसूफ़ ने इनायत क्यों नहीं की? मुसाहिब ख़बर लाया कि आज उस ख़ातून का इंतिक़ाल हो गया है।

    ये कह कर शाहा ने पुर आब आँखों से मेरी जानिब देखा और भर्राई हुई आवाज़ में कहा, आपको मालूम है इस पर आँ हज़रत ने क्या कहा...? आँ हज़रत बनफ्स-ए-नफ़ीस ताज़ियत के लिए मकान पर चढ़ गए।

    उसके बाद शाहा फूट फूटकर रोने लगे।

    ख़ुद मेरी आँखें भी पुरनम हो गईं।

    क्या आजकल की दुनिया में करेक्टर की ऐसी आला मिसाल ढ़ूढ़ने से भी मिल सकती है।

    आयशा की मौजूदगी और शाहा से इस क़िस्म की बातों का नतीजा था कि मैंने बिल की अदायगी के लिए सख़्ती से तक़ाज़ा नहीं किया। यूं भी मुझसे आँखें चार होते ही शाहा मह्जूब हो कर इज़हार-ए-तास्सुफ़ करने लगता। जाने सरकार ख़ामोश क्यों हैं, सरकार ने पहले तो कभी ऐसा नहीं किया, मुम्किन है सरकार तवील दौरे पर चले गए हों। सरदार साहिब! सरकार ने बड़ा आला दिमाग़ पाया है। उन्होंने पहले ही से भाँप लिया था कि हकूमत-ए-हिन्द रियास्तों को ख़त्म कर देगी। चुनांचे इन्होंने ऐसे ऐसे कारोबार शुरू कर दिए कि माहाना लाखों की आमदनी पैदा कर रहे हैं।

    ग़रज़ इस तरह ग्यारह दिन बीत गए।

    एक रोज़ दोपहर के वक़्त मैं उनके कमरे के आगे से गुज़रा तो उनका दरवाज़ा नीम वा पाया, कोई आवाज़ सुनाई नहीं दे रही थी। मैंने दस्तक दी,शाहा साहिब हैं क्या?

    क़दरे सुकूत के बाद आयशा की शीरीं आवाज़ सुनाई दी, बाहर गए हैं।

    मैंने अंदर झांक कर देखा कि आयशा ज़मीन पर बिछी हुई चटाई पर दो ज़ानूँ बैठी है। मैंने ताज्जुब से दर्याफ़्त किया, क्या तुम नमाज़ भी पढ़ लेती हो?

    जी नहीं। उसने शर्मा कर जवाब दिया। अब्बा ने सिखाई ही नहीं। लेकिन मैं दो ज़ानू हो कर ख़ुदा से दुआ मांग लिया करती हूँ।

    मैंने कुर्सी पर बैठते हुए आयशा को अपने क़रीब बुलाया और प्यार से पूछा, अच्छा तो तुम्हें नमाज़ पढ़ने का बहुत शौक़ है।

    जी... उसकी आवाज़ बेहद शीरीं और लब-ओ-लहजा बहुत प्यारा था। मैंने उसके बालों को पेशानी से हटाते हुए उसके ठंडे रुख़्सार को चूम लिया और कहा, आयशा तुम हमारी बेटी बन जाओ।

    बेहतर।

    मुझे उसका लफ़्ज़ 'बेहत'र कहने का अंदाज़ बहुत भला मालूम हुआ, फिर हम तुम्हें नमाज़ पढ़ने का तरीक़ा सिखाने के लिए किसी अच्छे मौलवी साहब को बुला देंगे।

    बेहतर।

    भई यूं नहीं, हमारा दिल ख़ुश करने की बातें करो। सच कहो हमारी बेटी हो ना तुम?

    जी बिल्कुल, उसने क़तअन इस्बात में सर हिलाते हुए जवाब दिया।

    उसी शाम शाहा साहिब मुझे अलग एक गोशे में ले गए और बोले, मैं बेहद शर्मिंदा हूँ, जाने अब तक रुपये क्यों नहीं आए। ज़्यादा अर्से तक यहां रहना मेरे लिए दूभर हो रहा है। एक तजवीज़ अर्ज़ करूँ?

    ये कह कर शाहा ने पर ख़ुलूस अंदाज़ से मेरी जानिब देखा। मैं समझ गया कि अब ये चिड़िया फुर से उड़ना चाहती है। शाहा साहिब बोले,

    आप इजाज़त दें तो मैं लौट जाऊं। वहां पहुंचते ही आपके रुपये भिजवा दूँगा।

    मैं सोच में डूब गया। ऐसे नाज़ुक मौक़े पर मुझे क्या करना चाहिए। क़ानून का सहारा लेना बेकार था। शाहा साहिब के पास क़ीमती सामान ही था। वो फिर बोले,सरदार साहिब, एक ज़हमत देना चाहता हूँ, रेलवे का

    किराया अदा करना होगा आपको।

    ये कह कर उन्होंने एक बार फिर कमाल ख़ुलूस से मुझसे नज़रें मिलाईं।

    भायं दर हक़ीक़त बहुत शर्मिंदा हूँ, लेकिन मेरा ख़्याल है कि आप मेरा एतबार कर सकते हैं।

    तजुर्बा यही कहता है कि ऐसे मौक़े पर एक दमड़ी तक वसूल नहीं हो सकती। निनानवे फ़ीसदी यक़ीन था कि अब ये रुपये मुझे नहीं मिल सकेंगे लेकिन बिज़नस जुआ ही तो है।

    सरदार साहिब! मेरी नन्ही बच्ची का ही ख़्याल कीजिए।

    मैं रज़ामंद हो गया।

    इस पर शाहा ने जेब में से सेलुलाइड की बनी हुई पीले रंग की एक डिबिया निकाली और फिर मेरी जानिब पुर आब आँखों से देखकर आगे बढ़ाया, ये लीजिए, दरवेश की निशानी इसमें एक तावीज़ है, इसे सँभाल कर रखिए। अल्लाह बहुत देगा।

    ये सुनकर मैं बिदका। सोचा कहीं ऐसा हो कि महज़ दरवेश की निशानी। मेरे पास रह जाये और दरवेश का कुछ पता ही चले। चुनांचे मैंने डिबिया की तरफ़ सर्द नज़रों से देखते हुए जवाब दिया, देखिए शाहा साहिब! बिज़नस बिज़नस है, तावीज़ रहने दीजिए, मैं बस ये चाहता हूँ कि आप जाते ही मेरा रुपया मुझको रवाना कर दीजिएगा।

    इंशाअल्लाह! इंशाअल्लाह! आपका रुपया फ़ौरन रवाना कर देना तो मेरा फ़र्ज़ है और आप देखिएगा कि मैं अपना फ़र्ज़ किस तरह पूरा करता हूँ। रहा ये तावीज़ तो इसे महज़ दरवेश की निशानी समझ कर क़बूल फ़र्मा लीजिए। आप इसकी तासीर देखकर हैरान रह जाइएगा।

    मैं इस फ़ुज़ूल हरकत पर हिचकिचा रहा था। लेकिन शाहा ने सद इसरार डिबिया मेरे हाथ में थमा दी।

    उस रात शाहा साहिब ने मुझसे बीस रुपये नक़द लिये और बिल चुकाने का वादा करके चले गए। दिन गुज़रते गए शाहा साहिब ने कोई ख़बर नहीं भेजी और रुपया भेजा। मेरा अंदेशा दुरुस्त साबित हुआ। शाहा साहिब तो गए हवा में तहलील हो गए।

    अलबत्ता एक बात बहुत अजीब मालूम हुई वो ये कि जब से वो तावीज़ मेरे क़ब्ज़े में आया था आमदनी सचमुच बढ़ गई थी। दुकानदारी चमक उठी थी। मेरी बीवी कहती थी कि ये उसी तावीज़ की बरकत है।

    लेकिन मैं उसे महज़ इत्तिफ़ाक़ी अमर समझता था। भला शाहा जैसे आदमी में कोई करामात कहाँ से सकती थी।

    शाहा के दिए हुए पते पर चंद ख़ुतूत लिखे गए जवाब नदारद का मुआमला था, सोचा क़ानूनी चारा जुई की जाये उससे रुपया भले ही मिले शाहा साहिब को परेशानी तो होगी।

    वकील से मश्वरा लेने से पहले मैं बीवी के पास गया।

    बीवी ने मुझे मशकूक नज़रों से देखते हुए कहा, देखते क्या हैं, इस में आयत लिखी होगी कोई।

    मैंने कुछ कहे बग़ैर काग़ज़ खोला यहां तक कि फ़ुल स्केप का पूरा काग़ज़ मेरे सामने था जिनके बीचों बीच ख़ूब मोटे हर्फ़ों में लिखा था, कहिए कैसा बनाया। आपका शाहा।

    ये बात मेरी उम्मीद के मुताबिक़ ही थी। तब मैं बीवी के भोलेपन और तावीज़ की असलीयत पर एक ज़ोरदार क़हक़हा लगाने ही वाला था कि काग़ज़ के एक कोने में कुछ बहुत ही छोटे छोटे और टेढ़े-मेढ़े हर्फ़ दिखाई दिए, लिखा था,

    मैं अपने ख़ुदा से हर रोज़ आपके सुख के लिए दुआ मांगा करूँगी।

    और यकायक मेरा क़हक़हा हलक़ में फंस कर रह गया। मुक़द्दमा चलाने का ख़्याल छोड़कर मैंने तावीज़ बीवी की तरफ़ बढ़ाया तो उसने पूछा, क्या आयत ही लिखी है ना।

    बेशक! मैंने भर्राई हुई आवाज़ में जवाब दिया।

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