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माई जनते

सआदत हसन मंटो

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    स्टोरीलाइन

    इस कहानी में घर में काम करने वाली आया का मालिकों का विश्वास जीतने, उनका शुभ चिंतक बनने और फिर उस विश्वास का दुरूपयोग करने के दोहरे चरित्र को उजागर किया गया है। ख़्वाज़ा करीम बख़्श की मौत के बाद उनकी विधवा हमीदा ने अपनी दो बेटियों की सारी ज़िम्मेदारी माई जनते को दे दी थी। वही लड़कियों के सारे काम किया करती थी। उन्हें कॉलेज ले जाती और लाती। जब उनमें से एक लड़की की शादी हुई तो निकाह के बाद पता चला कि वह उनकी लड़कियों से धंधा भी करवाती थी।

    माई जनते स्लीपर फटफटाती घिसटती कुछ इस अंदाज़ में अपने मैले चिकट में दाख़िल हुआ ही थी कि सब घर वालों को मालूम हो गया कि वो पहुंची है। वो रहती उसी घर में थी जो ख़्वाजा करीम बख़्श मरहूम का था अपने पीछे काफ़ी जायदाद एक बेवा और दो जवान बच्चियां छोड़ गया था।

    आदमी पुरानी वज़अ का था। जूंही ये लड़कियां नौ दस बरस की हुईं उनको घर की चार दीवारी में बिठा दिया और पहरा भी ऐसा कि वो खिड़की तक के पास खड़ी नहीं हो सकतीं मगर जब वो अल्लाह को प्यारा हुआ तो उनको आहिस्ता आहिस्ता थोड़ी सी आज़ादी हो गई। अब वह लुक छुप के नावेल भी पढ़ती थीं। अपने कमरे के दरवाज़े बंद कर के पॉउडर और लिप स्टक भी लगाती थीं। उनके पास विलायत की सी हुई अंगिया भी थीं। मालूम नहीं ये सब चीज़ें कहाँ से मिल गई थीं। बहरहाल इतना ज़रूर है कि उनकी माँ को जो अभी तक अपने ख़ाविंद के सदमे को भूल सकी थी इन बातों का कोई इ’ल्म नहीं था। वो ज़्यादातर क़ुरआन मजीद की तिलावत और पाँच वक़्त की नमाज़ों की अदायगी में मसरूफ़ रहती और अपने मरहूम शौहर की रूह को सवाब पहुंचाती रहती।

    घर में कोई मर्द नौकर नहीं था, मरहूम के बाप की ज़िंदगी में, मरहूम के ज़माने में, ये उनकी पुरानी वज़ा’दारी का सबूत है। आमतौर पर एक या दो मुलाज़िमाएं होती थीं जो बाहर से सौदा सुल्फ़ भी लाएं और घर का काम भी करें।

    दसवीं जमात ख़ुद मरहूम ने अपनी बच्चियों को पढ़ा कर पास कराई थी। कॉलिज की ता’लीम के वो यकसर ख़िलाफ़ थे, वो उनकी फ़ौरन शादी कर देना चाहते थे मगर ये तमन्ना उनके दिल ही में रही एक दिन अचानक फ़ालिज गिरा। इस मूज़ी मर्ज़ ने उनके दिल पर असर किया और वो एक घंटे के अंदर अंदर राहि-ए-मुल्क-ए-अदम हुए।

    बाप की वफ़ात से लड़कियां बहुत उदास रहने लगीं। उन्होंने एक दिन माँ से इल्तिजा की कि वो उन को किसी कॉलिज में दाख़िल करा दें पर जब ज़्यादा इसरार हुआ और उन्होंने कई दिन खाना खाया तो उसने मजबूरन उनको एक ज़नाना कॉलिज में दाख़िल करा दिया।

    माई जनते ने वा’दा किया कि हर रोज़ उनको सुबह कॉलिज छोड़ आएगी। सारा वक़्त वहीं रहेगी और जब कॉलिज बंद होगा तो उन्हें अपने साथ ले आया करेगी। उसने अपनी मालकिन से ये वा’दा कुछ ऐसे पुरख़ुलूस अंदाज़ में किया कि वहीदा बानो मरहूम ख़्वाजा करीम बख़्श की बेवा की ये बेटियां नहीं ख़ुद उसकी जनी हैं।

    उसने बहू-बेटियों को पर्दे में रखने की हिमायत में अपने अंदाज़ में मौलवियों की तरह एक लंबी चौड़ी तक़रीर भी की लेकिन फिर ये कहा, “ता’लीम भी ज़रूरी है कि इस्लाम इससे मना नहीं करता पर देख भाल बहुत ज़रूरी है, जवान जहां हैं, इन पर बड़ी कड़ी निगरानी होनी चाहिए। मैं तो उनके पास कोई मक्खी भी फटकने दूँ। कोई ऐसी वैसी शरारत करेंगी तो वो कान ऐंठूं कि बिलबिला उठेंगी और याद करेंगी किस बुढ़िया से पाला पड़ा है, लेकिन ये क्यों करने लगीं, शरीफ़ ख़ानदान की हैं। रोज़े नमाज़ की पाबंद हैं और बेसमझ भी नहीं नेक-ओ-बद अच्छी तरह समझती हैं।

    दोनों लड़कियों में कोई ज़्यादा फ़र्क़ नहीं था। एक बरस के फ़र्क़ के बाद ही छोटी जिसका नाम नसरीन था, पैदा हुई थी, बड़ी का नाम परवीन था। दोनों ख़ूबसूरत थीं, चेहरे मुहरे से ख़ासी अच्छी। क़द मौज़ूं, शक्ल आपस में काफ़ी मिलती थी। दोनों हर वक़्त इकट्ठी खेलतीं मगर गुड़ियों का ज़माना अ’र्सा हुआ लद चुका था, अब जवानी की शरारतों के दिन थे। कॉलिज में जाते ही उन्होंने पर पुर्ज़े निकाले और इधर उधर उन तितलियों की तरह जिनको किसी फूल की तलाश हो इधर उधर फड़फड़ाना शुरू कर दिया।

    माई जनते साथ होती थी। वो कॉलिज की बूढ़ी चपरासन के साथ उस वक़्त हुक़्क़ा पीती रहती जो पास ही क्वार्टर में रहती थी। दोनों हम-उम्री के बाइ’स बहुत जल्द गहरी सहेलियां बन गई थीं। जब दोनों एक साथ बैठतीं तो उस ज़माने की बातें छिड़ जातीं जब कि वो भी जवान थीं, चपरासन को किसी लड़की से रग़बत या मुहब्बत नहीं थी।

    वो माई जनते को बड़ी पुरानी कहानियां सुनाती, “फ़ुलां सन में एक बैरिस्टर की लड़की को हमल हो गया था जो बड़ी मुश्किल से गिराया गया। प्रिंसिपल साहब को दस हज़ार रुपये रिश्वत के मिले कि उसका मुँह बंद रहे। पार साल एक लड़की जो बड़े ऊंचे घराने की थी, उससे दीनियात के मौलवी साहब को इश्क़ हो गया, चुनांचे मौक़ा पा कर उस लौंडिया को दबोच लिया। पकड़े गए और कॉलिज से दाढ़ी और बुर्क़ा दोनों पुलिस के हाथों में, दाढ़ी तो पाँच साल की क़ैद भुगत रही है। मालूम नहीं उस रेशमी बुर्क़ा का क्या हुआ? बुवा, मैं तो ऐसी बातों में ध्यान ही नहीं देती, मुझे क्या ग़रज़ पड़ी है कि इन कुतियों के कारनामों पर अपना वक़्त ज़ाए करूं।”

    माई जनते ने हुक़्क़े की नय मुँह से अलग कर दी, “न बुवा ऐसी बातें नहीं किया करते, वो क्या कहावत है कि कौन सा शहसवार है जो नहीं गिरा, और वो कौन सा पत्ता है जो नहीं हिला। ख़ुदा तुम्हारा भला करे, हम लोगों को ख़ामोश ही रहना चाहिए और अल्लाह मियां से दुआ करनी चाहिए कि वो किसी की बहू-बेटी को बुरे कामों की तरफ़ ले जाये, उनकी इज़्ज़त आबरू अपने करम से सँभाले रखे।”

    चपरासन उसकी बातों से बहुत मुतास्सिर हुई कि कितनी नेक औरत है... उसको दिल ही दिल में बड़ी नदामत हुई कि उसने इतनी लड़कियों में कीड़े डाले और उनके राज़ इफ़्शा किए। उसने चुनांचे फ़ौरन माई जनते से माफ़ी मांगी और कानों को हाथ लगाया कि आइन्दा वो ऐसी बातों से दूर ही रहेगी। किसी लड़की के बारे में उसे कुछ पता भी चल गया तो वो अपनी ज़बान बंद रखेगी।

    माई जनते ने उसे बड़ी शाबाशियां दीं इतने में कॉलिज छूट गया, उसने परवीन और नसरीन को साथ लिया और गेट से बाहर जा कर उसने उनसे कहा, “आज तुम्हें शाम को यहां नहीं आना पड़ेगा?”

    परवीन ने जवाब दिया, “हमें तो किसी ने नहीं कहा।”

    “असल में तुम दोनों बहुत बेवक़ूफ़ हो... ध्यान से हर बात सुना करो, मैं तुम्हें किसी से पूछ कर बता दूंगी।”

    घर पहुंच कर माई जनते ने उनके लिए चाय तैयार की और बड़ी फुर्ती से मेज़ पर लगा दी। फिर वो उनकी माँ के पास अपनी प्याली लेकर बैठ गई और चपरासन से जो बातें उसकी हुई थीं, मिन-ओ-अ’न सुना दीं। उसने आख़िर में उसको मशवरा दिया कि, “पैदल आना जाना ठीक नहीं, मेरा ख़याल है आप किसी टांगे का बंदोबस्त कर दें तो ठीक रहे, पैदल चलो तो कोई गुंडा कंधा ही रगड़ दे, बेटियों के साथ।”

    माई जनते का ये मशवरा बड़ा मा’क़ूल था, चुनांचे तांगे का बंदोबस्त दूसरे ही रोज़ हो गया। माई जनते ने एक तांगे वाले से महीने भर का किराया तय कर लिया।

    दूसरे तीसरे रोज़ अपनी मालकिन वहीदा बानो को ये ख़बर सुनाई कि पड़ोस में दीवार के साथ जो जगह ख़ाली हुई थी, उसमें नए किरायादार आन बसे हैं।

    वहीदा बानो ने पूछा, “कौन लोग हैं?”

    “जाने हमारी... होंगे कोई ऐरे ग़ैरे नत्थू ख़ैरे, मैंने तो किसी से पूछा नहीं।”

    एक दिन दूसरी तरफ़ से कोठे पर से किसी शख़्स ने ऐसे ही झांक कर उनके सहन में देखा... एक हंगामा होते होते रह गया।

    माई जनते कहीं बाहर गई थी, वहीदा बेगम ने फ़ौरन किवाड़ की ओट में खड़े हो कर मुहल्ले के एक छोटे से लड़के को बुलाया और कहा, “अगर पड़ोस वाले मकान में जो नए किराएदार आए हैं उनमें कोई औरत हो तो उनसे कहो, आपकी हमसाई बेगम साहिबा आपसे दरख़्वास्त करती हैं कि दो घड़ी के लिए तशरीफ़ ले आईए, बड़ी मेहरबानी होगी।”

    लड़का पैग़ाम ले कर चला गया। कोई आधे घंटे के बाद दरवाज़े पर दस्तक हुई, परवीन और नसरीन अपने कमरे में पढ़ रही थीं, इसलिए उसने ख़ुद दरवाज़ा खोला। दहलीज़ पर एक सफ़ेद बुर्क़ापोश ख़ातून खड़ी थी। उसने बड़े मुलायम लहजे में वहीदा बेगम से पूछा, “क्या आप ही ने मुझे याद फ़रमाया है?”

    वहीदा बेगम ने जवाब दिया, “जी हाँ, तशरीफ़ ले आईए।”

    वो अन्दर चली आई। दोनों बाहर बिछे हुए तख़्त पर बैठ गईं। वहीदा बेगम की समझ नहीं आता था कि वो गुफ़्तगू का आग़ाज़ कैसे करें। दोनों चंद लम्हात एक दूसरे की शक्ल सूरत और कपड़े लत्तों का जायज़ा लेती रहीं, आख़िर हमसाई ही ने मुहर-ए-ख़ामोशी तोड़ी और पूछा, “फ़रमाईए, आपने मुझे दौलत ख़ाने में कैसे बुलाया?”

    इस पर वहीदा बेगम को अपनी शिकायत के इज़हार का मौक़ा मिल गया और उसने बड़ी बुर्दबारी और तहम्मुल से सुबह का हादसा बयान कर दिया और पूछा, “वो कौन साहबज़ादे हैं जो इस तरह पराए घर में ताक झांक करते हैं?”

    “मेरा लड़का है बहन, वो तो ऐसा नहीं, बड़ा शर्मीला है, चूँकि हम नए नए उठ कर यहां आए हैं, इसी लिए उसने कोठे पर चढ़ के देखा होगा कि आस पास क्या होगा? वैसे मैं उसको मना कर दूंगी कि ख़बरदार, तुमने इधर क्या किसी भी तरफ़ नज़र उठा कर देखा। बड़ा बरखु़र्दार लड़का है, ज़रूर मेरे हुक्म की ता’मील करेगा। मैंने अगर उसके बाप से आप की शिकायत की तो वो तो उसको मार मार के खाल उधेड़ देंगे, बड़े सख़्तगीर हैं वो इस मुआ’मले में, वैसे मुझे अफ़सोस है।”

    “नहीं, मैंने सिर्फ़ आपके कानों तक ये बात पहुंचाई थी कि बदमज़गी हो...” ये कह कर वहीदा बेगम उठी और पुकारी, “परवीन, नसरीन इधर आओ ज़रा।”

    दोनों लपक कर बाहर निकलीं लेकिन एक नादीदा औरत को देख कर ठिठक गईं। दुपट्टे के बग़ैर फ़ौरन अंदर भागीं और दुपट्टे ओढ़ कर बाहर आईं। नौ-वारिद औरत को झुक कर सलाम किया और अपनी माँ से पूछा, “क्यों अम्मी जान?”

    वहीदा बेगम ने अपनी हमसाई से अपनी बेटियों को मुतआ’रिफ़ कराया, उसने उनको लाख लाख दुआएं दीं और उनकी ख़ूबसूरती की बड़ी तारीफ़ की कि माशा अल्लाह चंदे आफ़ताब चंदे माहताब, फिर उस ने कहा, “मेरा सलीम बिल्कुल इन्ही की तरह शरीफ़ और शर्मीला है।”

    चंद दिनों ही में वहीदा और हमसाई जिसका नाम नाज़ली बेगम था बड़े गहरे मरासिम हो गए। वहीदा बेगम उनके यहां नहीं जाती थी। उसने नाज़ली बेगम से कहा, “मैं सर आँखों पर आती, सौ सौ दफ़ा आती पर जबसे ख़्वाजा साहब का इंतक़ाल हुआ है कि मैंने दिल में क़सम खा ली थी, इस घर से बाहर एक क़दम रखूंगी... बहन, देखो ख़ुदा के लिए मजबूर करना।”

    इस असना में कॉलिज में शाम कई फंक्शन हुए, कभी कोई मुबाहिसा है कभी लैन्डन शो है, कभी मुशायरा। कभी कुछ कभी कुछ। परवीन और नसरीन दोनों उन प्रोग्रामों में शामिल होती थीं, मगर माई जनते साथ होती और उनको ले कर ब-हिफ़ाज़त वापस घर आती, ख़्वाह जल्दी ख़्वाह देर से।

    ईद से चार रोज़ पहले सलीम वापस आया, साथ उसके उसका बग़ली दोस्त क़ादिर था। नाज़ली बेगम ने उसको मुंदरजा बाला वाक़िया के बाद जब उसने इत्तफ़ाक़न वहीदा बेगम के सहन को एक नज़र देख लिया, गुजरांवाला भेज दिया था, जहां उसके वालिद की आबाई अज्दाद-ओ-इमलाक थीं।

    उसने अब उसे ख़त लिख कर बुलाया था कि ईद से पहले पहले यहां लाहौर चले आओ, वो गया और साथ अपने जिगरी दोस्त को भी ले आया। घर में उसे सब जानते थे इसलिए कि वो इकट्ठे स्कूल और कॉलिज में पढ़े। यहां लाहौर में उठ आने की सिर्फ़ एक वजह थी कि सलीम के वालिद उसके लिए अपने असर-ओ-रसूख़ से कोई अच्छी मुलाज़मत तलाश करना चाहते थे।

    दूसरे रोज़ शाम को क़ादिर ने सलीम से कहा, “चलो यार आज अय्याशी करें, गुजरांवाला में क्या पड़ा है?”

    सलीम ने पूछा, “अय्याशी कैसी?”

    क़ादिर मुस्कुराया, “तुम तो निरे खरे चुग़द, चलो आओ बाहर तुम्हें बताता हूँ, देखेंगे क़िस्मत में क्या लिखा है।”

    दोनों दोस्त चले गए, इतने में वहीदा बेगम के पास उसकी हमसाई आई। उसने इधर उधर की बातों के बाद अपना हर्फ़-ए-मुद्दआ बयान कर दिया कि वो अपने सलीम के लिए नसरीन का रिश्ता मांगने आई है।

    ज़्यादा हील-ओ-हुज्जत कोई भी हुई। वहीदा उन लोगों के अख़लाक़ से बहुत मुतास्सिर हुई। चंद रस्मी बातें हुईं, इसके बाद दोनों रज़ामंद हो गईं कि उनका निकाह ईद की तक़रीब-ए-सईद पर हो जाये और रुख़्सती एक माह के बाद।

    रात को सलीम देर से आया मगर उसकी माँ ने कोई बाज़पुर्स की क्योंकि वो ख़ुश थी कि इतनी जल्दी उसके बेटे की शादी का मुआ’मला नसरीन ऐसी हसीन-ओ-जमील और बा-हया लड़की से तय पा गया। उसने चुनांचे सलीम को ये ख़ुश ख़बरी सुना दी। वो भी बहुत ख़ुश हुआ, तजर्रुद की ज़िंदगी और बेकारी से वो तंग गया था, उसने सोचा रुपया-पैसा बाप के पास काफ़ी है, क्या परवाह है, मुलाज़मत की फ़िक्र होती रहेगी।

    उसका दोस्त वापस गुजरांवाला चला आया, इसलिए कि उसने ईद अपने घर मनाना थी। सलीम ने अपनी माँ से कहा, “देखिए अम्मी जान, मैंने आप की बात कितनी जल्दी मान ली, अब आप मेरी मानिए।”

    उसकी माँ ने पूछा, “क्या बेटा!”

    “मुझे नसरीन की एक झलक दिखा दीजिए, ख़्वाह वो दूर ही से क्यों हो।” उसके लहजे में इल्तिजा थी, “मेरा ख़याल है कि वो इनकार करें तो उसका कोई फ़ोटो ही दिखा दीजिए... आख़िरी वो कल या परसों मेरी होने वाली है।”

    उसकी माँ को सलीम की ये दरख़्वास्त नापसंद हुई, “मैं पूरी कोशिश करूंगी बेटा।”

    ईद गई मगर तस्वीर ना आई... लेकिन सलीम ने किसी ख़फ़गी का इज़हार किया। निकाह की रस्म बख़ैर-ओ-ख़ूबी ख़त्म हो गई। जब वो बाहर निकला तो उसकी माँ ने किवाड़ ज़रा सा खोला और उसको आवाज़ दी, वो ठहर गया, हाथ बाहर निकाल कर उसने सलीम से कहा, “ये लिफ़ाफ़ा ले लो, देखो, मैंने अपना वा’दा पूरा कर दिया है।”

    सलीम समझ गया... आस पास कोई भी नहीं था, उस में ताब-ए-इंतिज़ार कैसे होती। उसने लिफ़ाफ़ा वहीं खड़े खड़े खोला। धड़कते हुए दिल से तस्वीर बाहर निकाली। इधर उधर देखा और तस्वीर पर पहली नज़र डाली। उसका रंग हल्दी की तरह ज़र्द हो गया। तस्वीर उसके काँपते हाथों से गिर पड़ी। इतने में सामने वाला दरवाज़ा जिसमें से उसकी माँ ने हाथ निकाला था, खुला और बुढ़िया निकली। सलीम ने उसको हैरतज़दा आँखों से देखा, “माई! तुम यहां कैसे पहुंच गईं? तो उस रात तुम ही...”

    उसने इससे और ज़्यादा कुछ कहा और तस्वीर ज़मीन ही पर छोड़ कर तेज़ क़दमों से अपने एक दोस्त डाक्टर जमील के पास गया और सारी बात बता दी। जमील ने उसको हस्पताल में दाख़िल करा दिया जहां उसके झूट मूट के मर्ज़ का ईलाज होता रहा। आख़िर डाक्टर जमील ने सलीम के वालिद को बुला कर तख़लिए में कहा कि, “ये शादी हो, आपका लड़का औरत के क़ाबिल नहीं है।”

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