यमबरज़ल
इस अंजाम का ख़द्शा सबको था मगर इसकी तवक़्क़ो किसी को नहीं थी। माँ उसपर यक़ीन करने को तैयार नहीं थी। बाप उसे क़बूल नहीं कर पा रहा था। यावर ऐसा सोच भी नहीं सकता था। और अनीक़ा...
निकी बाजी... ये अलजेब्रा मुझे ज़रूर फ़ेल करेगा... यूसुफ़ ने फिरन के अंदर से आग भरी काँगड़ी बाहर निकाल कर सब्ज़ गुल बूटों वाले सुर्ख़ क़ालीन के ऐन दरमियान रख दी।
हमसे तो ये न होगा... न हम पास होंगे। वो लांबी-लांबी उंगलियों से आढ़ी मांग के दोनों अतराफ़ कँघा करने लगा और गर्दन उचका कर दीवार में लगे बड़े से आईने में अपना चेहरा देखने की कोशिश करते हुए गुनगुनाने लगा।
चोप... चोप... निकी की ख़ास कोशिश के बाद भारी बनाई हुई आवाज़ गूँजी।
चुपचाप बैठे रहो... काँगड़ी उठा कर किनारे नहीं रख सकते तुम यूसुफ़, किसी की ठोकर लग गई... तो...?
निकी बाजी, यूसुफ़ भाई तो ख़्वा-मख़्वाह काँगड़ी गोद में उठाए फिरते हैं... अब ऐसी सर्दी तो है नहीं। अब्बू ने इस कमरे में इसी लिए बुख़ारी नहीं लगाई कि हम सब चुस्त रहेंगे और पढ़ने में मसरूफ़ रहेंगे... ख़ूब सारे कपड़े पहन कर कहाँ लगती है सर्दी... काँगड़ी फिरन के अंदर ठूँस कर जमाइयाँ लेते रहते हैं... जब देखो... ख़ाक पढ़ेंगे...?
यावर ने किताब पर झुका सर उठा कर निकी के चेहरे पर अपनी तरफ़ से बड़ी अहम बात कह कर रद्द-ए-अमल जाँचने की कोशिश की और एक नज़र आईने में यूसुफ़ के अक्स को देख कर नथुने सुकेड़े फिर अब्रू ऊपर को खींचे और दाँत निकोस कर बग़ैर आवाज़ हँसा और किताब पर ऐसी उजलत से झुका जैसे बहुत ज़रूरी सबक़ अधूरा छोड़ना पड़ा हो।
आपसे किसने राय माँगी थी... निकी ने आवाज़ में भरा हुआ रोब ज़रा कम करके कहा।
आप अपना काम कीजिए... वो बोली।
इधर लाओ किताब यूसुफ़... अभी तो समझाया था ये सवाल तुम को...
निकी ने लंबा सा रजिस्टर और किताब अपनी तरफ़ सरकाए तो यूसुफ़ फ़र्श पर कुहनियों के बल लेट गया और रजिस्टर पर नज़रें गाढ़ दीं।
ऊपर उठो यूसुफ़... सोने की तैयारी मत करो ना... मेरा भी कल पेपर है... प्लीज़...
निकी फ़ौरन दुबली-पतली सी बारीक आवाज़ वाली लड़की बन गई। और यूसुफ़ जैसे कि होश में आ गया।
ओह... Sorry निकी बाजी... एक बार और कोशिश करता हूँ...
यूसुफ़ ने रजिस्टर और किताब अपनी तरफ़ सरकाए। कुछ लम्हे निकी की तरफ़ देखता रहा। गुलाबी जिल्द वाला किताबी चेहरा। लंबी सी आँखों पर छोटा सा बग़ैर फ़्रेम का चश्मा। रुख़सार पर कान के पीछे से आने वाले बालों की एक पतली सी लट और कान में छोटी सी सुनहरी बाली। दूसरी बाली इस ज़ाविए से नज़र नहीं आती थी। बाक़ी बाल सर के पीछे की तरफ़ मोटे से सियाह हेयर बैंड में फँसे थे। दूध ऐसी सफ़ेद गर्दन पर दो एक लाजवर्दी नसें। और गर्दन के साथ लगा सियाह रंग के स्वीड के मोटे से कपड़े पर बग़ैर कढ़ाई के कॉलर वाले फिरन का बंद ज़िप। कलाई तक आती हुई आस्तीन में से झाँकते नाज़ुक हाथ में क़लम। सामने कई किताबें और कापियाँ बिखरी हुईं।
क्या सोच रहे हो अब... तुम। निकी ने उसे कुछ पल लगातार देख कर पूछा।
नहीं... कुछ नहीं निकी बाजी... वो जल्दी से बोला और किताब पर झुक गया। निकी ने दीवार से टेक लगा दी और तलवे फ़र्श पर रख कर मोड़े हुए घुटनों पर किताब फैला दी।
तीनों सर किताबों पर झुक गए।
निकी यावर की बड़ी ख़ाला तबस्सुम बेगम की इकलौती औलाद थी। यावर की माँ तनवीर बेगम की लाडली भाँजी, जो कुछ दिन अपनी ख़ाला के यहाँ रहने आई थी। बल्कि उसकी मौजूदगी में उसका ख़ाला ज़ाद भाई यावर भी पढ़ने के मामले में ज़रा संजीदा हो जाया करता था। वो जमाअत शशम का तालिब इल्म था। निकी ग्यारहवीं दर्जे की तालिबा थी। कुछ महीनों पहले तनवीर बेगम अपने जेठ के बेटे यूसुफ़ को भी अपने यहाँ ले आई थीं कि वो कुछ शरारती वाक़े हुआ था और तनवीर चची से ब-निस्बत अपने वालिदैन के ज़ियादा मानूस था।
निकी बाजी आप ख़ुद तो पढ़ नहीं रहीं... यूसुफ़ ने सर ज़रा ऊँचा करके निकी की नोट बुक देखने की कोशिश की।
शायरी कर रही होंगी निकी बाजी। यावर ने बग़ैर सर उठाए कहा।
तुम लोग मेरे उस्ताद हो या मैं तुम्हारी। चुपचाप अपना काम करो... वरना एक-एक थप्पड़...
आज तो आप यूसुफ़ भाई के एक थप्पड़ जड़...
चुप बे,एक थप्पड़ के बच्चे... निकी बाजी सिर्फ़ धमकाती हैं... मारेंगी थोड़े ही...
अब जिसने बात की ना... तो सारी धमकियाँ सच हो जाएंगी। समझे तुम लोग... इतना अच्छा शे'र हुआ है... मगर तुम लोग सोचने की मोहलत दो तो ना...
तो सुना दीजिए ना निकी बाजी... प्लीज़... वरना यूसुफ़ भाई बड़े ख़ालू से कह देंगे...
यावर अपना छोटा सा गोरा हाथ होंटों पा रख कर हँसा। निकी ने उसकी तरफ़ नथुने फुला कर और आँखें सुकेड़ कर देखा फिर दाँत भिंचे। शहादत की उँगली नाक पर रखी और आवाज़ भारी करके खँखारा की।
ख़ामोश... उसने सर झटक कर कहा और तीनों खिलखिला कर हँस पड़े।
निकी ने ताज़ा-तरीन शे'र सुनाया और यावर ने हाथ लहरा-लहरा कर दाद दी:
छोड़ जाने से पहले, तसव्वुर तिरा
है मुझे भी बताना कहाँ छोड़ना
वाह निकी बाजी, ये उसी ग़ज़ल का शे'र है ना... जो आपने कल सुनाई थी...
हाँ उसी का... और सुनाई नहीं पढ़ी, कहा जाता है। निकी ने यावर को समझाया। यूसुफ़ ने निकी की आँखों में देखा।
हाँ...
इससे पहले, पड़े ये जहाँ छोड़ना
वक़्त की रेत पर कुछ निशाँ छोड़ना
और तरन्नुम से शे'र पढ़ा।
तुम समझदार हो... वरना लोग तो शे'र का तमाशा बना देते हैं।
निकी ने तिरछी नज़र से यूसुफ़ को देखा और यावर का गाल थपथपा कर कहा,
अल्लाह... इतनी संजीदगी से दाद दी... यूसुफ़ ने चेहरे पर ख़फ़गी के आसार तारी करने की कोशिश की।
यावर और यूसुफ़ दोनों चचा-ज़ाद भाई थे इसलिए सूरतों में मुशाबहत मुमकिन थी मगर उन दोनों के चेहरे काफ़ी हद तक एक से थे। सियाह घुंघरियाले बाल, सुर्ख़ व सफ़ेद रंगत, मुतनासिब दाँत और नीली-नीली पुतलियाँ। दो चीज़ें अलबत्ता अलग थीं कि यूसुफ़ का क़द यावर से कोई दो फ़िट ज़्यादा था बल्कि वो तो निकी से भी फ़िट भर लंबा था और दूसरे उसकी मूँछें उग आई थीं और कहीं-कहीं दाढ़ी भी।
उस दिन शहर के सबसे बड़े चौक में बम फटा था। कुछ फ़ौजी जवान ज़ख़्मी हुए थे। कुछ इमारतें जली थीं। हर रोज़ इसी तरह का कुछ-न-कुछ हुआ करता था। सुकून की लै पर बहते वक़्त में कुछ ऐसा इंतिशार उठा कि आठों पहर उथल-पुथल हो गए।
यूसुफ़ निकी को घर छोड़ने जा रहा था। उसके घर को मुड़ने वाले मोड़ पर धुआँ उड़ता दिखाई दिया। लोग बे तहाशा इधर-उधर भाग रहे थे। चौड़ी सड़क की दूसरी जानिब बस्ती थी और उस तरफ़ क़ब्रिस्तान। दूर से बकतर बंद गाड़ियों की आवाज़ें आ रही थीं। लोग तेज़ी से सड़क पर से ग़ायब हो रहे थे। गोलियों की आवाज़ें उनका तआक़ुब कर रही थीं।
भागते हुए लोगों में से एक मालूम नहीं कैसे गिर गया। उसके पीछे से आ रही फ़ौजी गाड़ी में से फ़ायरिंग हो रही थी। यूसुफ़ ने एक लम्हे के किसी हिस्से में देखा कि गिरे हुए आदमी के बिल्कुल क़रीब कौंदा सा लपका था और गोली चलने की आवाज़ आई थी। फिर सड़क पर गिरा आदमी कोई फ़िट भर उछला और दोबारा सड़क पर आ रहा। यूसुफ़ सड़क के किनारे की तरफ़ भागा।
उसने मज़बूती से निकी का हाथ थाम रखा था।
ये सब निकी ने भी देखा था।
सड़क का किनारा ख़त्म होते ही ढलान शुरू हो जाती थी। वो दोनों चंद क़दम और नीचे को भागे और मुंडेर के साथ लग गए। निकी ने होंटों पर हाथ रखा था। हिचकियाँ उसके सीने में घुट रही थीं। वो चीख़ना चाहती थी। यूसुफ़ ने उसके शाने पर हाथ रख कर उसे अपने साथ ज़मीन पर बिठा दिया।
कई मिनटों तक वो दोनों हाँपते रहे। फिर माहौल पर सुकूत तारी हो गया।
निकी ने आँखें बंद कर लीं और सर पीछे को टिका दिया। रफ़्ता-रफ़्ता उनकी साँसें मामूल पर आ गईं। यूसुफ़ ने देखा कि सामने वसीअ-ओ-अरीज़ क़ब्रिस्तान के अहाते में कुछ क़ब्रें हैं और बेशुमार नरगिस के फूल खिले हैं।
निकी बाजी... आपकी रंगत बिल्कुल यम्बरज़ल जैसी है। यम्बरज़ल के फूलों जैसी है। अगर आपका नाम यम्बरज़ल होता तो बहुत अच्छा लगता। जिसे ये लफ़्ज़ समझ में न आता वो आपको नरगिस बुला सकता था... है ना...? यूसुफ़ साकित बैठा सामने देखते हुए सरगोशी में बोला। निकी ने फ़ौरन आँखें खोल दीं और बाएँ जानिब गर्दन मोड़ कर उसे हैरत और उदासी से देखा।
तुम्हें मौत के सन्नाटे में ज़िंदगी की बातें कैसे सूझती हैं यूसुफ़? वो बेबस सी हो कर बोली।
कितने क़रीब तो हैं दोनों... ज़िंदगी और मौत... देखा नहीं आप ने...
उसने आहिस्ते से कहा। मुंडेर की उस तरफ़ सड़क पर कोई आहट हुई तो यूसुफ़ ने सर ज़रा सा ऊपर उचका कर देखा... सड़क पर गिरा आदमी उठ गया था और लँगड़ाता हुआ दूसरी तरफ़ जा रहा था। उसने एक हाथ से दूसरा कंधा थाम रखा था।
वो देखिए... वो देखिए निकी बाजी... मैंने सच कहा था ना... यूसुफ़ बोला तो निकी ने झाँक कर देखा।
अल्लाह... तेरा शुक्र... तो फिर वो... ये... वो गोली? वो अपने गले के क़रीब हाथ रख कर बोली।
उसके बाज़ू में लगी होगी... शाने में... वो बोला।
दोनों मुंडेर से लगे बैठे रहे।
निकी बाजी... ऐसा नहीं लगता जैसे मौत का सुकून से कोई गहरा रिश्ता हो। जैसे मौत ही सुकून का दूसरा नाम हो... ज़िंदगी, मौत और सुकून... सबका मफ़हूम एक हो गया हो... इस वक़्त ऐसा नहीं लग रहा। उसने निकी की तरफ़ गर्दन मोड़ कर कहा।
हाँ... शायद... निकी ने कुछ तवक़्क़ुफ़ से कहा और सामने देखती रही।
निकी बाजी... उसने कहीं दूर से पुकारा, हालांकि वो दोनों साथ लगे बैठे थे।
हूँ... वो बग़ैर लब वा किए बोली।
अगर इस वक़्त कोई हमपर बंदूक़ तान दे तो...?
तो...? क्या? उसने गर्दन मोड़ कर यूसुफ़ के चेहरे को देखा।
तो हमें जान बचाने के लिए भागना चाहिए क्या। यूसुफ़ ने पुर सुकून लहजे में कहा।
कई लम्हे ख़ामोशी में गुज़र गए।
नहीं... कुछ देर बाद निकी ने उसी लहजे में जवाब दिया और कुछ और पल उसके चेहरे को देखती रही। फिर एक लंबी साँस भर कर सर पीछे टिका दिया। दोनों के होंटों पर एक अबदी सी मुस्कुराहट फैल गई।
जब आगे पीछे नतीजा आया तो निकी चोरी छुपे शे'र कहने के बावजूद बहुत अच्छे नंबर लाई। यावर के भी अच्छे नंबर थे। यूसुफ़ बस पास हो गया।
अच्छी तरह तो हल कर लेते थे तुम सारे सवालात फिर हिसाब में कम Marks क्यों आए... इसी लिए डिवीज़न अच्छी नहीं आई। अब तुम्हें तुम्हारी पसंद के मज़ामीन नहीं मिलेंगे। अब पढ़ना... समझे। निकी ने उसका कान धीरे से पकड़ा और छोड़ दिया। मुतालेए का कमरा दोबारा आबाद हो गया था।
Maths के पर्चे के दौरान आपकी बहुत याद आई निकी बाजी... वो आख़िरी पर्चा था ना... आप उससे पिछली शाम को घर जा चुकी थीं तो मैं... मैं ... उसने सर झुका लिया। उल्टे हाथ पर टप से एक आँसू गिरा।
तीन-चार साल से लगातार चलता आ रहा तनाव। इस साल भी ज़ोरों पर था। हर खित्ता-ए-ज़मीं की तरह इस वादी ने भी अपने हिस्से के उतार चढ़ाव झेले थे।
चाहे हज़ारों बरस राज करने वाले हिन्दू राजाओं के दौर में या तुलूअ इस्लाम के बाद एक ही ख़ानदान के सलातीन कश्मीर की सैंकड़ों बरस की हुकूमत में, या फिर सुल्तान ज़ैन उल आबदीन के बाद ख़ाना जंगियों से निजात दिलाने वाले चक बादशाहों के दौर में, हर बदलते मंज़र नामे ने तारीख़ के पन्नों पर सुर्ख़ हाशिए खींचे। मगर इस बार एक अजीब सी बेचैनी थी जो किसी तरह क़रार नहीं पा रही थी... और ज़िंदगी फिर भी रवाँ थी।
इस बार सब मेहनत करेंगे... ख़ुद मेरा बारहवीं का Exam है... और वो भी साइंस... मामाँ सुनती ही नहीं मेरी बात... मुझे भी मेहनत करना है बहुत...
निकी ने नाक सुकेड़ कर गर्दन टेढ़ी करके कहा।
आप डॉक्टर बनेंगी... निकी बाजी...? यूसुफ़ धीमी आवाज़ में बोला।
और क्या... सब ही पीछे पड़े हैं मेरे... मैं तो आर्ट्स पढ़ना चाहती हूँ... चाहती थी...
और? मैं... क्या करूँगी निकी बाजी...? उसकी आवाज़ में अफ़सुर्दगी सी थी।
उसने बाल प्वाइंट का पिछला हिस्सा दाँतों में दबा रखा था और झुके हुए सर और उठी हुई नज़रों से निकी के चेहरे को देख रहा था।
तुम कुछ अच्छे मार्क्स लाते तो तुम्हारा एडमिशन कॉमर्स में तो हो ही जाता... अब भी अगर तुम मेहनत करो और अगले साल बारहवीं में अच्छे नम्बरात ले आओ तो कॉलेज में तुम कॉमर्स ले सकते हो। फिर MBA वग़ैरा करके तुम्हारा करिअर...
मैं वैसे भी अब्बू का सारा कारोबार संभालने वाला हूँ... वो जैसे बे-ख़्याली में बोला।
मगर Qualified हो कर संभालोगे तो पढ़े-लिखे कहलाओगे... सबकी नज़रों में... तुम मेहनत करना ना...
निकी उसके चेहरे की तरफ़ देखती रही। फिर क़लम उसके मुँह से निकाल कर उसके हाथ में दे दिया।
वरना फिर... जाने निकी बाजी कहाँ हों... और आप कहाँ हों।
यावर ने परेशान से लहजे में दोनों को बारी-बारी देख कर कहा... दोनों उसे ख़ामोश देखते रह गए। वो दोबारा अपनी नोट बुक पर झुक गया तो उन दोनों ने एक दूसरे की जानिब देखा। कुछ सेकंड या कुछ मिनट यूँ ही गुज़र गए। फिर निकी सर झुका कर अपनी किताब को देखने लगी।
मैं मेहनत करूँगा... निकी बाजी...
यूसुफ़ ने ख़ाली-ख़ाली सी आवाज़ में कहा।
यूसुफ़ भाई बोल तो ऐसे रहे हैं जैसे कह रहे हों मैं मेहनत कैसे करूँ निकी बाजी... मेरे पास अच्छे कामों के लिए वक़्त ही कहाँ है।
बाहर शोर मचाती हुई हवा चलने लगी। बरामदे की तरफ़ खुलने वाले भूरे रंग के दरवाज़े पर टैपिस्ट्री का सफ़ेद और भूरी बेलों वाला पर्दा फूल कर कुप्पा हो गया।
क्यों नहीं करेंगे... मेहनत... वो खोये हुए लहजे में बोली।
और क्या। जाने हर वक़्त क्या सोचते रहते हैं... जानती हैं निकी बाजी... पिछले साल Exam के दिनों में बग़ैर पढ़े पास हुए हैं ये... आप तो सोने चली जाती थीं... ये मेरे साथ यहीं पढ़ते थे ना। पढ़ते क्या थे बस... यूँ ही... एक दिन आधी रात तक आपका Side Pose बनाने की नाकाम कोशिश करते रहे... नहीं बना पाए तो काग़ज़ फाड़ कर थोड़ा सा रोए। इसके बाद किताब हाथ में ली। उसे ग़ौर से देखना शुरू ही किया था कि... सो गए... हा हा... ही ही ही...
इस दौरान निकी चुपचाप नोट बुक की वरक़ पलटती रही। उसने दफ़्अतन बालकनी की तरफ़ देखा।
आज बर्फ़ गिरेगी... यावर... ये दोनों तकिये दरवाज़े के साथ लगा दो... उफ़ कितनी ज़ोरों की हवा चल रही है।
पर्दा फूलता है तो अलादीन का जिन लगता है। है ना... यूसुफ़ भाई।
उस रात झील डल में वाक़ेअ दो जज़ीरों में से एक जज़ीरे के बीच ईस्तादा चार चिनारों के दरमियान देवदार की लकड़ी के ख़ूबसूरत रेस्तराँ में किसी ने आग लगा दी थी। सड़क के उस पार सरकारी मिडल स्कूल की इमारत भी जल रही थी।
कर्फ़्यू लगा रहा तो कहीं हमारे Exams अब Postpone ही न हो जाएं। यूसुफ़ ने किताब को देखते हुए कहा।
यूसुफ़ भाई, आपकी आवाज़ से कोई अंदाज़ नहीं लगा सकता कि आपको तश्वीश हो रही है या आप उम्मीद कर रहे हैं... यावर ने बग़ैर सर ऊपर किए कहा। यूसुफ़ हल्के से मुस्कुरा दिया था और निकी कुछ ऊँची आवाज़ में हँसी तो उसकी यूसुफ़ के ज़ाविए से नज़र आने वाले कान की बाली झिलमिल करती हिलने लगी। फिर उसने सर झुका लिया।
ऐसे तो वक़्त ज़ाएअ होगा... निकी ने कहा और कुछ फ़िक्रमंद सी नज़र आने लगी।
कुछ दिन और पढ़ लेंगे ना... यूसुफ़ ने आहिस्ते से कहा।
बाहर एक ज़ोर का धमाका हुआ और ऊपर टीन की छत के नीचे, पुते हुए फ़र्श पर मशरिक़ की तरफ़ खुलने वाली खिड़की के दो शीशे छनाक से टूट कर गिरे। नीचे कमरे में तीनों तालिब इल्मों ने बयक-वक़्त ऊपर सीलिंग की तरफ़ देखा। लकड़ी के यकसाँ जसामत के छोटे-छोटे टुकड़ों से जोड़ कर बनाए गए बे शुमार दायरों वाली हश्त पहलू ख़त्म बंद सीलिंग पर भूरे रंग का वार्निश हल्का सा चमक रहा था।
छत पर शीशा टूटा है कोई... यावर सीलिंग की तरफ़ देखता रहा।
किसी ने खिड़की खुली रख छोड़ी होगी... उसने यूसुफ़ की तरफ़ देखा।
बता दूँ क्या... यूसुफ़ भाई... निकी बाजी को... यावर ने कहा तो यूसुफ़ के चेहरे का रंग पल भर को बदला। और फिर उसने वापस अपने चेहरे पर नॉर्मल से तास्सुरात लाते हुए खिड़की के शीशे से बाहर नज़र जमा दीं। जहाँ सफ़ेदे के दरख़्तों की चोटियाँ नज़र आ रही थीं, जिन्होंने हरियाली झटक कर बर्फ़ ओढ़ ली थी।
दरख़्त ऐसे नहीं नज़र आ रहे जैसे मुर्दे कफ़न ओढ़ कर खड़े हो गए हों। यूसुफ़ ने क़हक़हा लगाया।
बात क्यों टाल रहे हैं यूसुफ़ भाई... छत की पिछली खिड़की के पास अभी भी कुर्सी पड़ी है... जिसपर बैठ कर जनाब चाँद को देख-देख कर... सिगरेट... यावर ने निकी की तरफ़ देखा।
सिगरेट... निकी काँप सी गई। यूसुफ़ ने मुजरिमों की तरह सर झुका लिया और हाथ में पेन लिए किताब के छपे हुए हिस्से के अतराफ़ स्केच बनाता रहा। किनारों के क़रीब अभी काफ़ी जगह बची हुई थी जहाँ वो मज़ीद कुछ चीज़ें बना सकता था।
प्रॉब्लम क्या है तुम्हारी... यूसुफ़...? निकी ने माथे पर बल डाल कर कहा। उसके लहजे में ग़ुस्से से ज़्यादा हैरत और बेचारगी अयाँ थी।
अगर आप मुझसे छोटी होतीं निकी बाजी तो क्या डांटतीं मुझको...? ये भी तो एक प्रॉब्लम है। मैं अगर आपसे बड़ा होता तो मेरा Future पहले तै हो जाता... और... और... यूसुफ़ की बात अधूरी रह गई कि नए आए मुलाज़िम ने हथेली से ज़ोर-ज़ोर से किवाड़ खटखटाया।
बीबी जी खाने के लिए बुलाता... वो बड़ी बशाशत से टूटी-फूटी उर्दू बोला।
तो क्या होता मुस्तक़बिल का पता चल जाने से... निकी ने गर्दन ख़म की।
अस्ल में निकी बाजी, इनको लग रहा है कि आप आगे-आगे भाग रही हैं और ये पीछे भागते हुए गिर-गिर कर उठ रहे हैं... आप Distinction ला रही हैं और ये ब-मुश्किल पास हो पाते हैं... ख़ुदा-ना-ख़ासता कहीं फ़ेल हो गए... तो... फिर...
तो फिर... और छोटा हो जाऊँगा आप से... मैं... मैं... मेरा दिल... ही नहीं लगता... पढ़ने में...
अब ज़्यादा फ़ल्सफ़ा मत झाड़ो .. पिछले साल 10th तक तो अव़्वल आते थे... अस्ल में मुझे ही पढ़ाना नहीं आता... मैं अब तुम लोगों को... आज के बाद... यावर ने झट से किताब बंद की।
नहीं-नहीं निकी बाजी... यूसुफ़ भाई की ग़लती की सज़ा मुझे क्यों...मैं तो निहायत शरीफ़ आदमी हूँ... मेहनती बच्चा हूँ... अच्छा बच्चा...
बिल्कुल, बिल्कुल इसमें कोई शक की गुंजाइश ही नहीं। यूसुफ़ ने हाथ बढ़ा कि उसका पहलू गुदगुदाया तो अंगड़ाई के लिए उठी हुई बाहें गिरा कर वो ज़ोर से हँसा।
इम्तिहान ख़त्म हुए तो निकी ने बे शुमार सफ़्हे सियाह कर दिए।
काली-काली ये तक़दीर नीली-नीली वो आँखें
या
ख़्वाब मेरे हैं कितने हरजाई
तेरी आँखों में जा के रहने लगे
वग़ैरा क़िस्म के... और न जाने और क्या-क्या।
उस दिन सूरज की किरनें चमकीले आसमान से होती हुई बग़ीचे में गिर रही थीं। टीन की, ढ़लवान साख़्त की छत से बर्फ़ पिघल-पिघल कर बूँदें बन टपकती रही। हवा कुछ तेज़ चलने लगती तो ये बूँदें ज़मीन पर गिरने से पहले जम-जम जातीं और फ़क़त कोई महीन सा क़तरा गिरता, बाक़ी पानी की मख़रूती नलियों की सूरत रह जातीं।
ऊँची दीवार के बाहर सरकारी मकानों की क़तारों के दरमियान बने छोटे से रास्ते पर बच्चे साइकिल चला रहे थे। आज कर्फ़्यू नहीं था। निकी धूप में बैठी अख़बार देख रही थी। उसकी माँ तबस्सुम बेगम भी आई हुई थीं और तनवीर ख़ाला के साथ बैठी साग चुन रही थीं। गेट पर गाड़ी रुकने की आवाज़ आई।
ड्राइवर आ गया... बाज़ार हो आईं ज़रा... अभी तीन घंटे कर्फ़्यू नहीं लगेगा।
तनवीर बेगम गेट की तरफ़ पलट कर बोलीं। जहाँ ड्राइवर नहीं यूसुफ़ हाथ में चाबी लिए अंदर दाख़िल हुआ।
अरे... मेरे बच्चे... अठारह का तो हो जा पहले... तनवीर बेगम के चेहरे पर परेशानी थी।
इतनी अच्छी तो चलाता हूँ चच्ची... फिर मैंने तो कॉलोनी के अंदर ही ड्राइव किया ना... वो मुअद्दबाना बोला।
अल्लाह अपनी हिफ़ाज़त में रखे... तुम्हें... वो दोबारा साग चुनने लगीं।
फिर मैं अठारह से कम लगता हूँ क्या... उसने निकी के क़रीब जा कर अख़बार उठाते हुए तनवीर बेगम के पास बैठ कर कहा।
नहीं... माशा अल्लाह वो बात नहीं बेटा... मगर फिर भी तुम्हें... तनवीर बेगम ने उसके सर पर हाथ फेरा।
जो बात ग़लत है... वो ग़लत है। ठीक कहती हैं तनवीर... निकी की माँ ने साग के बड़े से हरे-हरे पत्ते पर से हरे रंग का छोटा सा रेंगने वाला कीड़ा उठा कर बाग़ीचे की सूखी घास वाली भीगी ज़मीन पर फेंका। दीवार पर से एक मैना नीचे उड़ आई और कीड़े को चुग कर फिर ऊपर की तरफ़ उड़ गई।
उई... मामाँ... निकी ने झुरझुरी सी लेकर माँ का चेहरा देखा।
मतलब...? तबस्सुम बेगम की तेवरी चढ़ गई।
डरती हो...? कीड़ों से...? तबस्सुम बेगम ने हैरत, हिक़ारत और तश्वीश को निहायत कमाल से अपने लहजे में शामिल कर लिया था। उनके नथुने फूल गए थे।
तुम Frog को Dissect करती हो Lab में...? उन्होंने आँखें फैला कर मुँह अध-खुला छोड़ दिया।
कल को Human Body को कैसे Dissect करोगी तुम... बोलो...?
उन्होंने सर पकड़ लिया।
मेरी उम्मीदों पर पानी फेर दोगी... मेरा अधूरा ख़्वाब पूरा नहीं करेगी ये लड़की... ये डरपोक लड़की... मुझे पहले ही ख़द्शा था इसकी तरफ़ से... उन्होंने तनवीर बेगम की तरफ़ देख कर आवाज़ में दुख भर कर कहा और जल्दी-जल्दी पलकें झपकना शुरू कीं, गोया आँसू पी रही हों। फिर सर को मज़ीद झुका कर साग बीनने लगीं। सब उन्हें ख़ामोश देखते रहे।
नहीं... मामाँ... जो आप कहेंगी... मैं वही करूंगी। निकी रुहाँसी हो कर बोली। यूसुफ़ ने अख़बार का सफ़ा पलटा।
अगले बरस जिस दिन बर्फ़ानी तूफ़ान ने बहुत से दरख़्तों और कई मकानों को अपनी लपेट में ले लिया था। उस दिन तक और बहुत सी तब्दीलियाँ हो चुकी थीं।
इम्तिहानों के नताइज आ चुके थे। यावर अच्छे नम्बरों से पास हो कर नई जमाअत में आधा बरस गुज़ार चुका था। यूसुफ़ फ़ेल हो गया था और उसके घर वाले उससे नालाँ थे। निकी मामाँ की निगरानी में Entrance की तैयारियों में मसरूफ़ थी।
पढ़ने के कमरे में यूसुफ़ और यावर रह गए थे।
निकी बाजी को यहाँ बैठ कर कितना अच्छा लगता होगा। यावर निकी की जगह तकिये से टेक लगा कर बैठा और खिड़की से बाहर देखने लगा।
तुम अपनी जगह बैठो ना... बड़ों की जगह नहीं बैठते... अगर इस वक़्त निकी बाजी आ गईं तो क्या सोचेंगी कि मेरी जगह बैठ गया है यावर... शायद नहीं चाहता कि मैं कभी आकर फिर इस जगह बैठूँ। यूसुफ़ ने अपनी मख़्सूस जगह पर बैठते हुए आहिस्ते से कहा तो यावर उछल कर अपनी नशिस्त पर पहुँच गया जैसे उसकी निकी बाजी आ ही गई हों।
अरे बाप रे... Sorry यूसुफ़ भाई...
यूसुफ़ लम्बे से रजिस्टर पर झुक गया।
निकी के बाएँ कान की बाली झिलमिल करने लगी।
बालों की लट ने आधा रुख़सार छुपा लिया।
निकी दाँतों में क़लम दबाए, फूलों वाले हेयर बैंड में बाल समेट रही है।
रजिस्टर के तीन सफ़्हों पर हिसाब का एक ही सवाल हल किया गया है। एक सियाह रोशनाई से... निकी के हाथों। दूसरे दो सफ़्हों पर यह ही सवाल यूसुफ़ ने हल करने की कोशिश की है जिसपर निकी ने सुर्ख़ क़लम से तसहीह की है। सफ़्हे के किनारे पे दो आँखें बनी हैं। अभी-अभी यूसुफ़ ने पेंसिल से बनाई हैं। काली-काली पुतलियों वाली दो आँखें।
नीली आँखों में पानी तैर रहा है... अगर पलक झपक दी गई तो... आँसू चेहरे पर उगी छोटी-छोटी दाढ़ी में से होता हुआ गर्दन पर बह निकलेगा... और कहीं यावर देख ले तो... उसका दिल उदास हो जाएगा।
लेकिन यावर ने यूसुफ़ भाई की आँखों में आँसू देख लिए थे।
मुख़्तसर सी ग़ुलाम गर्दिश में यावर की बातों की आवाज़ गूँजी तो ज़ीने पर निकी के तेज़-तेज़ उठते हुए क़दमों की आवाज़ और कपड़ों की सरसराहट सुनाई दी। वो बावर्ची ख़ाने से निकल कर आती हुई माँ से टकराते-टकराते बची।
Sorry Maama
अभी चोट लग जाती तो? कल आख़िरी पर्चे के दिन तुम...
तो Rest कर लेती मामां... मेरी सारी Preparation तो हो चुकी है आज तो मैं कई घंटे की नींद भी Afford कर सकती हूँ... ये जनाब किधर से रास्ता भूल गए... वो मुस्कुराती हुई बोलती चली गई।
अल्लाह ने मेरी सुन ली... ख़ाला... यावर ने तबस्सुम बेगम का हाथ पकड़ लिया। वो निकी की तरफ़ देख रही थीं। अबरूओं के दरमियान एक लकीर खिंची थी। तबस्सुम बेगम उसकी तरफ़ पलटीं तो वो निकी बाजी को देखने लगा।
अस्सलाम-ओ-अलैकुम निकी बाजी... आँखों के गिर्द के गड्ढे बता रहे हैं कि ख़ूब पढ़ाइयाँ हो रही हैं... बल्कि हो चुकी हैं... कुछ अपना ये छोटा सा भाई भी याद है... कल मेरा Maths का Exam है... वो फ़िक्रमंद नज़र आने लगा।
सिर्फ़ एक घंटा चाहिए आपका निकी बाजी... आप अपनी books ले चलिए... वहीं Revise कर लीजिएगा... वो तबस्सुम बेगम के चेहरे की तरफ़ देखने लगा।
ख़ाला आज निकी बाजी को भेज दें मेरे साथ... क़सम से बिल्कुल कुछ नहीं आता मुझे... फ़ेल हो जाऊँगा ख़ाला... रही सही इज़्ज़त ख़ाक में मिल जाएगी।
चुप... बदमाश कहीं का... तू तो माशा अल्लाह ख़ुद क़ाबिल लड़का है। उसका तो बेटा Last...
ख़ाला आप यक़ीन करें ये आठवीं दर्जे का Maths इस क़दर मुश्किल है कि कुछ समझ में नहीं आता और फिर निकी बाजी बेचारी जैसे क़ैद बा मशक़्क़त काट रही हैं। इनकी भी कुछ Outing हो जाएगी... अम्मी ने ताकीद की थी ख़ाला... कि निकी बाजी को कुछ रोज़ के लिए साथ ले आऊँ... अम्मी ने उन्हें ख़्वाब में देखा था... याद करके तड़प रहीं थीं... आपको मेरे सर की क़सम ख़ाला...
यावर ने तबस्सुम बेगम का हाथ झट अपने सर पर रख लिया।
तनवीर बेगम ने निकी को गले से लगाया तो वो उनकी बाहों में जैसे ग़ायब सी हो गई।
मेरी बच्ची...मेरी जान... ये क्या मुसीबत है ये Entrance। उफ़ नन्हीं सी जान...
निकी उनके सीने से लगी रही। तनवीर ख़ाला के पीछे कोई छः क़दम के फ़ासले पर अध खुले दरवाज़े की दहलीज़ में खड़े यूसुफ़ के चेहरे पर मुब्हम सी मुस्कुराहट थी। ख़ाला के कंधे के ऊपर से हो कर निकी की निगाहें जब उससे मिलीं तो वो कमरे के अंदर चला गया। फिर दबीज़ सुर्ख़ क़ालीन पर दो क़लाबाज़ियाँ खाईं और निकी की नशिस्त के तकिये का ग़िलाफ़ दुरुस्त करने लगा।
उस रात सातवीं के चाँद की फीकी चाँदनी में टीन की छत वाला मकान हल्की-हल्की चमक बिखेरता पुर सुकून सो रहा था।
सिर्फ़ पढ़ने का कमरा रौशन था।
यावर पढ़ते-पढ़ते हिसाब की कॉपी पर रुख़सार रख कर सो गया।
सिर्फ़ दस मिनट तक आराम कर सकते हो...तुम? निकी ने उसका सर सहलाते हुए कहा। उसने धीरे से आँखें नीम-वा कीं और फिर मूँद लीं।
फिर दो आख़िरी सवाल... और छुट्टी... तुम्हारी तैयारी मुकम्मल है... वो बोली। यावर नींद के झोंकों के दरमियान एक पल को हल्के से मुस्कुराया और दूसरे पल कमरे में उसके छोटे-छोटे ख़र्राटे गूँजने लगे।
वो दोनों उसे चुपचाप देखते रहे उनके चेहरों पर भी एक पुर सुकून सी मुस्कुराहट फैली हुई थी।
अब... क्या करोगे... यूसुफ़... निकी का चेहरा उदास हो गया।
अब क्या होगा... निकी बाजी... अब क्या हो सकता है... आप... आप... दूर कहीं मशीनगन ने लगातार कई गोलियाँ बरसाईं।
बग़ीचे में ईस्तादा सफ़ेदे के दरख़्तों में कव्वे यहाँ-वहाँ उड़ कर काएँ-काएँ करने लगे। कुछ देर बाद माहौल पर दोबारा सुकूत छा गया।
मैं और पीछे रह गया निकी बाजी... हम साथ नहीं चल सकेंगे ना... अब... और कोई रास्ता नहीं ना... अब और कुछ नहीं हो सकता ना... है ना... निकी बाजी...
यूसुफ़ की आवाज़ का कर्ब वाज़ेह हो गया था। निकी ने सर बहुत ज़ियादा झुका लिया था। वो सोये हुए यावर के बालों में उंगलियाँ पिरोती रही। आँसू उसकी आँखों से बह-बह कर उसके हलक़ के क़रीब दुपट्टे में जज़्ब होते गए।
आप कुछ न बोलेंगी निकी बाजी... मैं जानता हूँ... उसकी थकी हुई आवाज़ में शिकवा ही शिकवा था।
मगर मैं भी... नहीं रहूँगा... निकी बाजी... उसकी आवाज़ यकायक तेज़ हो गई।
चला जाऊँगा... मैं... आवाज़ फिर मद्धम हो गई थी। निकी ने सर उठा कर उसके चेहरे की तरफ़ देखा। परेशान-परेशान से चेहरे पर वीरान-वीरान सी आँखें। छोटी-छोटी मूँछें। दाढ़ी कुछ घनी हो गई थी। इतनी कि सुर्ख़-ओ-सफ़ेद चेहरे पर एक सियाह हाशिया बना कर उसे मज़ीद ख़ुश-शकल बना रही थी।
आँसू बह निकले थे।
चला जाऊँगा... दूर... आप से... इतना दूर कि... कि... उसने दबी-दबी सी हिचकी ली। निकी ने बे-इख़्तियार अपने गले पर हाथ रख दिया। जैसे उसका दम घुटने लगा हो।
नहीं। वो आवाज़ की लर्ज़िश पर क़ाबू पाने की कोशिश करती रही।
निकी बाजी मैं... मिलिटेंट बन जाऊँगा... दुनिया छोड़ दूँगा।
नहीं... पागल हो गए हो क्या... ये सब क्या कह रहे हो। निकी तड़प कर बोली और उसके चेहरे की तरफ़ देखती रही।
तुम तनवीर ख़ाला से... अगर बात करो... तो... वो हम दोनों को कितना अज़ीज़ रखती हैं। निकी ने दुपट्टे से आँखें ख़ुश्क कीं। और ठहर-ठहर कर कहा।
मामां को समझा सकती हैं... हैं ना?
हाँ... शायद... शायद... बुझी-बुझी आँखों में उम्मीद की क़ंदील सी रौशन हुई।
जिस दिन निकी की माँ निकी की कामयाबी की ख़ुशियाँ मना रही थी। उस दिन निकी पत्थर की तरह ख़ामोश हो गई थी।
उसी दिन यूसुफ़ ने तनवीर ख़ाला से बात की थी। और तनवीर ख़ाला कुछ लम्हों तक कुछ भी न बोली थीं। यूसुफ़ के चेहरे को देखती रह गई थीं कि कहीं वो मज़ाक़ तो नहीं कर रहा। मगर उसके चेहरे पर ऐसी संजीदगी थी कि तनवीर बेगम ख़ुद को बे बस सा महसूस करने लगीं। लेकिन फिर उसके सर पर हाथ फेर कर मुस्कुराईं।
वो तो तुम्हारी बड़ी बहन है बेटा... मज़ाक़ करते हो अपनी चची से। वो भी एक बेजोड़ सी बात के लिए। उसकी माँ मेरी ज़बान से कहीं ऐसा सुन ले तो मुझे ज़िन्दगी भर माफ़ न करे। जानते हो तुम उनका मिज़ाज़... उन्होंने चूल्हे पर चढ़ी नमक वाली चाय से भरे तांबे के गोल पेंदे वाले पतीले में ज़रा सा झाँका और चाय का रंग जाँचने के लिए तांबे के लम्बे दस्ते वाला कफ़गीर, पतीले में घुमाने के बाद उसमें चाय भर-भर कर वापस डालती रहीं। जाली वाले दस्ते के अंदर पड़ी कंकरियाँ, ऊपर-नीचे होने से छन-छन बजने लगीं। कफ़गीर पतीली के किनारों पर टिका कर तबस्सुम बेगम रेफ़्रिजरेटर की तरफ़ दूध लेने को बढ़ीं। इस दौरान उन्होंने यूसुफ़ की तरफ़ नज़र नहीं उठाई।
जानती हूँ मेरा बेटा मुझे ऐसे इम्तिहान में कभी नहीं डालेगा। उन्होंने दूध के साथ चाय की प्यालियों में डालने के लिए बालाई की कटोरी निकाली और यूसुफ़ की तरफ़ निगाह डाली। वो दीवार से लगा उन्हें ही देख रहा था।
बैठो मैं चाय ला रही हूँ... उन्होंने मुस्कुरा कर कहा और मुलाज़िम को दस्तर-ख़्वान बिछाने के लिए आवाज़ लगाई जो घर के पिछवाड़े बाड़ी में पत्ता गोभी के लम्बे पत्ते तोड़-तोड़ कर रात के खाने में बनने वाले किसी सालन के लिए बेद की टोकरी में जमा कर रहा था।
तनवीर बेगम जब मुलाज़िम को आवाज़ लगाकर खिड़की से पलटीं तो देखा कि यूसुफ़ जा चुका है।
कहते हैं वो रात क़यामत की रात थी। अंदरून-ए-शहर, हर घर में छापे पड़े थे।
ख़तावार धमाके करके ग़ायब हो गए थे और बे गुनाहों को ग़ालिबन ग़लत मुख़्बिरी की वजह से धड़ाधड़ पकड़ कर किसी ना-मालूम मंज़िल की तरफ़ ले जाया जा रहा था।
होस्टल से छुट्टियों में घर लौटे दो भाइयों को उनके वालिदैन के सामने दहशत-गर्दी के इल्ज़ाम में गोलियाँ मार दी गई थीं। ग़ुस्से या ग़लत-फ़हमी या किसी और अनजानी वजह से।
रह-रह कर इंसानी चीख़ें कानों में पड़तीं थीं। उस रात शहर में शायद ही कोई सोया था कि मौत के आने के डर के साथ-साथ इज़्ज़त के जाने का ख़ौफ़ भी था।
तनवीर बेगम के वहाँ से निकल कर यूसुफ़ उसी सड़क पर चल रहा था जहाँ चौराहे का एक रास्ता झील की तरफ़ जाता था। एक पहाड़ी की तरफ़। एक शहर के अंदर वाले इलाक़े की तरफ़ और एक निकी के घर की तरफ़।
उस सड़क से गुज़रते हुए उसकी रफ़्तार ग़ैर-इरादी तौर पर धीमी हो गई।
बे-इख़्तियार निगाहें दाहिनी जानिब ढ़लान की तरफ़ उठ गईं। बग़ैर गूँजे एक आवाज़ समाअत तक आ गई।
तुम्हें मौत के सन्नाटे में ज़िंदगी की बातें कैसे सूझती हैं यूसुफ़।
आज से ज़िंदगी की बात नहीं करूँगा निकी बाजी...
काश उस दिन कोई बंदूक़ तान देता... हम पर... कितनी पुर सुकून... कितनी हयात बख़्श मौत होती... मैं यूँ... ज़िंदगी से भाग... न रहा होता... मगर अब मुझे भागना चाहिए यहाँ से... मुझे... भागना... चाहिए... निकी बाजी... मैं दूर जा रहा हूँ आप से... बहुत दूर निकी बाजी... बहुत दूर...
उसकी आँखों में आँसू भर आए... ढलान के उस तरफ़ किनारे पर उगी घास सूख कर बे रंग हो गई थी।
वो भारी-भारी क़दम उठाता हुआ तवील सड़क पर चला जा रहा था। रास्ते में कहीं-कहीं दुकानें थीं जो बंद हो रही थी।
अभी तो अंधेरा भी नहीं हुआ... तो फिर... दुकानें क्यों बंद...
हुआ करें। उसे किसी से कोई मतलब नहीं। उसने कुछ और क़दम आगे बढ़ाए ही थे कि साइरन की तेज़ आवाज़ कानों से टकराई। उसने दाएँ बाएँ देखा बस यूँ ही बे-ख़्याली में शायद। सड़क वीरान थी और तमाम दुकानें बंद हो चुकी थीं। साइरन के बाद लाउड स्पीकर पर कोई ऐलान हुआ। आवाज़ दूर से आ रही थी। वो चलता रहा। यहाँ तक कि सड़क एक मोड़ पर मुड़ गई। कुछ फ़ासले से बकतर बंद गाड़ियाँ आती दिखाई दीं। वो वैसे ही चला जा रहा था।
मैं... जा रहा... हूँ... निकी बाजी... मैं।
दफ़्अतन मोड़ पर बाईं जानिब को बस्ती के अंदर जाती हुई कच्ची सड़क पर किसी ने उसका बाज़ू पकड़ कर उसे अंदर गली में खींच लिया।
कहाँ जा रहे हो... कर्फ़्यू में... पागल हो क्या...? एक दाढ़ी वाला नौजवान था। उसके साथ तक़रीबन यूसुफ़ की उम्र का एक लड़का था जिसने दोनों हाथों में गेंदें सी थाम रखी थीं। दाढ़ी वाले नौजवान के पास एक थैला था। जिसमें कुछ सामान था। उसने वो थैला उसी ज़ीने पर रखा था जहाँ उसने यूसुफ़ को खींच कर बिठा दिया था। ज़ीना किसी मकान के पिछवाड़े से मुल्हक़ा था जो एक तंग गली में खुलता था। इससे पहले कि यूसुफ़ कुछ कहने के लिए ज़बान खोलता, उसने देखा कि मोड़ के क़रीब पहुँचने से बहुत पहले, उसका हम उम्र लड़का गाड़ियों की तरफ़ दौड़ा और दो गाड़ियों को अपनी गेंदों का निशाना बना कर एक ओर गली की तरफ़ भागा... दाढ़ी वाले नौजवान ने कानों पर हाथ धर लिए। फ़लक शिगाफ़ धमाका हुआ।
इन्ना लिल्लाहे व इन्ना इलैहे राजेऊन। नौजवान ज़ेर-ए-लब बोला।
कक... कक... क्या हुआ? यूसुफ़ बुरी तरह घबरा गया था।
शाहबाज़ शहीद हो गया... वतन पर... क़ुर्बान हुआ... दीन पर क़ुर्बान हुआ...
नौजवान ने बा रोब सी आवाज़ में कहा। और आसमाँ की तरफ़ उड़ रहे सियाह दबीज़ धुएँ को देखने लगा।
आक़ा। शाहबाज़ उसी लम्हे गली में नुमूदार हुआ था।
तुम... तुम... शहीद नहीं हुए...? वो तअज्जुब और तअस्सुफ़ से बोला।
नहीं... आक़ा... शाहबाज़ ने सर झुका दिया।
क्यों बदनसीब... उसने दाहिना हाथ हवा में ऊपर से नीचे को लहराया।
बाक़ी की Convoy बहुत दूर थी... मैं किस पर कूदता... वो आहिस्ता से बोला।
आह बद-बख़्त... क्या इसी दिन के लिए हमने तुम्हें शाहबाज़ का ख़िताब दिया था। जब तक गाड़ियाँ सामने आतीं ख़ुद दौड़ कर क़रीब चले जाते... इसीलिए हमने कहा था कि फ़िदा होने के लिए दस्ती बम ऐसे बा असर न होंगे। दूसरे होते तो हम ख़ुद रिमोट से कंट्रोल करते... और अब तक तुम जन्नत में होते और उनका काम तमाम हो गया होता। तुम्हारे बाद जब तुम्हारे वालिदैन इंतिक़ाल करते तो वो भी जन्नत में जाते। कम से कम इतना तो सोचते। वहीं डट जाते गाड़ियाँ तो आ ही जातीं। देखो उसके बाद कानवाई ने रुख़ मोड़ दिया। नौजवान ने ठंडी आह भरी।
अगर कोई शहीद होता है तो क्या उसके वालिदैन जन्नत में जाते हैं? यूसुफ़ ने नौजवान को ख़ामोश होते देख कर फ़ौरन सवाल किया।
हाँ... बिल्कुल... ऐसा ही होता है... नौजवान ने निहायत संजीदगी से कहा।
मगर मैंने तो ऐसा कहीं नहीं पढ़ा। हाफ़िज़ की माँ जन्नत में जाती है। वो भी अगर उसने ख़ुद अपनी औलाद को हिफ़्ज़ कलामुल्लाह कराया हो... वरना मैंने किसी हदीस में ये नहीं पढ़ा कि... यूसुफ़ ने तजस्सुस से कहा।
नादान हो तुम... जिहाद के रास्ते में... वह हाथ आसमान की तरफ़ उठा कर ख़ासी घमबीर आवाज़ में कुछ कहते-कहते रुका।
यहाँ क्रैक डाउन होगा। भागो, जल्दी... उसकी आवाज़ दफ़्अतन ख़ौफ़ से भर गई। शाहबाज़ फिरन के अंदर पहनी हुई वास्कट की जेबों में भरे बम निकाल-निकाल कर ज़ीने पर रखे थैले में डाल रहा था।
रहने दो... बाद में निकाल लेना... पकड़े जाएंगे वरना... नौजवान जल्दी से उठते हुए बोला।
रास्ते में... कहीं फट गया आक़ा...तो?
तुम इतने ख़ुश नसीब कहाँ हो... नौजवान ने उसे नज़र भर कर देखा।
आक़ा मेरा... मेरा मतलब था अगर ग़लत जगह कहीं फट गया... तो... तो... ख़ुदा-ना-ख़ासता आपको... कहीं आप। वह हकलाया।
अगर आप इजाज़त दें तो... थैला मैं संभाल लूँ। यूसुफ़ ने मज़बूत लहजे में कहा।
नौजवान मुस्कुरा दिया।
मुबारक, सद मुबारक। उसने यूसुफ़ को ब-ग़ौर देखा और गली के अंदर मुड़ गया।
कहते हैं वो रात क़यामत की रात थी।
वादी के हालात अबतर होते गए। किसने इस सुकून पर शब-खूँ मारा। कोई अपने घर में तो ऐसा नहीं करता। कोई बाहर का होगा। मगर बाहर के भी सब लोग तो ऐसी सोच नहीं रख सकते। कुछ मनफ़ी सोच वाले अफ़राद नादानी, ग़ुरूर और ग़लत-फ़हमी का शिकार हो गए होंगे कि सदियों से ऐसा होता आया है और कभी भी, कहीं भी हो सकता है।
इस ख़ित्ते के साथ सोलहवीं सदी से ही ये सिलसिला शुरू हो गया था। चंद्र गुप्त मौर्य और फिर अशोक के महान हिंदुस्तान को अफ़ग़ानिस्तान और नेपाल की आख़िरी सरहदों तक वसीअ करने वाली अज़ीम-उश-शान सल्तनत-ए-मुग़लिया के शहंशाहों ने भी ऐसा ही किया, जब शायरा मारूफ़-ओ-मक़बूल और हर दिल अज़ीज़ मलिका-ए-कश्मीर ज़ोन, यानी चौदहवीं का चाँद मलक़ब हब्बा ख़ातून के शायर बादशाह यूसुफ़ शाह चक को अकबर आज़म ने धोके से क़ैद कर लिया था। शाह ग़रीब उल वतनी में अपनी मल्लिका से दूर इंतक़ाल कर गया। वतन की मिट्टी भी उसे नसीब न हुई... और मल्लिका रोते-रोते दीवानी हो गई। हिज्र के नग़मों से ब्याज़ें सियाह कर दीं और आख़िरकार अपने यूसुफ़ को पुकारते-पुकारते हब्बा ख़ातून ने भी इस दुनिया को ख़ैर-बाद कह दिया। वादी में उसके नग़मे गूँजते रहे।
'नादिलाए, मियाना यूसोफ़ो विलो'
(पुकारती हूँ में तुझको मरे यूसुफ़ आ जा)
और गूँजते रहेंगे।
फिर अफ़ग़ानिस्तान से अफ़ग़ान आए।
शामत-ए-आमाल से अफ़ग़ान हाकिम हो गए
आए वो और तालेअ बेदार अपने सो गए
किसी शायर ने एहितजाजन शे'र कहा था। फिर पंजाब से सिख, क्या-क्या टैक्स लगाए गए थे, उनके दौर में। और फिर सात समुंदर पार से अंग्रेज़ों ने आ कर वादी जम्मूँ के डोगरों को फ़रोख़्त कर दी। एक 'native' को दूसरे 'native' का आक़ा बना दिया। वो भी एक तकलीफ़देह दौर था। कश्मीरियों को तो मुतलक़-उल-इनान महाराजा से आज़ादी चाहिए थी... सबने जी भर के ज़ुल्म ढाए...
निकी ने किताबों में ये सब पढ़ा था।
कश्मीरी... महकूम ही रहे... सदियों...
अब कहीं आधी सदी भर पहले जम्हूरियत आई... तो... कुछ सुकून के बाद फिर ये बे सुकून शब-ओ-रोज़। क्यों हो रहा है ये सब,क्यों...
जाने क्यों आज उसे बिल्कुल ही नींद नहीं आ रही थी। जाने क्या-क्या सोच रही थी वो आज। कभी-कभी अचानक घबरा उठती थी। नहीं अचानक नहीं। जब कहीं से किसी धमाके की आवाज़ आती और आवाज़ थी कि बार-बार आ जाती।
उधर रात थी कि तवील हुई जाती थी। अगर सुबह हो जाती तो वो तनवीर ख़ाला के वहाँ फ़ोन करके ख़ैरियत मालूम करती उनकी... सबकी... सबकी ख़ैरियत। उसे रह-रह कर जाने कैसी महरूमी का एहसास हो रहा था। एक अजीब से ख़ालीपन का, एक जान लेवा सी फ़िक्र का। कौन सी फ़िक्र थी ये। उसे ठीक से कुछ समझ नहीं आ रहा था। वो यावर से बात करना चाह रही थी। या शायद... अगर यूसुफ़ से कोई बात... कोई बात हो पाती... अगर... यावर से भी कोई राबिता न हुआ था कल से... शायद यूसुफ़ ने तनवीर ख़ाला से कोई बात की हो। कोई पुर उम्मीद बात होती तो अब तक...
सुबह तनवीर बेगम को मालूम हुआ कि यूसुफ़ कल रात अपने घर नहीं गया तो उनके हाथ-पाँव फूल गए। उन्होंने दो एक जगह और फ़ोन करने के बाद निकी के यहाँ फ़ोन किया था कि शायद किसी को मालूम हो... तो निकी का सर ज़ोर से चकराया था...
चला जाऊँगा निकी बाजी... दूर चला जाऊंगा... इतना दूर हो जाऊंगा कि... आप... यूसुफ़ ने दबी-दबी हिचकी ली थी।
निकी बेहोश हो चुकी थी।
कई रोज़ हो गए थे। यूसुफ़ की कोई ख़बर न थी। उसके वालिद को दिल का दौरा पड़ चुका था। उसकी फ़र्बा-अंदाम माँ का वज़न आधा हो गया था। और उसकी तनवीर चची अपनी भाबी से नज़र न मिलाती थी। और यूसुफ़ की सलामती की दुआएँ माँगा करती।
निकी पत्थर की मूरत सी तिब्बी कालेज जाया करती।
जब दिन महीनों में बदले और तीन महीने हो गए तब एक दिन यावर को अपने स्कूल के बाहर यूसुफ़ खड़ा नज़र आया। वो दौड़ कर उससे लिपट गया।
कहाँ चले गए थे यूसुफ़ भाई... वो रो पड़ा। यूसुफ़ की आँखें भर आईं।
क्यों चले गए थे यूसुफ़ भाई... अब तो नहीं जाएंगे ना। सबको दुखी कर दिया आप ने... हम सब मर जाएंगे आपके बग़ैर। मत जाइएगा अब कभी भी।
वो यूसुफ़ की दरमियानी पसली तक आता था। उसके सीने के साथ सर टिकाए कमर में बाहें डाले बोलता रहा। और यूसुफ़ जो उसे जाने क्या-क्या कहने आया था, एक हाथ से उसे लिपटाए और दूसरे से उसका सर सहलाता रहा।
मैं घर से ही आ रहा हूँ। सुबह आया था... सब ख़ैरियत है ना... उधर।
हाँ... उधर... बड़ी ख़ाला के वहाँ ना? उसने यूसुफ़ की आँखों से मुशाबेह आँसुओं से लबरेज़ आँखें उठा कर उसे देखा, तो यूसुफ़ ने इस्बात में सर हिलाया।
निकी बाजी बिल्कुल अध मुई सी हो गई हैं। उनका Face पीला हो गया है... वो तो किसी से बात ही नहीं करतीं अब तो...
मसहरी पर औंधी, अपनी ब्याज़ पर झुकी निकी को ख़बर ही न हुई कि कब यावर आ कर उसके पलंग के क़रीब क़ालीन पर बैठ गया।
रस्ता भूल गईं ख़ुशियाँ ढूंडों जा कर किस रस्ते
यावर ने एक सफ़्हे पर नज़र डाली। बेचारी निकी बाजी...
तेरी दो आँखों की राहत जो गई
ज़िंदगी मेरी मुसीबत हो गई
निकी बाजी...
नीली-नीली दो आँखें पलंग के बान पर नाक टिकाए उसे देख रही थीं।
कैसी हैं निकी बाजी? यावर ने चेहरा ऊपर किया।
पल भर को निकी का दिल जैसे हलक़ में उछल आया था। साल भर पहले तक यूसुफ़ ऐसा ही लगा करता था। उसने गले के क़रीब हाथ रख कर गोया ज़ख़्मी ताइर से फड़कते दिल को संभाला।
कैसा है मेरा प्यारा सा छोटा सा दोस्त, मेरा भैया? उसने ख़ुश दिली का मुज़ाहिरा करने की कोशिश की और यावर के बालों पर हाथ फेरा।
बहुत ख़ुश हूँ निकी बाजी... मैं... ख़ुशी उसकी मासूम सी आवाज़ से छलकी पड़ती थी। निकी बे-क़रार आँखों से उसके चेहरे के तअस्सुरात में अपने सवालात का जवाब माँगने लगी तो उसने किताबों के बैग में रखे पेंसिल बॉक्स में से एक परची निकाल कर निकी के हवाले की।
वो दोनों पहाड़ी के दामन में कई बारहदरियों पर मुश्तमिल बाग़ के बालाई बाग़ीचे के कोने में बैठे थे। सदियों पहले मुग़ल शहज़ादे दारा शिकोह ने सितारों की गर्दिश जानने के लिए झील डल के किनारे कोह ज़ब्रोन पर ये मुशाहिदा गाह बनवाई थी कि उसे इल्म नुजूम से ख़ासा शग़फ़ था। बाग़ का नाम परी महल रखा गया था।
बेशुमार फूलों से सजे इन बाग़ीचों से झील का मंज़र निहायत दिल-फ़रेब मालूम होता था। झील के किनारे वाक़ेअ मुग़ल बाग़ात की सैर करने वालों की तादाद शाम को बढ़ जाया करती थी, लेकिन इधर अब ऐसा शाज़-ओ-नादिर ही हुआ करता। नीचे किनारे पर रंग-बिरंगी छोटी कश्तियों की क़तारें सूनी थीं। ये कश्तियाँ शिकारे कहलाती थीं और वादी के अच्छे दिनों में सयाहत की मसरूफ़ तरीन आमाज-गाह होतीं। बड़े-बड़े गुल बूटों वाली नशिस्त गाहों और ख़ुश रंग रेशमी पर्दों वाली इन कश्तियों को किनारे बाँध, ना ख़ुदा जाने कहाँ चले गए थे। हालांकि बहार शबाब पर थी। दूर बीच झील के एक छोटी सी बग़ैर छत की कश्ती जिसकी लकड़ी का सारा रंग पानी ने पी लिया था, दूसरे किनारे की तरफ़ आहिस्ता ख़रामी से रवाँ थी।
कहाँ थे... तम? निकी ने उसे कई लम्हों तक बग़ौर देखा। वो एक दम बदला-बदला लग रहा था। उसने दाढ़ी बढ़ा रखी थी। घुटनों से नीचे तक लम्बे कुरते के ऊपरी खुले बटन में से सीने में उगे सियाह बाल झाँक रहे थे। आँखों के गिर्द सियाह हल्क़े थे और घुंघरियाले बाल पहले की ही तरह दाहिने अब्रू तक आते थे, जिनके पीछे नीली-नीली आँखें जैसे दो जहाँ की फ़िक्र में ग़लताँ थीं।
तुम मेरे साथ चलोगी अनीक़ा...? यूसुफ़ की आँखें यकायक जैसे बाग़ी हो गईं थीं। उसके तर्ज़-ए-तख़ातुब पर निकी चौंकी नहीं थी।
कहाँ...? छोटे से फाटक के क़रीब लगे सौंफ़ के पौदे हवा के झोंके से लहराए। एक दिलरुबा सी महक फैल गई।
ये ही एक रास्ता है... वरना... कोई आपको क्यों मुझे सौंपेगा... हाँ नहीं करेंगी निकी बाजी तो... तो ख़ुदा की क़सम... ख़ुदा की क़सम...
वो पल भर में पहले की तरह उदास और मजबूर सा हो गया। आँसू भर आए।
नहीं यूसुफ़... नहीं... उसकी एक आँख से आँसू टपका। निकी उसे देखती रही।
ऐसा मत करो... ऐसा न कहो... ये कैसे मुमकिन होगा... ये क्योंकर होगा...?
क्यों नहीं होगा निकी बाजी... उसने निकी का हाथ पकड़ कर छोड़ दिया।
लंबी सफ़ेद दुम वाली एक सियाह चिड़िया सामने ज़र्द गुलाबों की क्यारी पर आ बैठी और मिंक़ार आसमान की जानिब उठा कर ज़ोर से चहचहाई। यूसुफ़ ने नज़र दौड़ा कर चिड़िया की तरफ़ देखा। निकी ने भी चौंक कर उधर देखा था। दोनों मुस्कुरा दिए।
हम ऐसे ही हमेशा साथ हंस सकते हैं निकी बाजी... मान जाइए ना...मैं आपकी तालीम ज़ाएअ नहीं होने दूंगा। ख़ुद भी कोई अच्छा काम करूंगा... अब भी वक़्त है निकी बाजी... मेरे दोस्तों ने सब इंतिज़ाम कर रखा है... हम निकाह कर लेंगे। फिर कोई हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा... वरना बाद में कभी ऐसा मौक़ा नहीं आएगा... अभी भी हाँ कर दीजिए निकी बाजी...
निकी अपने घुटनों को बाहों के हल्क़े में लिए बैठी अपने पाँव देखती रही।
मैं तुम्हें दुनिया की हर ख़ुशी दूंगा। अपना सब कुछ तुम्हारे क़दमों में रख दूंगा... हमारा छोटा सा... घर होगा... तुम हमेशा मुस्कुराती रहोगी... कोई तुम्हारी माँ की तरह तुम पर बंदिशें नहीं डालेगा...
वो ख़ामोश हो गया और सर झुका कर निकी के पैरों को देखता रहा। परिंदे चहचहाते रहे। सौंफ़ की ख़ुशबू हवाओं में घुलती रही। निकी चुपके-चुपके रोती रही। दो एक आँसू उसके पाँव पर गिरे। यूसुफ़ ने उन्हें हाथ से पोंछ लिया।
क्या हुआ... निकी बाजी... वो थकी हुई सी आवाज़ में बोला।
मैं.. जानता था... आप मेरा साथ... मेरा साथ... नहीं देंगी... उसकी आवाज़ भर्रा गई थी। वो आवाज़ की लरज़िश क़ाबू में रख कर बोलता हुआ मोटरसाइकिल तक आ गया।
सामने झील में सूरज ने ग़ोता लगाया और डूब गया। आसमान का वो कनारा उस वक़्त तक दहकते अंगारे सा सुर्ख़ रहा जब तक मोटरसाइकिल नीचे सड़क के मोड़ तक आ गई कि यूसुफ़ सामने देख रहा था और निकी की नज़रों के सामने सड़क ख़त्म होने तक आसमान वैसा ही सुलगता-सुलगता सा रहा। कभी-कभी मंज़र धुंदला जाता मगर आँसू टपक जाते तो सब साफ़ नज़र आने लगता।
निकी के घर को मुड़ने वाली गली के मोड़ पर यूसुफ़ ने लब-ए-सड़क मोटर साइकिल रोक दी और दोनों पाँव ज़मीन पर टिकाए मोटरसाइकिल पर ही बैठा रहा।
आँखों से... ओझल मत होना... यूसुफ़... निकी की आवाज़ काँपती रही। हिचकियाँ घुटती रहीं।
अपने फ़ैसले पर आप तमाम उम्र पछताएंगी निकी बाजी। उसकी आँखों में मौत की सी सर्द-मेहरी थी। उसने मोटर साइकिल स्टार्ट कर दी। निकी ने हंडल पकड़े हुए उसके हाथ पर दोनों हाथ रख दिए। उसकी आँखों को ख़ौफ़-ज़दा सी नज़रों से देखते हुए उसने अपने हाथों की गिरफ़्त उसके हाथ पर मज़बूत कर दी।
ऐसा मत करना।
वो सरापा इल्तिजा बन गई।
यूसुफ़ उसे कुछ लम्हों तक चुपचाप देखता रहा। उसके होंटों पर एक रंजीदा सी मुस्कुराहट फैल गई... और मोटर साइकिल आगे बढ़ गई। निकी मोड़ पर पत्थर की मूरत सी खड़ी उसे दूर होता देखती रही।
पुकारती हूँ मैं तुझको मरे यूसुफ़ आ जा
रुख़्सारों पर दो ताज़ा आँसू ढुलक आए। दो आँखें सड़क के मोड़ पर रख कर वो घर की जानिब मुड़ गई।
उन दिनों हालात और बिखर गए थे। वादी और उदास हो गई थी। घरों में अफ़राद कम हो गए थे। दिल रंजीदा रहा करते थे। घरों से काम की ख़ातिर निकलने वालों के शाम को लौटने तक घर में रहने वाले वस्वसों में घिरे रहते।
साल भर होने को आया था। यूसुफ़ की कोई ख़बर न थी। उसकी माँ का दिल कभी उदास हो जाता और कभी पुर उम्मीद। ये दिल उसे दिन में कई-कई बार मारता और ज़िंदा करता था।
उसके बाप को दिल का दूसरा दौरा पड़ चुका था।
जिस दिन पड़ोस के किसी लड़के की पहचान के एक आदमी ने बताया कि यूसुफ़ ज़िंदा है मगर दूर सरहद के उस पार... उस दिन उसकी माँ सारा दिन सिर्फ़ रोती रही थी।
मेरा बेटा ज़िंदा है... मगर मौत की ट्रेनिंग ले रहा है।
जाने कितनी दफ़ा उसने ये जुमला अपने आपसे दोहराया था। मगर दिल के मरीज़ शौहर के सामने सिर्फ़ आहें भर कर रह जाती।
'हमसे दूर ही सही... ज़िंदा तो है... कभी न कभी लौट आएगा हमारे पास... आख़िर हमारा-हमारा है... हमारा ख़ून है... वो शौहर को तसल्ली दिया करती।
ख़िज़ाँ की आमद ने चिनारों में आग लगा रखी थी।
निकी के घर के पिछवाड़े बाहरी दीवार के उस पार कुंजड़ों की खेतियाँ थीं जिनमें कई तरह की सब्ज़ियाँ लहलहाया करती थीं, मगर इन दिनों वहाँ सिर्फ़ कड़म का लंबी डंडियों वाला साग उगा हुआ था जिसके बड़े-बड़े पत्ते चिनार के दरख़्त के पीछे से झाँकते हुए अक्तूबर के चाँद की भीगी हुई चाँदनी में नखरे-नखरे से नज़र आ रहे थे।
चाँदनी को अपनी मसहरी के किनारे तक आता देख निकी उठ कर खिड़की तक चली आई। कुछ लम्हे वहाँ खड़ी रह कर वापस बिस्तर पर लेट गई। वो आज भी सो नहीं पा रही थी। रात का पिछला पहर था। वो तारीकी में आँखें खोले छत को टकटकी बाँध देखती रही। आँसू उसके कानों में जमा होते रहे। उसकी अक्सर रातें आधी से भी ज़्यादा बे ख़्वाब गुज़र जातीं।
पास की तिपाई पर पड़े फ़ोन की घंटी बजी। लंबी दूरी से बजने वाली लंबी घंटी। निकी ने लपक कर रिसीवर उठाया कि घर में किसी की नींद न ख़राब हो।
कौन होगा इतनी रात गए...
निकी बाजी... उसकी बारीक सी हैलो के जवाब में आवाज़ आई। दिल सीने में ऐसे धड़का जैसे मुर्दा बदन में किसी ने उसी लम्हे रूह फूँक दी हो... उसका हाथ बे इख़्तियार हलक़ पर चला गया।
यूसुफ़... उसकी आवाज़ काँपी, कहाँ हो यूसुफ़? वो रो पड़ी।
मुझे जीते जी मार कर तुम... तुम कहाँ छुप गए यूसुफ़... कब आओगे... कहाँ से बोल... वो हिचकियाँ लेने लगी।
मैं मरा नहीं निकी बाजी... ज़ख़्मी हो कर नामुराद पड़ा रहा... मरना चाहता हूँ... इस वक़्त समुंदर पार हूँ...
तुम आ जाओ यूसुफ़... मैं भी नीम मुर्दा हूँ... साथ मरेंगे दोनों।
मेरा वहाँ आना... नामुमकिन है... मेरे पास पासपोर्ट कहाँ है वहाँ का। जहाँ के पासपोर्ट से यहाँ आया हूँ... वो भी मुझे कहाँ छोड़ेंगे...
क्यों किया तुमने ऐसा यूसुफ़... तुम मुझे किस क़सूर की सज़ा दे रहे हो... अपने वालिदैन को क्यों दुख दे रहे हो... लौट आओ यूसुफ़...
नहीं निकी बाजी... बर्फ़ बारी के वक़्त आने में पकड़ा न गया तो रूपोश तो रहना पड़ेगा... सबकी ज़िंदगी ख़तरे में कैसे डाल दूँ... ये मुमकिन ही नहीं होगा।
आ कर Surrender कर लो यूसुफ़... ये ग़लत रास्ता क्यों कर चुन लिया तुम...
चुप...ये लफ़्ज़ दोबारा कभी मत दोहराइएगा... यहीं पर ख़त्म कर दिया जाउंगा... शहादत का मौक़ा नहीं मिलेगा मुझे... आप नहीं जानतीं...
ये कोई शहादत है यूसुफ़... तुम तो इतने ज़हीन थे... इतने समझदार थे... ये तुम्हें क्या हो गया... है... तुम...
बस कीजिए निकी बाजी... हमेशा आप मुझे अपने Student की तरह अपनी मर्ज़ी की बातें समझाती आ रही हैं... अब मैं...
मेरी मर्ज़ी... मेरी... मर्ज़ी... मेरी कौन सी मर्ज़ी रही है... कैसी मर्ज़ी... आँखों में नए-नए आँसू भर आने से उसकी नाक बंद सी हो गई तो आवाज़ भीग गई।
sorry निकी बाजी... दिल नहीं दुखाना चाहता था आपका... माफ़ कर दीजिए मुझे... माफ़ कर दीजिए... उसकी आवाज़ भी रुँध गई। और फ़ोन बंद हो गया।
निकी ने फ़ोन कान से हटा कर रुख़सार से लगा लिया।
कितने अरसे के बाद उसने यूसुफ़ की आवाज़ सुनी थी।
फ़ोन रख कर वो खिड़की के क़रीब आ गई चौखट पर हाथ धर कर चाँद को देखती रही और फिर कहीं-कहीं दूर-दूर नज़र आते तारों को।
शायद फ़ोन कट गया हो... और फिर घंटी बज जाए... इस इंतिज़ार में वो रात भर नहीं सोई। सह्र तक भी नहीं।
कुछ महीने और गुज़र गए। निकी उसके फ़ोन का इंतिज़ार करती रही। घर के रास्ते में आने वाले क़ब्रिस्तान में नरगिस के पौदे कई बार ज़मीं से ऊँचे हुए, फूले और मुरझाए। फ़ोन नहीं आया। रातों को बिरहा के गीत लिख-लिख कर उसने ब्याज़ें भर दीं।
हर रोज़ कालेज से लौटते वक़्त क़ब्रिस्तान के क़रीब से गुज़रते हुए उसकी रफ़्तार सुस्त हो जाया करती। नज़रें इस तरफ़ उठ जातीं।
एक दिन उसने देखा कि क़ब्रिस्तान की दीवार के छोटे से दरवाज़े की जगह बड़ा-सा फाटक लगाया गया है।
इन्ना लिल्लाहे व इन्ना इलैहे राजेऊन
फाटक की हरी मेहराब पर सियाह रंग की इबारत ने उसकी नज़रें जकड़ लीं। कुछ लम्हे वो इबारत को देखती रही। फिर उसके क़दम फाटक के दरमियान लगे छोटे से किवाड़ की तरफ़ उठ गए। वो ढलान उतर कर मुंडेर से जा लगी। सामने दूर तक फैले हुए क़ब्रिस्तान में बे शुमार क़ब्रों का इज़ाफ़ा हो गया था। जगह-जगह नए कतबे खड़े थे। उसका दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क उठा। वो ज़मीन पर बैठ गई और आँखें ज़ोर से भींच लीं।
अगर इस वक़्त... कोई हम पर बंदूक़ तान दे... तो क्या हमें भागना चाहिए निकी बाजी...
किसी ने धीरे से कहा।
बंद आँखों से निकल कर आँसू निकी के रुख़सारों पर फिसल गए।
नहीं... नहीं यूसुफ़... तुम मुझसे दूर भाग गए... मैं... मैं कहाँ भाग सकती हूँ... मैं कहाँ जा सकती हूँ... मैं कहाँ जाऊँ ... यूसुफ़...
निकी चुपके-चुपके सिसकने लगी। ख़ूब रो लेने के बाद जब जी कुछ हल्का हुआ तो उसने आँखें खोल दीं। नरगिस के फूलों में ईस्तादा कितबों पर नाम और तारीख़ पैदाइश के साथ तारीख़ इंतक़ाल दर्ज थे।
नसीर अहमद मलिक: तारीख़ पैदाइश: 9 सितंबर 1970
वफ़ात: 6 फ़रवरी 1992
मोहम्मद राशिद मीर: तारीख़ पैदाइश: 5 जून 1972
वफ़ात: यकुम जुलाई 1993
वो दहशत-ज़दा सी मुंडेर से लगी बैठी दूर दीवार तक फैले कतबे पढ़ती रही। उसके चेहरे पर कर्ब उतर आया। होंट दाँतों में भींचे सिसकियाँ लेते हुए उसने मुँह दूसरी जानिब मोड़ा तो एक बिल्कुल ताज़ा तुरबत पर सियाह संग मर मर से तराशी लौह-ए-मज़ार नई-नई बहार की निखरी हुई ठंडी धूप में चमक रही थी। क़ब्रिस्तान के किनारों पर लगे बेद के दरख़्त उसपर बार-बार साया किए देते थे।
यूसुफ़ अहमद ख़ान पैदाइश: 11 मार्च 1973
वफ़ात: 2 जून1993
नहीं... उसका हाथ बे इख़्तियार उसके होंटों पर चला गया। दूसरा हाथ उसने अपने हलक़ पर रख दिया... दबी-दबी सी चीख़ उसके सीने में घुट कर रह गई। हिचकियाँ ले लेकर रोते हुए उसने आँखें बंद कर लीं। उसका बदन थर-थर काँप रहा था। गले को उसने उंगलियों से ऐसे थाम रखा था जैसे उसकी जान उसी रास्ते निकल भागने वाली हो।
ये नहीं होगा... मेरे साथ... मेरे अल्लाह... ये नहीं होगा... उसने तड़प कर आसमान की जानिब निगाहें उठाईं और सर पीछे मुंडेर पर उगी हरी-हरी नम घास से टिका दिया। नीला-नीला आसमान बे दाग़ नज़र आ रहा था। आँसू उसकी आँखों से बह-बह कर चेहरा भिगोते रहे। दीवार से मुल्हक़ा मस्जिद में बिजली न होने के बाइस बग़ैर लाउड स्पीकर की पुर दर्द सी अज़ान गूँजा की।
बेद की टहनियों में लौट आने वाली चिड़ियों ने जब चहक-चहक कर आसमान सर पर उठा लिया तो निकी ने अपनी सुर्ख़-सुर्ख़ आँखों पर दुपट्टा रख कर थके हुए पपोटों से लगे आँसू जज़्ब कर लिए। और खड़ा होने से पहले एक नज़र फिर बाएँ जानिब देखा। एक बार फिर उसका हाथ उसके गले के क़रीब चला गया।
वहाँ कोई ताज़ा क़ब्र थी न कतबा।
उसका दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था और उसे सख़्त प्यास लग रही थी।
फिर... महीने सालों में बदलने लगे एक दिन किसी ने यूसुफ़ की वालिदा को फ़ोन करके बताया कि आज शब के एक बजे यूसुफ़ उनसे वीडियो कॉन्फ़्रेन्सिंग के ज़रिए राबिता क़ाइम करेगा।
हमारा बेटा ज़िंदा है सलामत है... उसकी माँ ने ये ख़ुश ख़बरी घर में सबको फ़रदन-फ़रदन सुनाई। उस दिन वो सारा वक़्त लोरियाँ गाती रही, और रह-रह कर उसकी आँखें भीगती रहीं।
कम्प्यूटर के मॉनिटर पर उसके बेटे की तस्वीर उभरी तो वो पहचान ही न पाई। उसने सर मुँडवा रखा था। दाढ़ी गिरेबान तक बढ़ी हुई थी। आँखें नीम वा सी थीं और जब उसने वालिदैन को मुख़ातिब किया तो उसकी आवाज़ भी थकी-थकी सी मालूम होती थी।
आ जाओ... चाँद... घर आ जाओ... माँ ने मॉनिटर पर नज़र आ रहे उसके चेहरे पर हाथ फेरा और रो पड़ी।
तुम्हारी माँ... मर जाएगी बेटा... बाप की आवाज़ काँप रही थी।
अब्बू-अम्मी बीमार हैं यूसुफ़... तुम्हारे बग़ैर घर बिल्कुल तबाह हो गया है... तुम्हारे बग़ैर किसी का जी नहीं लगता... बहन सिसकियाँ लेने लगी।
इस तरह की बातों से मेरा ईमान कमज़ोर करने की कोशिश न करें आप लोग... बस दुआ करें कि मैं जाम-ए-शहादत नोश करूँ... और आप सबके लिए जन्नत के दरवाज़े वा करूँ...
उसकी आवाज़ में अज़्म झलक रहा था मगर चेहरे पर ग़म के साए से लहरा जाते।
किसी तरह कुछ दिन के लिए आ जाओ... ये सब सही नहीं मेरे लाल... मैं तुम्हें समझा दूँगी। कुछ दिन के लिए आ जाओ... तुम्हें सीने से लगाने के लिए मेरा... मेरा कलेजा फटा जा रहा है...माँ रोती रही।
मेरे जनाज़े को कंधा देने... कंधा देने ही आ जा... मेरे बच्चे... बाप बे बसी से बोला।
अब जन्नत में मुलाक़ात होने की दुआ माँगिए अब्बू ... अम्मी बुज़दिलों वाली बातें मत कीजिए... यूसुफ़ की आवाज़ में यासीयत शामिल हो गई।
ये क्या कह रहे हो... किसने भटका दिया तुम को... मेरे बेटे... हमारे पास कभी जी भर के बैठते... बात करते हमारे साथ... तो हम तुम्हें समझाते तो।
उफ़ अब्बू... फिर वही नसीहतें... फिर आप... मेरी बात कभी समझेंगे। कभी आप अब्बू... कभी नहीं... अच्छा कुछ दिन बाद फिर Contact करूँगा मैं ... उसके चेहरे पर कर्ब उतर आया था। मॉनिटर का Screen कोरा हो गया।
काश वो एक झलक देख पाती। यावर से वीडियो कॉन्फ़्रेन्सिंग की बात सुन कर नकी के दिल में हसरत जागी और सो गई।
कुछ दिन बाद ये बात भी पुरानी हो गई और होती चली गई। यूसुफ़ की कोई ख़बर न आई। एक बरस और बीत गया।
यावर ने आ कर निकी को बताया कि यूसुफ़ के वालिद अब ज़्यादा बीमार रहने लगे हैं। और कुछ बेहतर होते ही यूसुफ़ की माँ उन्हें हज पर ले जाएगी।
यूसुफ़ के वालिदैन फ़रीज़ा-ए-हज अदा करने के बाद किसी दूसरे शहर चले गए और कोई दो माह बाद लौटे।
उन्हें देख कर ऐसा लगता था जैसे वो बरसों की उम्र जी कर लौटे हों। निहायत ज़ईफ़ और... बीमार... और दूसरे ही दिन, दिल का तीसरा दौरा पड़ने से यूसुफ़ के वालिद इंतिक़ाल कर गए।
यूसुफ़ की माँ के आँसू नहीं बहे थे।
वो अब अक्सर अपने कमरे में पड़ी रहती।
इसका चेहरा बिल्कुल सपाट हो गया था।
अब वो टेलीफ़ोन की घंटी पर चौंकती भी नहीं थी।
बहुत पहले जब यूसुफ़ ज़ख़्मी हुआ था तो उसकी नाक से कई दिन ख़ून बहता रहा था। वजह समझ में नहीं आई थी। किसी धमाके के दौरान कहीं से कोई चीज़ उसके अब्रू पर आ लगी थी। जब से ही उसके सर में शदीद दर्द रहता था। साथी उसके सर पर कसके गमछा बांध देते। दर्द दूर करने की गोलियाँ बे शुमार खाना पड़तीं। पहले पहल दर्द उठने के दरमियानी वक़्फ़े तवील हुआ करते जो रफ़्ता-रफ़्ता मुख़्तसर होने लगे और अब ये आलम था कि आध पौन घंटे के वक़्फ़े से दर्द उठता और छः, आठ घंटे रहा करता।
हज के दौरान यूसुफ़ ने अपने वालिदैन से राबिता क़ाइम किया था।
दूसरे शहर में मुलाक़ात तै हुई और बरसों बाद उन्होंने अपने बेटे को देखा था जो बेहद कमज़ोर लग रहा था। मगर वालिदैन को देख कर मुसलसल मुस्कुराए जा रहा था।
दूसरे दिन समुंदर के ऊपर बहुत से बादल इधर से उधर उड़ते फिर रहे थे। जैसे बादलों का पहाड़ रास्ता भटक गया हो। जज़ीरे पर तामीर होटल की कसीर मंज़िला इमारत के किसी ऊपरी स्वीट की बालकनी में वो तीनों बैठे थे। यूसुफ़ को हफ़्ते भर बाद ठिकाने पर लौट जाना था। वालिदैन का वीज़ा भी ख़त्म होने वाला था।
उस दिन यूसुफ़ के वालिद बेहद पुर सुकून लग रहे थे। उनकी नज़रें बेटे के चेहरे से हटती नहीं थीं। उन्हें यक़ीन हो चला था कि बेटा उनकी बात मान लेगा और वो उसे वापस ले आने का कोई न कोई रास्ता निकाल लेंगे क्योंकि उसने माँ-बाप की किसी बात के जवाब में कोई ज़िद नहीं की थी। ख़ामोश सुनता रहा था।
ये बातें यूसुफ़ की बहन ने यावर को बताई थीं... मगर बहुत दिन बाद।
जब ख़ुद उसे उसकी माँ ने बताया था...
बहुत दिन बाद। जब उसकी माँ के सपाट चेहरे पर कुछ तअस्सुरात उभरने लगे थे...
बहुत दिन बाद, जब उसकी माँ रोने और बात करने लगी थी।
उस दिन माँ की गोद में सर रखे बादलों को देखते हुए उसके सर में दर्द उठा था। जो किसी तरह कम होने में न आया और पहले से कहीं ज़्यादा शदीद होता चला गया।
एक्सरे से नज़र आया कि उसके दिमाग़ की बाहरी जानिब के सैयाल माद्दे में बाएँ आँख के बिल्कुल सीध में कोई इंच भर लंबी और आध इंच निस्फ़ क़तर की कोई चीज़ पड़ी है। M. R. I से पता चला कि वो एक गोली है जो बहुत पहले आँख के अंदुरूनी कोने से घुस कर न जाने किस तरह बग़ैर आँख की पुतली से लगे, सर में बैठ गई थी। अब सर्जरी के सिवा कोई दूसरा रास्ता न था।
ऑपरेशन करके गोली निकाल दी गई... मगर यूसुफ़ को होश न आया।
कुछ दिन 'कोमा' में रह कर यूसुफ़ मौत से हम-आग़ोश हो गया।
दयार-ए-ग़ैर में उसे सुपुर्द-ए-ख़ाक करके उसके वालिदैन लौट आए थे।
निकी के घर के रास्ते में पड़ने वाले क़ब्रिस्तान में किसी नई मय्यत के लिए अब कोई जगह नहीं बची है। उसकी दीवारें ख़स्ता हो कर कई जगह से टूट गई हैं... यहाँ तक कि बहार की आमद पर सड़क पर चलते वक़्त बग़ैर मुंडेर तक जाए नरगिस के फूल आसानी से नज़र आ जाते हैं...
वहाँ से गुज़रते वक़्त निकी की रफ़्तार ख़ुद ब ख़ुद धीमी पड़ जाती है। उसकी नज़रें बेद के दरख़्तों से होती हुई क़ब्रिस्तान के सारे अहाते में भटकती रहती हैं। गो कि यूसुफ़ की तुरबत उधर नहीं है... फिर भी...
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