Font by Mehr Nastaliq Web

aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

रद करें डाउनलोड शेर

ज़रा हौर ऊप्पर

वाजिदा तबस्सुम

ज़रा हौर ऊप्पर

वाजिदा तबस्सुम

MORE BYवाजिदा तबस्सुम

    स्टोरीलाइन

    एक हैदराबादी नवाब की कहानी, जो घर में बीवी के मौजूद होते हुए भी बांदियों से दिल बहलाता है। इस पर उसका बीवी के साथ बहुत झगड़ा होता है। मगर वह अपनी हरकतों से बाज़ नहीं आता। शौहर की तरफ़ से मायूस होकर उसकी बीवी भी घर में काम करने वाले नौकरों के साथ लुत्फ़ उठाने लगती है।

    नवाब साहब नौकर ख़ाने से झूमते झामते निकले तो असली चम्बेली के तेल की ख़ुशबू से उनका सारा बदन महका जा रहा था।

    अपने शानदार कमरे की बेपनाह शानदार मसहरी पर कर वो धप्प से गिरे तो सारा कमरा मुअत्तर हो गया... पाशा दुल्हन ने नाक उठा कर फ़िज़ा में कुछ सूँघते ही ख़तरा महसूस किया। अगले ही लम्हे वो नवाब साहब के पास पहुँच चुकी थीं... सरापा अंगारा बनी हुई।

    “सच्ची सच्ची बोल देव, आप काँ से आरएँ... झूट बोलने की कोशिश नक्को करो...”

    नवाब साहब एक शानदार हंसी हँसे।

    “हमना झूट बोलने की ज़रूरत भी क्या है? जो तुमे समझे वो-हिच सच है।”

    “गुल बदन के पास से आरएँ आप?”

    “मालूम है तो फिर पूछना काय को?”

    जैसे आग को किसी ने बारूद दिखा दी हो। पाशा दुल्हन ने धना-धन पहले तो तकिया कूट डाला, फिर एक एक चीज़ उठा उठा कर कमरे में फेंकनी शुरू कर दी, साथ ही साथ उनकी ज़बान भी चलती जा रही थी।

    उजाड़ अन्ने अब्बा जान और अमनी जान कैसे मरदुए के हवाले मेरे को दिए ग़ैरत शर्म तो छू कर भी नईं गई। दुनिया के मरदुए इधर उधर ताँक-झाँक करते नहीं क्या, पर उन्नो तो मेरे सामने के सामने उधम मचाए रहिएँ। हौर उजागरी तो देखो, कित्ते मज़े से बोलतें, मालूम है तो फिर पूछना काय को? मैं बोलतियों उजाड़ ये आग है कैसी की बुझती-इच नईं। कित्ते औरतों उन्ने एक मरदुए को होना जी...” अब वो साथ साथ फफक फफक कर रोने भी लगी थीं... “उजाड़ मेरे को ये ज़िंदगी नक्को। अपना राजमहल तुमिच संभालो... मेरे को आज-इच तलाख़ दे देव, मैं ऐसी काल कोंडी में नईं रहने वाली...”

    मगर जो प्यासा ज़ोर की प्यास में पानी छोड़ शराब पी कर आया हो, वो भला कहीं इतनी देर तक जागता है? और औरत की गर्मी मिले तो यूँ भी अच्छा भला मर्द पिट कर के सो जाता है... नवाब साहब भी इस वक़्त इस तमाम हंगामे से बेख़बर गहरी नींद सो चुके थे।

    कैसी ज़िंदगी पाशा दुल्हन गुज़ार रही थीं। ब्याह कर आईं तो बीस से उधर ही थीं। अच्छे बुरे की इतनी भी तमीज़ थी कि मियाँ के पैर दुखें तो रात बे-रात ख़ुद ही दबा दें। जवानी की नींद यूँ भी कैसी होती है कि कोई घर लूट कर ले जाए और आँख तक फड़के। जब भी रातों में नवाब साहब ने दर्द की शिकायत की, उन्होंने एक करवट ले कर अपने साथ आई बांदियों में से एक-आध को मियाँ की पाइंती बिठा दिया और उसे हिदायत कर दी, “ले ज़रा सरकार के पाँव दबा दे, मेरे को तो नींद रई।”

    सुबह को ये ख़ुद भी ख़ुशबाश उठतीं और नवाब साहब भी... कभी-कभार नवाब साहब लगावट से शिकायत भी करते।

    “बेगम आप भी तो हमारे पावाँ दबा देव, आपके हाथाँ में जो लज़्ज़त मिलेगी, वो उन्ने हराम ज़ादियाँ काँ से लाएँगे।”

    मगर ये बिलबिला जातीं... “हौर ये एक नवी बात सुनो, मैं भला पावाँ दबाने के लायख़ हूँ क्या, इस वास्ते तो अमनी जान बांदियाँ की एक फ़ौज मेरे साथ कर को दिए कि बेटी को तख़्लीफ़ नईं होना बोल के।”

    और नवाब साहब दिल में बोलते... ख़ुदा करे तुमे हौर गहरी नींद सो... तुम्हारे सोते-इच हमारे वास्ते तो जन्नत के दरवाज़े खुल जा तईं।

    मगर धीरे धीरे पाशा दुल्हन पर ये भेद यूँ खुला कि नवाब साहब नई-नवेली दुल्हन से एक सर बेगाना होते चले गए... अब ब्याही भरी थीं इतना तो मालूम ही था कि जिस तरह पेट की एक भूक होती है और भूक लगने पर खाना खाया जाता है उसी तरह जिस्म की एक भूक होती है और उस भूक को भी बहर तौर मिटाया ही जाता है। फिर नवाब साहब ऐसे कैसे मर्द थे कि बराबर में ख़ुशबुओं में बसी दुल्हन होती और वो हाथ तक लगाते... और अब तो ये भी होने लगा था कि रात बे-रात कभी उनकी आँख खुलती... तो देखतीं कि नवाब साहब मसहरी से ग़ायब हैं...

    अब ग़ायब हैं तो कहाँ ढूंढें? हवेली भी तो कोई ऐसी वैसी हवेली थी। हैदराबाद किन के मशहूर नवाब रियासत यार जंग की हवेली थी कि पूरी हवेली का एक ही चक्कर लगाने बैठो तो मुई टांगें टूट के चूरा हो जाएँ। फिर रफ़्ता-रफ़्ता आँखें खुलनी शुरू हुईं। कुछ साथ की ब्याही सहेलियों के तजुर्बों से पता चला कि मर्द पंद्रह पंद्रह बीस बीस दिन हाथ तक लगाए, रातों को मसहरी से ग़ायब हो जाए तो दर-अस्ल मुआमला क्या होता है... लेकिन ये ऐसी बात थी कि किसी से कुछ बोलते बनती बताते... मश्वरा भी करतीं तो किस से? और करतीं भी तो क्या कह कर? क्या ये कह कर मेरा मियाँ औरतों के फेर में पड़ गया है, उसे बचाऊँ कैसे? और साफ़ सीधी बात तो ये थी कि मर्द वही भटकते हैं जिनकी बीवियों में उन्हें अपने घुटने से बांध कर रखने का सलीक़ा नहीं होता... वो भी तो आख़िर मर्द ही होते हैं जो अपनी अधेड़ अधेड़ उम्र की बीवियों से गोंद की तरह चिपके रहते हैं। ग़रज़ हर तरफ़ से अपनी हारी अपनी मारी थी, लेकिन कर भी क्या सकती थीं? ख़ुद मियाँ से बोलने की तो कभी हिम्मत ही पड़ी। मर्द जब तक चोरी छिपे मुंह काला करता है, डरा सहमा ही रहता है और जहाँ बात खुल गई वहीं उसका मुँह भी खुल गया। फिर तो डंके की चोट कुछ करते नहीं डरता। लेकिन ज़ब्त की भी एक हद होती है... एक दिन आधी रात को ये ताक में बैठी हुई थीं, आख़िर शादी के इतने साल गुज़ार चुकी थीं, दो तीन बच्चों की माँ भी बन चुकी थीं, उतना हक़ तो रखती ही थीं, और अक़्ल भी कि आधी रात को जब मर्द कहीं से आए और यूँ आए कि चेहरे पर यहाँ वहाँ कालिक हो तो वो सिवा पराई औरत के काजल के और काहे की कालिक हो सकती है? क्यूँ कि बहरहाल दुनिया में अब तक ये तो नहीं हुआ है कि किसी के गुनाहों से मुँह काला हो जाए।

    जैसे ही नवाब साहब कमरे में दाख़िल हुए कि चील की तरह झपटीं और उनके चेहरे के सामने उंगलियाँ नचा कर बोलीं, “ये कालिक काँ से थोप को लाए?”

    और नवाब साहिब भी आख़िर नवाब ही थे, किसी हराम का तुख़्म तो थे नहीं, अपने ही बाप की अक़्द ख़्वानी के बाद वाली हलाल की औलाद थे, डरता उनका जूता। बड़े रसान से बोले, “ये महरु कमबख़्त बहुत काजल भर्ती है अपने आँखाँ में, लग गया होएंगा, उसी का...”

    ऐसे तहय्ये से तो पाशा दुल्हन उठी थीं मगर ये सुनकर वहीं ढेर हो गईं... अगर मर्द ज़रा भी आना कानी करे तो औरत को गालियाँ देने का मौक़ा मिल जाता है। लेकिन यहाँ तो साफ़ सीधी तरह उन्होंने गोया ऐलान कर दिया कि... “हाँ, हाँ... मैं ने भाड़ झोंका... अब बोलो!”

    पाशा दुल्हन कुछ बोल ही सकीं, बोलने को था भी क्या? जो चुपकी हुईं तो बस चुप ही लग गई। अब महल के सारे हंगामे, सारी चहल पहल, सारी धूम धाम उनके लिए बे-मानी थी। वर्ना वही पाशा दूल्हन थीं कि हर काम में घुसी पड़ती थीं... पहले तो दिल में आया कि जितनी भी ये जवान जवान हराम खोंरनियाँ हैं उन्हें सबको एक सिरे से बरतरफ़ कर दें, लेकिन रिवायत से इतनी बड़ी बग़ावत कर भी कैसे सकती थीं? फिर अपने मुक़ाबिल की हैसियत वालियों में ये मशहूर हो जाता कि अल्लाह मारे कैसे नवाबाँ हैं कि काम काज को छोकरिया नहीं रखे। बस हर तरफ़ से हार ही हार थी। दिल पर दुख की मार पड़ी तो जैसे ढेर ही हो गईं। नई नई बीमारियाँ भी सर उठाने लगीं , कमर में दर्द, सर में दर्द, पैरों में दर्द, एक एंठन थी कि जान लिये डालती। हकीम साहब बुलवाए गए, उस ज़माने के हैदराबाद में मजाल थी कि हकीम साहब महल वालियों की झपक तक देख सकें। बस पर्दे के पीछे से हाथ दिखा दिया जाता। फिर साथ में एक बीबी होतीं जो हकीमन अम्माँ कहलाती थीं... वो सारे मुआइने करतीं और यूँ दवा तजवीज़ होती बस हकीम साहब नब्ज़ देखने के गुनाहगार होते।

    पाशा दुल्हन की कैफ़ियत सुनकर हकीम साहब कुछ देर के लिए ख़ामोश रह गए उन्होंने बज़ाहिर ग़ैर मुतअल्लिक़ सी बातें पूछीं जिसका दर-अस्ल इस बीमारी से बड़ा गहरा तअल्लुक़ था।

    “नवाब साहिब कहाँ सोते हैं?”

    हकीमन अम्माँ ने पाशा दुल्हन से पूछ कर बात आगे बढ़ाई... “जी उन्नों तो मर्दाने में इच सोते हैं।”

    अब हकीम साहब बिल्कुल ख़ामोश रह गए। सू-ए-अदब! कुछ कहते तो मुश्किल, कहते तो मुश्किल। बहरहाल एक तेल मालिश के लिए दे गए।

    पाशा दुल्हन को उन कमबख़्त बांदियों से नफ़रत हो गई थी। बस चलता कि सामने आतीं और ये कच्चा चबा जातीं। बांदियों में से किसी को उन्होंने अपने काम के लिए चुना। हवेली का ही पाला हुआ छोटा सा छोकरा था। उन्होंने तय कर लिया कि मालिश उसी से कराएंगी। चौदह पंद्रह बरस के छोकरे से क्या शर्म?

    इसी बीच में दो तीन बार नवाब साहब और दुल्हन पाशा की ख़ूब ज़ोरदार लड़ाई हुई। शुक्र है कि जो नौबत तलाक़ तक पहुँची। अब तो नवाब साहब खुल्लम खुल्ला कहते थे... . “हाँ मैं आज उसके साथ रात गुज़ारा। उसके साथ मस्ती किया, तुम कुछ बोलना है?”

    पाशा दुल्हन भी जी खोल कर कोसतीं, काटतीं। एक दिन दबे अल्फ़ाज़ में जब उन्होंने अपनी भूक का ज़िक्र किया तो नवाब साहब ज़रा हैरत से उन्हें देख कर बोले, “देखो अल्लाह मियाँ को मालूम था कि मर्द को कुछ ज़्यादा होना पड़ता, इस वास्ते-इच अल्लाह मियाँ मर्दों को चार, चार शादियों की इजाज़त दिया। ऐसा होता तो औरताँ को क्यूँ नईं दे देता था।”

    ये एक ऐसा नुक्ता नवाब साहब ने पकड़ा कि पाशा दुल्हन तो बिल्कुल ही ला-जवाब हो कर रह गईं और यूँ रही सही जो भी पर्दादारी थी बिल्कुल ही ख़त्म हो कर रह गई। उस सुबह ही की बात थी कि उन्होंने सर में तेल डालने को चम्बेली के तेल की शीशी उठाई और वो कमबख़्त हाथ से ऐसी छुटी कि नदी सी बह उठी। घबरा कर उन्होंने पास खड़ी गुल बदन को पुकारा, बेकार बह को जारा तू-इच अपने सर में चपड़ ले।

    और रात को वो सारी ख़ुशबू नवाब साहब के बदन में मुंतक़िल हो गई, जिसके बारे में एलान करते हुए उन्हें ज़रा सी झिजक या शर्म महसूस नहीं हुई।

    “पता नहीं ये कौन लोग हैं जो कहते हैं औरत बीसी और घीसी। औरत तो तीस की हो कर कुछ और ही चीज़ हो जाती है।” उन दिनों कोई पाशा दूल्हन का रूप देखता।

    चढ़ते चांद की सी जवानी, पोर पोर चटख़ा पड़ता। बरसात की रातों में उनके जिस्म में वो तनाव पैदा हो जाता जो किसी उस्ताद के कसे हुए सितार में क्या होगा। इतना सा छोकरा क्या और उस की बिसात क्या। सर और कमर से निपट कर वो पैरों के पास कर बैठता तो उसके हाथ दुख दुख जाते। पिंडलियों को जितनी ज़ोर से दबाता, वो यही कहे जाती,

    “कित्ते! हल्लो हल्लो दबाता रे तू... ज़रा तो ताक़त लगा।”

    चौदह पंद्रह साल का छोकरा, डर डर के सहम सहम कर दबाए जाता कि कहीं ज़ोर से दबा देने पर पाशा डाँट दें, इतनी बड़ी हवेली की मालिक जो थीं।

    हवेली में उन दिनों ख़वातीन में कलीदार कुर्तों पर चूड़ीदार पाजामे पहनने का रिवाज था। लड़कियाँ बालियाँ ग़रारे भी पहन लेतीं... और बड़े हंगामों के बाद अब साड़ी का भी नुज़ूल हुआ था, मगर बहुत ही कम पैमाने पर...

    चूड़ीदार पाजामे में पिंडुलियाँ सिर्फ़ दबाई जा सकती थीं, तेल मालिश क्या ख़ाक होती? पाशा दूल्हन ने मामा को बुलवा कर अपने पास खड़ा किया, ये हवेली के किसी भी नौकर के लिए बड़े एज़ाज़ की बात थी। फिर पाशा बोलीं,

    “देखो ये उन्ने छोकरा रहमत है ना? उसको खाने पीने को अच्छा अच्छा देव... नाश्ते में असली घी के पराठे भी देव। उन्ने मेरे पैराँ की मालिश करता, मगर ज़रा भी उसमें ताख़त नईं। अब मैं जित्ता को दी।”

    फिर ख़ुद उन्होंने ग़रारा पहनना शुरू कर दिया ताकि पिंडलियों की अच्छी तरह मालिश हो सके और उन्हें दर्द से नजात मिले।

    अब जो दोपहर को मालिश शुरू होती तो एक ही मुकालमे की गर्दान रहमत के कानों से टकराती।

    “ज़रा हौर ऊप्पर!”

    वो सहम सहम कर मालिश करता, डर डर कर पाशा का मुँह तकता। तेल में उंगलियाँ चपड़ कर वो ग़रारा डरते डरते ज़रा ऊपर खिसकाता कि कहीं सजर, इतलास या कमख़ाब के ग़रारे को तेल के धब्बे बदनुमा बना दें। चमचमाती पिंडलियाँ तेल की मालिश से आइना बनती जा रही थीं। रहमत ग़ौर से देखते देखते घबरा घबरा कर उठता कि कहीं उनमें उसका चेहरा दिखाई दे जाए।

    एक रात दुल्हन पाशा के पैरों में कुछ ज़्यादा ही दर्द और ऐंठन थी। रहमत मालिश करने बैठा तो सहम्ते सहम्ते उसने पिंडलियों तक ग़रारा खिसकाया।

    “ज़रा हौर ऊप्पर,” दुल्हन पाशा कसमसा कर बोलीं, “आज उजाड़ इत्ता दर्द हो रिया कि मेरे को बुख़ार जैसा लग रिया। घुटनों तक मालिश कर ज़रा, तू तो ख़ाली बस पिंडलियाँ-इच दबा रिया।”

    रहमत ने बुख़ार की सी कैफ़ियत अपने अंदर महसूस की। उसने लरज़ते हाथों से ग़रारा और “ऊपर” खिसकाया और एक दम नारियल की तरह चिकने चिकने और सफ़ेद मुदव्वर घुटने देख कर बौखला सा गया। तर तराते घी के पराठों, दिन रात के मेवों और मुरग्ग़न खानों ने उसे वक़्त से पहले ही इस मुक़ाम पर ला खड़ा किया था, जहाँ नींद की बजाए जागते में ऐसे वैसे ख़्वाब दिखाई देने लगते हैं। उसने हड़बड़ा कर ग़रारा टख़नों तक खींच दिया तो ऊँघती हुई पाशा दुल्हन भन्ना गईं,

    “हौ रे, मैं क्या बोल रई हो, तू क्या कर रिया?” उन्होंने ज़रा सर उठा कर ग़ुस्से से कहा... वहाँ उनके सिरहाने सनसनाता हुआ, जवान होता हुआ, वो छोकरा बैठा था जिसे उन्होंने इसलिए चुना था कि उन्हें छोकरियों से अज़-हद नफ़रत हो गई थी कि... कमबख़्तें उनके मियाँ को हथिया हथिया लेती थीं।

    उन्होंने ग़ौर से उसे देखा। उसने भी डरते डरते सहमी, मगर ज़रा ग़ौर से उन्हें देखा और इक-दम सर झुका लिया।

    ठीक उसी वक़्त नवाब साहब कमरे में दाख़िल हो गए। जाने कौन सा नशा चढ़ा कर आए थे कि झूले ही जा रहे थे। आँखें चढ़ी पड़ रही थीं। मगर इतने नशे में भी बेगम के क़दमों में उसे बैठा देखकर चौंक उठे।

    “ये इन्ने हरामज़ादा मुस्टंडा यहाँ क्या करने को आया बोल के?”

    रहमत तो नवाब साहब को देखते ही दुम दबा कर भाग गया मगर पाशा दुल्हन बड़ी रऊनत से बोलीं, “आप को मेरे बीच में बोलने का क्या हख़ है?”

    “हख़?” वो घूर कर बोले, “तुम्हारा धगड़ा हूँ , कोई पालकड़ा नईं , समझे। रही हख़ की बात, सो ये हख़ अल्लाह और उसका रसूल दिया... कौन था वो मर्दूद?”

    “आप इतने सालाँ हो गए, आप इको एक छोकरी से पावाँ दबाए रईं, हौर अल्लाह मालूम हौर क्या-क्या तमाशे कर ले रईं, वो सब कुछ नईं, हौर मैं कभी दुख में, बीमारी में मालिश कराने एक आध छोकरे को बिठा ली तो इत्ते हिसाबाँ काय को?”

    “इस वास्ते की मर्द बोले तो दालान में बिछा ख़ालीन होता कि कित्ते भी पावाँ उसपे पड़े तो कुछ फ़र्ख़ नईं पड़ता। हौर औरत बोले तो इज़्ज़त की सफ़ेद चद्दर होती कि ज़रा भी धब्बा पड़ा तो सबकी नज़र पड़ जाती...”

    दुल्हन पाशा बिलबिला कर बोलीं, “उई अम्माँ, बड़ी तुम्हारी इज़्ज़त जी, हौर तुम्हारी बड़ी शान, अपने दामन में इत्ते दाग़ाँ रख को दूसरे को क्या नाम रखते जी तुमे, हौर कुछ नईं तो इत्ते से पोट्टे के उपर इत्ता वावेला कर लेते बैठें।”

    एक-दम नवाब साहब चिल्लाए, “तुमना उन्नो पोट्टा इत्ता इत्ता सा दिखता? अरे आज उसकी शादी करो नौ महीने में बाप बन कर दिखा देंगा। मैं जता दिया आज से उसका पाँव नईं दिखना तुम्हारे कमरे में...”

    पाशा दुल्हन तन कर बोलीं, “हौर दिखा तो?”

    “दिखा तो तलाख़...” वो आख़िरी फ़ैसला सुनाते हुए बोले।

    “अभी खड़े खड़े दे देव। पाशा दुल्हन उसी तहय्ये से बोलीं।

    एक दम नवाब साहब सटपटा कर रह गए। बारह तेरह साल में कितनी बार तू तू, मैं मैं हुई, कितने रगड़े झगड़े हुए... बा-इज़्ज़त, बा-वक़ार दो ख़ानदानों के मुअज़्ज़ज़ मियाँ बीवी, जो पहले एक दूसरे को आप आप कहते थकते थे अब तुम तमार तक गए थे... मगर ये नौबत तो कभी आई थी, ख़ुद पाशा दुल्हन ने ही कई बार ये पेशकश की कि ऐसी ज़िंदगी से तो उजाड़ मेरे को तलाख़ दे देव... लेकिन ये कभी हुआ था कि ख़ुद नवाब साहब ने ये फ़ाल-ए-बद मुँह से निकाली हो... और अब मुंह से निकाली भी तो ये कहाँ सोचा था कि वो कहेंगी कि “हाँ... अभी खड़े खड़े दे देव!!”

    मगर पाशा दुल्हन की बात पूरी नहीं हुई थी। एक एक लफ़्ज़ पे ज़ोर देते हुए वो तमतमाते चेहरे के साथ बोलीं... “हौर तलाख़ लिये बाद सारे हैदराबाद को सुनाती फिरूँगी कि तुमे औरत के लाएख़ मर्द नईं थे। ये बच्चे तुम्हारे नईं। अब छोड़ो मेरे को... हौर देव मेरे को तलाख़!”

    ये औरत चाहती क्या है आख़िर?... नवाब साहब ने सर पकड़ लिया... उन्होंने ज़रा शक भरी नज़रों से बीबी को देखा... कहीं दिमाग़ी हालत मुश्तब्हा तो नहीं वो सुना रही थीं।

    “इस हवेली में दुख उठाई मैं... तुम्हारे होते अब सुख मैं भी उठाऊँगी... तुम्हारे इच होते सुन लेयो।”

    दूसरी रात पाशा दुल्हन ने सरसराती रेशमी साड़ी और लहंगा पहना। ख़ुद भी तो रेशम की बनी हुई थीं। अपने आप में फिसली पड़ रही थीं। फिर जब रहमत मालिश करने बैठा तो बस बैठा ही रह गया।

    “देखता क्या है रे? हाथों में दम नईं क्या?”

    उसने सरसराता लहंगा डरते डरते ज़रा ऊपर किया।

    “इसको मालिश बोलते क्या रे निकम्मे! उनकी डाँट में लगावट भी थी।

    रहमत ने सुर्ख़ होती कानों से फिर और सुना... “ज़रा हौर ऊप्पर।”

    “ज़रा हौर ऊप्पर...”

    गहरे ऊदे रंग का लहंगा और गहरे रंग की साड़ी ज़रा ऊपर हुई और जैसे बादलों में बिजलियाँ कौंदीं।

    “ज़रा हौर ऊप्पर...”

    “ज़रा हौर ऊप्पर...”

    “ज़रा हौर ऊप्पर...”

    “ज़रा हौर ऊप्पर...”

    तिलमिला कर संदल के तेल से भरी कटोरी उठा कर रहमत ने दूर फेंक दी, और उस बुलंदी पर पहुंच गया जहाँ तक एक मर्द पहुँच सकता है और जिसके बाद “ज़रा हौर ऊप्पर” कहने सुनने की

    ज़रूरत ही बाक़ी नहीं रहती।

    दूसरे दिन पाशा दुल्हन फूल की तरह खिली हुई थीं। संदल उनकी मन पसंद ख़ुशबू थी। संदल की महक से उनका जिस्म लदा हुआ था... नवाब साहब ने रहमत से पानी मांगा तो वो बड़े अदब से चांदी की तश्तरी में चांदी का गिलास रख कर लाया... झुक कर पानी पेश किया तो उन्हें ऐसा लगा कि वो संदल की ख़ुशबू में डूबे जा रहे हैं। गिलास उठाते उठाते उन्होंने मुड़ कर बेगम को देखा जो रेशमी गुदगुदे बिस्तर में अपने बालों का सियाह आबशार फैलाए खिली जा रही थीं... एक फ़ातेह मुस्कुराहट उनके चेहरे पर थी।

    वो उन्हें सुनाने को रहमत की तरफ़ देखते हुए ज़ोर से बोले, “कल तेरे को गाँव जाने का है, वहाँ पर एक मुंशी की ज़रूरत है बोल के।”

    रहमत ने सर झुका कर कहा, “जो हुक्म सरकार...”

    नवाब साहब ने पाशा दुल्हन की तरफ़ मुस्कुरा कर देखा... एक फ़ातेह की मुस्कुराहट।

    दो घंटे बाद पाशा दुल्हन अपनी शानदार हवेली के बे-पनाह शानदार बावर्चीख़ाने में खड़ी मामा को हिदायत दे रही थीं।

    “देखो मामा बी, उन्ने ये अपनी ज़ुबैदा का छोकरा है शरफ़ू... उस को ज़रा अच्छा खाना दिया करना... आज से ये मेरे पावाँ दबाया करेंगा... मालिश करने को ज़रा हाथाँ पावाँ में दम होने को होना

    ना?”

    “बरोबर बोलते बी पाशा आप।” मामा बी ने असली घी टपकता अंडों का हलवा शरफ़ू के सामने रखते हुए पाशा दुल्हन के हुक्म की तामील उसी घड़ी से शुरू कर दी।

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Rekhta Gujarati Utsav I Vadodara - 5th Jan 25 I Mumbai - 11th Jan 25 I Bhavnagar - 19th Jan 25

    Register for free
    बोलिए