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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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वेतन पर उद्धरण

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मज़मून निगार दिमाग़ी अय्याश नहीं। अफ़्साना निगार ख़ैराती हस्पताल नहीं हैं। हम लोगों के दिमाग़ लंगर-ख़ाने नहीं हैं।

सआदत हसन मंटो
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हिन्दी हिन्दुस्तानी और उर्दू हिन्दी के क़ज़िये से हमें कोई वास्ता नहीं। हम अपनी मेहनत के दाम चाहते हैं। मज़मून-नवीसी हमारा पेशा है, फिर क्या वजह है कि हम उस के ज़रीये से ज़िंदा रहने का मुतालिबा ना करें। जो पर्चे, जो रिसाले, जो अख़बार हमारी तहरीरों के दाम अदा नहीं कर सकते बिलकुल बंद हो जाने चाहिऐं।

सआदत हसन मंटो
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सबसे बड़ी शिकायत मुझे उन अदीबों, शायरों और अफ़साना निगारों से है जो अख़बारों और रिसालों में बग़ैर मुआवज़े के मज़मून भेजते हैं। वो क्यों उस चीज़ को पालते हैं जो एक खील भी उनके मुँह में नहीं डालती। वो क्यों ऐसा काम करते हैं जिससे उनको ज़ाती फ़ायदा नहीं पहुंचता। वो क्यों उन काग़ज़ों पर नक़्श-ओ-निगार बनाते हैं जो उनके लिए कफ़न का काम भी नहीं दे सकते।

सआदत हसन मंटो
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ज़बान और अदब की ख़िदमत हो सकती है सिर्फ़ अदीबों और ज़बान-दानों की हौसला-अफ़ज़ाई से। और हौसला-अफ़ज़ाई सिर्फ उनकी मेहनत का मुआवज़ा अदा करने ही से हो सकती है।

सआदत हसन मंटो

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