आब-ए-रवाँ
बस में खिड़की से लगा मैं रोडवेज़ बसों की तंग-दामनी पर ग़ौर-ओ-फ़िक्र ही कर रहा था कि बस अचानक एक तेज़ झटके से रुक गयी। बस में सवार दर्जनों ज़बानों पर मुश्तरका तौर पर मुग़ल्लिज़ात का विर्द सा हुआ। मैंने खिड़की से ज़रा झाँक कर जो देखा तो कुछ नज़र ना आया। कंडक्टर के बताने पर माजरा खुला। ये कोई ख़ातून थीं जो बस को रुकवाने की ग़र्ज़ से तक़रीबन बस के आगे ही आ गयी थीं। ड्राइवर बेचारा लाचार-ओ-मददगार। बस रुकी। और रफ़्ता-रफ़्ता कारवान-ए-अत्फ़ाल नमूदार हुआ। पहले चीख़ता-चिल्लाता सा एक बच्चा अंदर आया। फिर दूसरा, फिर तीसरा...
मैंने कुल मर्दुम-शुमारी की ग़रज़ से फिर अपना गुनहगार सिर बाहर निकाला। देखता क्या हूँ कि दरवाज़े पर कस्र-ए-जमील अवमुन्नास का एक हुजूम है। जिसमें बच्चों और बेगों को अलग-अलग ना गिना जा सका। मगर कोई ख़ातून कहीं नज़र न आयीं। बच्चे और बेग अंदर दाख़िल हुए जाते थे। यके-बाद दिगरे पूरे छः बच्चे और तक़रीबन उतने ही बेग अंदर आ गए तो ड्राइवर ने दरवाज़े से नज़र हटा लीं। और चलने के लिए ज़रा हरकत में ही आया था कि एक साथ उन सभी ने शोर मचा दिया।
“अम्मीऽऽऽऽऽ...”
“हमारी अम्मी रे गयींऽऽऽऽऽ...”
फिर झटके से ब्रेक लगे।
पूरी बस में एक ख़ामोशी सी थी। बस के दरवाज़े से कुछ मुग़ल्लिजात की आवाज़ें आने लगीं। और सबकी नज़रें दरवाज़े की तरफ़ टिक गईं। कंडक्टर ने उठ कर मदद की तो एक मोटी औरत हाथ में एक नाज़ुक़ सी बच्ची दबाए, दरवाज़े में फँसती-फँसाती सी ऊपर चढ़ी। वुसअत और फ़रावानी का ये आलम कि महज़ लफ़्ज़ ‘‘मोटी’’ से हक़ अदा नहीं होता। अंदर आईं तो पहले तो अंदर आते ही एक बच्चे (जिसका सिन पाँच का होगा) के गाल पर पिनपिनाता सा तमाचा आ रखा।
“सत्यनासी! चूल्हे सरके! गुलप्सा कू पकड़ ना सकेया।”
लड़का बेचारा पशेमान हुआ और एहसास-ए-निदामत में अपने हम-प्याला-ओ-हम-निवाला छोटे या बड़े भाई की कमर में एक गुट जड़ते हुए बोला, “तुस्से पैलेई कैराआ”
ये ख़ातून-ए-जन्नत अब ऐन उस जगह खड़ी थीं कि जहाँ कुछ देर पहले एक शख़्स कम्पनी के प्रचार और हम लोगों के फ़ायदे की ख़ातिर ख़ुद को बर्बाद कर देने पर तुला था। इन बीबी का हुलिया तो ज़रा मुलाहिज़ा हो। साँस फूल रही थी। चेहरा अभी भी ग़ुस्से से तमतमा रहा था। गुलप्सा को हाथों में फँसाए अपनी लहलहाती फ़सल के बीच खड़ी थीं। अगर उनका वुजूद किसी पतली छड़ी का सा होता तो हम उनकी तशबीह लकड़ी के उस पुतले से देते कि जो फ़सल के बीच परिंदों को डराने की ग़रज़ से लगाए जाते हैं। मगर उस वक़्त तो हालात ये थे कि ये बीबी पूरी बस को ख़ौफ़-ज़दा करने के लिए काफ़ी थीं। सुर्ख़ सा जोड़ा ज़ेब-ए-तन, दुपट्टा फ़ितरत से आज़ाद, ज़ुल्फ़ें उलझी हुईं मगर शायर उन्हें सुलझाने का मुतमन्नी नहीं। आँखों में काजल, मगर चुटकी भर नहीं, बल्कि कटोरी भर। बच्चों को देख कर मालूम होता था कि ग़ालिबन उन बच्चों के अब्बा काजल बनाने वाले किसी कारख़ाने में मुलाज़िम थे। गालों पर सुर्ख़ी के हल्क़े बने हुए थे। और आँखों के काजल आँसुओं के आबशारों मे बहता इसी लाली-ए-गुलफ़ाम से सागर में जा मिलती थी।
बेगम साहिबा मेरे क़रीब आईं तो वही हुआ। जिसके न होने की दुआएँ कर रहा था। डेढ़ अफ़राद की गुंजाइश वाली उस सीट पर खिड़की से चिपका मैं और अंदर की तरफ़ टेक लगाए शरीफ़ नौजवान बैठा था। मगर इस शराफ़त या हिमाक़त पर क्या कहिए कि जैसे ही बीबी ने हमारे क़रीब आकर मासूम नज़रों से देखा तो ‘‘मारे शरम के अकबर ग़ैरत-ए-क़ौमी से गड़ गया।’’ फ़ौरन उठ खड़ा हुआ और सीट पेश की। मैं अभी सीट की पैमाईश और ख़ुद के तहफ़्फ़ुज़ ही के मंसूबे बना रहा था कि एक स्काइलेब तक़रीबन मेरे ऊपर आ गिरा। मुझे तो मौक़ा ना मिल सका लेकिन बस की चीख़ सी निकल गयी। और एक तरफ़ झुक गई। फ़स्ल-ए-बहाराँ आस-पास खड़ी लहलहा रही थी। बग़ल मे दबी गुलप्सा का मुँह मेरे ऐन कंधे पर। उसकी नाक से आब-ए-रवाँ उसके सुर्ख़ होंठों से होता हुआ मेरे कंधे की सिस्त बाँध रहा था।
उस गुलिस्तान-ए-अत्फ़ाल को जो इतने क़रीब से देखा तो ये इंकिशाफ़ हुआ कि शायद उनके अब्बा के कारख़ाने में लिपस्टिक भी बनाई जाती हो। तमाम बच्चों के लबों पर हया की सुर्ख़ी फैली थी। बिना मर्द-ओ-ख़्वातीन की तफ़रीक के।
एक सबसे वाज़ेह ख़ौफ़ जो उन हालात में लाहक़ होता है, वो ये कि इस सूरत में किसी ख़ल्क़-ए-ख़ुदावंद को उल्टी ना हो जाए।
ज़ाहिर है ऐसे हालात में दुआ ही की जा सकती है। लिहाज़ा मैं बड़े दिल-सोज़ लहजे में दुआ-गो हुआ कि “ऐ मेरे परवरदिगार! तेरे हबीब ने हमसे कहा है कि सफ़ाई आधा ईमान है। तो ऐ हमारे रब! बस मेरे ईमान की हिफ़ाज़त फ़रमा। मुझ गुनहगार को आज़माइश में न डाल।”
मगर ख़ुदा की अपनी मसलिहत होती है। उसे तो आज़माइश ही में डालना मंज़ूर था। लिहाज़ा वही हुआ...
अल्लाह जब किसी पर आज़माइश डालता है तो उससे निकलने की क़ुव्वत भी बख़्शता है। लड़के ने जो बुरा सा मुँह बना कर मुँह खोला तो किरामन-कातिबीन ने कान में अपनी पिंसिल चुभो कर टहोका दिया। और मैं उछल कर सीट के ऊपर खड़ा हो गया। सिर समान के मचान से टकराया। गशी सी आ गयी। मगर ख़ैर हो। कपड़े बच गए। अब जो बेगम साहिबा को देखा तो हसरत का वो शेर सादिक़ आता था,
अल्लाह रे जिस्म-ए-यार कि ख़ूबी कि ख़ुद-ब-ख़ुद
रंगीनियों में डूब गया पैरहन तमाम...
आँखों में दहकते शोअ्ले लिए बच्चे की तरफ़ जो देखा तो मारे ख़ौफ़ के उसकी पैंट भी भीग गई, और आब-ए-गुम आहिस्ता-आहिस्ता जूतों से नमूदार हुआ। बाक़ी बच्चे आने वाली शामत को भाँप कर हरकत में आ गए। कुछ रोने लगे और जो ज़रा समझदार थे उन्होंने अपने गालों को तमाचे की हद से दूर कर लिया। ये सरापा मुजरिम बेगम साहिबा के पैरों में फँसा हुआ था तो हिल ना सका और सारा ग़ज़ब उसी पर नाज़िल हुआ।
अल-अमान! अल-हफ़ीज़!
वो लिटा-लिटा कर कुटाई हुई कि रहे नाम मालिक का। लोग दूर-दूर से चिल्लाते रहे।
“बीबी जाने दें!”
“बीबी बच्चा है!”
“भेन कोई बात नाए बच्चा है!”
“भेन अब ना करेगा...”
क़रीब कोई न आया कि कहीं ख़ुद भी इस अज़ाब की ज़द मे न पकड़ लिया जाए। मैं अब तक सीट पर खड़ा फ़ैसला नहीं कर पा रहा था कि गोया उतरना है या अभी किसी और सानेहा के गुज़र जाने का इंतिज़ार करना है।
बस एक स्टॉप तक पहुँची तो मैं सीटों पर उछलता फाँदता दरवाज़े तक पहुँचा। बस से उतरने ही वाला था कि शोर हुआ। पीछे मुड़ कर देखा तो इस बार गुलप्सा बेगम जान को पानी-पानी कर चुकी थी।
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