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दास्ताँ टिकटों की

यूसूफ़ नाज़िम

दास्ताँ टिकटों की

यूसूफ़ नाज़िम

MORE BYयूसूफ़ नाज़िम

    टिकट बीसियों क़िस्म के होते हैं और हर शख़्स को अपनी रोज़मर्रा ज़िंदगी में किसी किसी टिकट ‎से ज़रूर वास्ता पड़ता है। उन टिक्टों की शक्ल सूरत, क़द-ओ-क़ामत और जसामत ये सारी चीज़ें ‎अलग अलग नमूने की होती हैं। उनमें बस एक ही चीज़ मुश्तर्क होती है वो ये कि ये सब के सब ‎बहुत गिरां होते हैं और किसी भी दिन उनकी क़ीमत में इज़ाफ़ा हो सकता है। एक ज़माना था जब ‎हमारे यहां सिर्फ़ महबूब की कमर नहीं हुआ करती थी। अब अवाम की भी कमर नहीं होती। ये टूट ‎चुकी है।

    बस के टिकट, बस के टिकट हवा में उड़ने वाले टिकट होते हैं। तितली के परों की तरह महीन लेकिन ‎हसीन नहीं, छोटे छोटे मुस्ततील शक्ल के ये टिकट छपते तो काग़ज़ ही पर हैं लेकिन उस नमूने का ‎काग़ज़ सिर्फ़ महक्मा-ए-ट्रांसपोर्ट के क़ब्ज़े से बरामद हो सकता है। ये काग़ज़ ख़ुसूसी तौर पर सिर्फ़ ‎उसी महक्मे के लिए ईजाद किया गया है, उसे किसी दूसरे मसरफ़ में नहीं लाया जा सकता। स्टेट ‎ट्रांसपोर्ट की बसों से सफ़र करने वाले मुसाफ़िरों को यकमुश्त कई पुर्जे़ पकड़ा दिए जाते हैं, जो ‎अलैहदा अलैहदा क़ीमतों के होते हैं और कोई भी मुसाफ़िर उनकी रक़म ठीक से जोड़ नहीं सकता।

    काफ़ी सफ़र उसी जमा तफ़रीक़ में कट जाता है। ठीक है बस में दूसरा कोई काम होता भी नहीं है ‎और बस कंडक्टर टिकट फ़रोख़्त करने के फ़ौरन बाद रोशनी गुल कर देता है (ताकि कोई मुसाफ़िर ‎टिकटों की रक़म जोड़ ले) बी एस टी की बसों के टिकट पर काफ़ी लिट्रेचर छपा होता है। ‎मुश्किल ये है कि बस के मुसाफ़िर अदब-ए-आलिया पढ़ते नहीं हैं, पढ़ना चाहिए। अदब-ए-आलिया ‎पढ़ने से मुस्तक़बिल रोशन होता है लेकिन मुसाफ़िर उस टिकट के मुताले से इसलिए भी महफ़ूज़ ‎रहते हैं कि ये उनके खाने का वक़्त होता है यानी धक्के खाने का। बस की राहदारी में आदमी और ‎क्या खा सकता है। नशिस्तों पर बैठे हुए मुसाफ़िर भी ये टिकट नहीं पढ़ते।

    हर स्टप पर उनके हमसफ़र का तबादला अमल में आता है और नए हमसफ़र को देखने उसके ‎लिबास का जायज़ा लेने और अगर हमनशीं किसी वजह से जिन्स मुख़ालिफ़ से ताल्लुक़ रखने वाला ‎‎(वाली) हो तो उसे ख़तरे में डालने या हिफ़ाज़त ख़ुद इख़्तियारी के सिलसिले में इतना वक़्त सर्फ़ ‎होजाता है कि टिकट पर के मतबूआ अदब से वो मुस्तफ़ीद नहीं हो सकता। इस महरूमी का नतीजा ‎ये होता है कि मुसाफ़िरों को ये पता नहीं चलता कि उन्होंने टिकट की क़ीमत के अलावा एक और ‎टैक्स भी अदा किया है जो पैदल चलने वालों या अपनी सवारी में सफ़र करने वाले शहरियों से वसूल ‎नहीं किया जाता है।

    बस का टिकट ख़रीदने पर कुछ दिनों से टिकट के साथ एक और पुरज़ा आपकी ख़िदमत में पेश ‎किया जाने लगा है। उसे कूपन कहते हैं, उसकी तबाअत के लिए भी महक्मा मज़कूरा ही नादिर-ओ-‎नायाब काग़ज़ इस्तेमाल करता है जिसे काग़ज़ कहते हुए बा’ज़ लोग शर्म महसूस करते हैं। ये कूपन ‎टिकट के मुक़ाबले में ज़्यादा नरम-ओ-नाज़ुक होते हैं और अगर आप उन्हें छूएं तो महसूस तक नहीं ‎होता कि आपने कोई चीज़ छूई है। ये इतना नहीफ़ और हल्का फुलका शायद इसलिए हो जाता है कि ‎ये एक दिन में सौ पच्चास हाथों के लम्स का बार उठाता है। उसे सूघिंए, बशर्ते कि आप में उसकी ‎हिम्मत हो तो हर कूपन से एक अलैहदा महक आती है। किसी से नास की किसी से धनिए की। ‎किसी से सास की किसी से बनिए की। उन कूपनों पर उनकी तारीख़-ए-वफ़ात भी दर्ज होती है जो ‎हरगिज़ हरगिज़ नहीं पढ़ी जा सकती।

    बस कंडक्टर अलबत्ता दूर ही से मुतवफ़्फ़ी कूपनों को पहचान लेता है और उस डेड बॉडी को हाथ नहीं ‎लगाता। बहुत से कूपन तो सिर्फ़ इसलिए मर जाते हैं कि आपको बस में चढ़ने का फ़न नहीं आता। ‎बस में चढ़ने के लिए जो लोग बस स्टॉप पर खड़े रहना पसंद करते हैं उनकी क़िस्मत में बस का ‎सफ़र नहीं होता। बसों ने कब से बस स्टॉप से अपने ताल्लुक़ात मुनक़ते कर लिए हैं। उन्हें अब सिर्फ़ ‎वही हाथ रोक सकता है जो किसी सियासी जमात का निशान इंतिख़ाब हो। बाक़ी के सारे हाथ तो ‎सिर्फ़ फैलाने के काम के रह गए हैं।

    बस के टिकट एक ऐसे खुले टिकट दान में रख जाते हैं जो जस्त के बने होते हैं और वक़्त पड़ने ‎पर असलहा का काम देते हैं। मुसाफ़िर बस कंडक्टर के मिज़ाज और उस हथियार की माहियत से ‎वाक़िफ़ होने की बिना पर अपनी हद में रहते हैं। मुसाफ़िरों और बस कंडक्टरों को आज तक आँख से ‎आँख मिलाकर बात करते हुए नहीं देखा गया। मुसाफ़िरों की नज़रें हमेशा झुकी रहती हैं। बस ‎कंडक्टरों के इंतिख़ाब के वक़्त उनकी आँखों पर ख़ास तवज्जो की जाती है। जिस उम्मीदवार का ‎चेहरा करख़्त और आँखें ख़ुशमगीं होती हैं उनका इंतिख़ाब यक़ीनी होता है। दूसरों को ट्रेनिंग देनी ‎पड़ती है। (वैसे जमाल हम नशीन भी काफ़ी होता है)

    रेल का टिकट, रेल का टिकट भी उतना ही पुराना है जितनी कि हमारी रेलें। हमें चूँकि मख़तूतात ‎और नवादिरात से भी शग़फ़ है इसलिए हमने बिसात भर कोशिश की कि रेल के टिकट का कोई ‎क़दीम नुस्ख़ा कहीं से दस्तयाब हो जाये लेकिन इसमें नाकामी हुई। एक म्यूज़ियम के काफ़ी सीनियर ‎ओहदेदार ने अलबत्ता हमें समझाया कि रेल के टिकट के क़दीम नमूनों की तलाश करने में वक़्त ‎ज़ाए किया जाये क्योंकि उसका ताज़ा-तरीन टिकट भी देखने में कम से कम पच्चास साल पुराना ‎तो नज़र आता ही है। हमने ताज़ा-तरीन एडिशन का एक रेलवे टिकट और एक 12, 15 साल के पुराने ‎का तक़ाबुली मुतालिआ किया तो मालूम हुआ कि दोनों तस्नीफ़ात बजिन्सा एक हैं।

    रेल का टिकट जैसा कि आपने भी देखा होगा काग़ज़ का नहीं हुआ करता। ये दफ़्ती (जिसे मिक़्वा ‎भी कहते हैं) के ढाई इंच ज़रब सवा इंच के टुकड़े पर शाया किया जाता है। उस टिकट का लम्स ‎डबल रोटी के ऊपरी हिस्से की याद दिलाता है, जैसा कि आपने महसूस किया होगा डबल रोटी का ‎बालाई हिस्सा अजीबोगरीब ख़ुसुसियात का हामिल होता है, ये नरम होता है सख़्त। रेल के ‎टिकट की भी यही कैफ़ियत है। उसकी सबसे नुमायां ख़ुसूसियत ये है कि ये फटता नहीं है। ये इस ‎पुरग़ुरूर सर की तरह होता है जो झुक तो सकता है कट नहीं सकता।

    आपके हाथ के पसीने की नमी उसे बोदा तो कर सकती है लेकिन इससे ज़्यादा उसका कुछ नहीं ‎बिगाड़ सकती। हाँ, आप उसे कुछ देर पानी में भिगा कर रखें तो मालूम होगा कि ये टिकट तो कई ‎परत का था। एक टिकट में 4, 5 परतें तो होती ही हैं। ये टिकट बुनियादी तौर पर ज़र्दी माइल रंग ‎का होता है लेकिन ये उसके रंग का सही नाम नहीं है। उसके रंग को ठीक तौर पर अलफ़ाज़ में ‎बयान नहीं किया जा सकता। टिकट को देखकर आप मालूम कर सकेंगे कि ये कैसा रंग है। नाज़ुक ‎तबा ख़वातीन की नज़र उस टिकट पर नहीं पड़नी चाहिए। उनकी तबीयत बिगड़ सकती है (सफ़र में ‎बीमार होना मुनासिब नहीं है) उस टिकट पर और बहुत से मुंदरजात के अलावा उसकी क़ीमत दर्ज ‎होती है लेकिन ये मंसूख़ शुदा क़ीमत होती है। उसकी असली क़ीमत बुकिंग क्लर्क उसी वक़्त लिखता ‎है जब आप पैसे पेशगी अदा करें।

    जिस ज़माने में हिन्दोस्तान में रेज़गारी हुआ करती थी उस वक़्त भी बाक़ी की रेज़गारी वापस नहीं ‎की जाती थी और अब तो इसका सवाल ही नहीं पैदा होता (महक्मा रेलवे में ऐसी मामूली बातों का ‎बुरा नहीं माना जाता) अगर आप महक्मा रेलवे की मज़ीद माली मदद करना चाहें तो अपनी नशिस्त ‎और बर्थ रिज़र्व करवा के सफ़र करने से ये मक़सद हासिल हो सकता है। (मदद का लफ़्ज़ हमने ‎इसलिए इस्तेमाल किया कि जब से महक्मा वुजूद में आया है नुक़्सान में चल रहा है) रिज़र्वेशन की ‎सूरत में मुसाफ़िरों को रेल के टिकट के अलावा एक ज़मीमा टिकट दिया जाता है जिस पर बुकिंग ‎क्लर्क (जो अह्ल-ए-क़लम होता है) अपना आटोग्राफ़ क़लम बंद करता है। उस ऑटोग्राफ में जो कुछ ‎लिखा होता है उसे आप नहीं पढ़ सकते। सफ़र पर रवाना होते वक़्त जब कई लोगों की मदद हासिल ‎करने के बाद आप एक बर्थ पर अपना बिस्तर खोल देते और जूते उतार देते हैं (और आपके मौज़ों ‎से निकलने वाली महक पूरे डिब्बे में फैल जाती है) तो कुछ ही देर में ग़ैब से एक और मुसाफ़िर ‎उसी बर्थ का रिज़र्वेशन कार्ड हाथ में थामे नमूदार होता है और आपको हैरत से देखता है कि आप ‎किस करे की मख़लूक़ हैं। आप दोनों में मुहब्बत की गुफ़्तगु छिड़ जाती है। ये रिक़्क़त आमेज़ गुफ़्तगु ‎और दिक्क़त आमेज़ सफ़र दोनों एक साथ एक ही रफ़्तार से जारी रहते हैं और कम्पार्टमेंट के कई ‎मुसाफ़िर अपनी अपनी ऐनकें और ज़रूरत हो तो टार्च लेकर उन टिकटों पर लिखे हुए रशहात-ए-‎क़लम पढ़ने की कोशिश करते हैं और जैसा कि इस मुल्क में क़ाएदे से हर शख़्स की राय एक दूसरे ‎से मुख़्तलिफ़ होती है, जब हालात एक ख़तरनाक मोड़ इख़्वतियार करलेते और आप दोनों फ़र्त-ए-‎मुहब्बत में एक दूसरे के बहुत क़रीब आजाते हैं (जिसे शायद दस्त-ओ-गरीबां होना भी कहा जाता है) ‎तो कहीं से एक वर्दी पोश शख़्स बरामद होता है। लोग दो रोया खड़े हो कर उसका इस्तिक़बाल करते ‎हैं। उस शख़्स के हाथों में काफ़ी स्टेशनरी होती है। एक चार्ट भी होता है। उस शख़्स को रेलवे की ‎मुख़फ़्फ़फ़ ज़बान में टी टी आई के नाम से पुकारा जाता है।

    उस शख़्स के इख़्तियारात बहुत वसीअ होते हैं। ये शख़्स भी बुकिंग क्लर्क का आटोग्राफ़ पढ़ने की ‎सकत नहीं रखता और अपने पास के काग़ज़ात और दस्तावेज़ात की मदद से उस मसले को हल ‎करने की कोशिश करता है। वो आपका और आपके हम-जलीस का नाम और पता पूछता है। (अंधेरा ‎ज़्यादा हो तो जिन्स भी दरयाफ़्त करता है। दरयाफ़्त करने से मुराद ये है कि सिर्फ़ ज़बानी ज़बान से ‎इस्तिफ़्सार करता है) और इसके बाद आपको (याद रहे आप बिस्तर बिछा और जूते उतार चुके हैं) ‎अपना बिस्तर उठाने का मश्वरा देता है (मश्वरे के लफ़्ज़ पर जाइए। असल में हुक्म देता है।) ‎रिज़र्वेशन में इस क़िस्म के वाक़िआत हर ट्रेन में दो या तीन होते हैं। इसलिए उन मुसाफ़िरों को ‎आम मुसाफ़िरों से अलग रखा जाता है। (रेलवे कम्पार्टमेंट भी अस्पताल के वार्ड से कुछ कम नहीं ‎होते) कभी कभी ऐसा भी होता है कि रिज़र्वेशन का कम्पार्टमेंट वाक़ई रिज़र्वेशन कम्पार्टमेंट दिखाई ‎देता है।

    फ़र्स्ट क्लास के मुसाफ़िरों को अलग अलग रंग का टिकट दिया जाता है जो कई रंगों की आमेज़िश ‎से तैयार किया जाता है, उसकी नक़ल मुश्किल है। महक्मा फ़िनान्स को अपनी करंसी के लिए अपनी ‎ही नादिर और मुश्किल रंग इस्तेमाल करना चाहिए। टिकट चेकर टिकट देखने के बाद उन पर कुछ ‎लकीरें खींचता है। उन लकीरों से आप अंदाज़ा कर सकते हैं कि इस महक्मे का हर काम कितना ‎पेचीदा है।

    हवाई जहाज़ का टिकट, बा’ज़-औक़ात अच्छे ख़ासे शरीफ़ आदमी को भी हवाई जहाज़ से सफ़र करने ‎पर मजबूर होना पड़ता है और अब तो नावाबस्ता मुल्कों के एक दूसरे से वाबस्ता और बग़लगीर होने ‎के वाक़िआत इतने आम हो गए हैं कि ऐसे लोग भी जिन्होंने सिवाए पैदल चलने के और कुछ किया ‎नहीं था, हवाई जहाज़ से सफ़र करने लगे हैं। ये लोग सरबराहान-ए-मुल्क के अमले के लोग होते हैं। ‎अमले के लोगों के आमाल ग़ैर मुल्कों में देखने चाहिऐं। कुछ लोग तो इतनी उजलत में होते हैं कि ‎हवाई जहाज़ के उड़ने से पहले ही उड़ने लगते हैं और हवाई जहाज़ में बैठने के बाद कोई सेफ़्टी बेल्ट ‎उन्हें उछलने से रोक नहीं सकती।

    हवाई जहाज़ों में भी अब फ़र्स्ट क्लास होने लगे हैं। इस क्लास में सफ़र करने वाले मोअज़्ज़िज़ीन को ‎निस्बतन ज़्यादा मुराआत दी जाती हैं मसलन गिलास वग़ैरा (उस गिलास का शायराना नाम जाम या ‎साग़र होता है) हवाई जहाज़ का टिकट निहायत ख़ूबसूरत, ख़ुशनुमा और दीदा ज़ेब होता है। उसे तो ‎किसी अकाडमी से तबाअत के ईनाम का मुस्तहक़ क़रार दिया जाना चाहिए। (लेकिन हमारे यहां ‎अंग्रेज़ी ज़बान की अकाडमियां हैं नहीं।)‎

    हवाई जहाज़ का टिकट तीन औराक़ पर मुश्तमिल होता है यानी छः सफ़हात हुए (अच्छी ख़ासी ‎मसनवी होगई) इस का सर-ए-वर्क़ सह रंगी होता है और ये बेहद चिकने काग़ज़ पर जिसे शायद ‎ग्लेज़ पेपर कहते हैं पर छापा जाता है। काश हमारे रसाइल भी ऐसे ही ख़ुशनुमा टाइटल पेज के साथ ‎शाया हो सकते (लेकिन रसाइल इतने ऊपर कैसे उड़ सकते हैं) टिकट की ये किताब बहुत ऊँचे दामों ‎में फ़रोख़्त होती है और जैसे जैसे सर्विस नाक़िस होती जा रही है टिकट के दाम में इज़ाफ़ा होता जा ‎रहा है। एक ज़माना था (ये बहुत पहले की बात है) जब हवाई जहाज़ वक़्त पर उड़ा और उतरा करते ‎थे। जब हवाई सर्विस के अर्बाब-ए-मुक़तदिर को मालूम हुआ कि मुल्क में कोई भी काम वक़्त पर ‎नहीं हो रहा है तो प्लेन भी देर से उड़ने लगे और बा’ज़ वक़्त तो दूरदर्शन के उर्दू प्रोग्रामों की तरह ‎मंसूख़ भी होने लगे।

    जब कोई हवाई जहाज़ उड़ता नहीं है तो उसके मुसाफ़िरों को एक और टिकट दिया जाता है। ये ‎एयरपोर्ट के रेस्तोराँ में दाख़िले और मुफ़्त खाने का टिकट होता है। इस टिकट की ख़ूबी ये है कि ‎रेस्तोराँ में मिलता कुछ नहीं है। रेस्तोराँ का मैनेजर इस टिकट को देखकर हँसता है। ये टिकट दर ‎असल तफ़रीह-ए-तबा के लिए होता है।

    हवाई जहाज़ के टिकट पर जितना “मवाद” छपा होता है उतना तो तहक़ीक़ी मक़ालों में भी नहीं ‎होता। मिनी और माइक्रो मिनी लिबास की तरह माइक्रो मिनी तबाअत भी ईजाद हुई है जिसका सहरा ‎एयर लाइंस के सर है। आप हवाई जहाज़ का एक टिकट खरीदें तो सफ़र करते वक़्त कई टिकट ‎साइड डिश की तरह चले आते हैं। सामान का टिकट, सीट का टिकट, हाथ में जो कुछ होता है उसका ‎एक एक अलग टिकट, ये सब टिकट बिला क़ीमत फ़राहम किए जाते हैं। काफ़ी स्टेशनरी जमा ‎होजाती है। हवाई जहाज़ का टिकट ख़रीदने से एक बड़ा फ़ायदा ये होता है कि आपकी जामा तलाशी ‎यक़ीनी हो जाती है। आदी मुजरिमों की तलाशी का इंतज़ाम हुकूमत के ख़र्च पर किया जाता है ‎लेकिन हवाई मुसाफ़िरों को इसका ख़र्च ख़ुद बर्दाश्त करना पड़ता है। रेल और बस के मुसाफ़िर इस ‎एज़ाज़ के मुस्तहिक़ नहीं होते। ये तलाश एक अलहीदा कमरे में होती है। कुछ आलात-ओ-ज़रूफ़ भी ‎इस्तेमाल किए जाते हैं। पुलिस कांस्टेबल बड़ी मुहब्बत से आपके जिस्म पर हाथ फेरता है (उतनी ‎मुहब्बत से तो आपके वालिदैन ने भी आपको नहीं थपका था) और इस बात का ख़्याल रखता है कि ‎आपके जिस्म का कोई शोबा छूट जाये। मुसाफ़िरों के ब्रीफकेस और ख़वातीन के मनी पर्स का भी ‎एक्सरे किया जाता है। काश हमारे दवाख़ानों में भी मरीज़ों के एक्सरे का इतना अच्छा इंतज़ाम होता। ‎इस मुफ़्त एक्सरे के अलावा पिपरमिंट, सौंफ और कान में रखने के लिए रूई के फाए भी मुफ़्त ‎फ़राहम किए जाते हैं (ख़ानख़ानां का दरबार लगा हुआ है) मुसाफ़िर ख़ुशी ख़ुशी उस किश्ती से ये ‎चीज़ें उठाते हैं जो एक एयर होस्टस उनकी ख़िदमत में पेश करती है लेकिन उनकी नज़रें चीज़ों पर ‎नहीं होतीं (पता नहीं हवाई जहाज़ों में एयर होस्ट क्यों नहीं हुआ करते) कभी कभी मुसाफ़िरों को ‎अश्या-ए-ख़ुर्दनी से भी नवाज़ा जाता है।

    खाने का अगर वक़्त हो तो लंच भी पेश किया जाता है। (बासी चीज़ों को ठिकाने लगाना भी ‎ज़रूरी है) ये दावत भी बिला क़ीमत होती है। ख़ुद टिकट के अब इतने दाम हो गए हैं कि हवाई ‎सर्विस वालों को किसी और चीज़ की क़ीमत वसूल करने में तकल्लुफ़ होने लगा है इस टिकट में इन ‎चीज़ों के अलावा एक मुज़ाहरा भी पेश किया जाता है जिसमें बताया जाता है कि हादिसे की सूरत में ‎‎(अगर होश सलामत रहें) तो क्या नहीं और क्या करना चाहिए। हादिसे का ज़िक्र करते हुए एयर ‎होस्टेस हस्ब-ए-मामूल अपनी मुस्कुराहट को जारी रखती है (मुसाफ़िरों की तवज्जो बट जाती है) हवाई ‎मुसाफ़िरों के लिए अख़बारात भी फ़राहम किए जाते हैं लेकिन उन्हें मजबूर नहीं किया जाता कि वो ‎अख़बार पढ़ें। अगर आप बैरून-ए-मुल्क जा रहे हैं तो इस ख़ुशी में हवाई सर्विस की तरफ़ से आपकी ‎ख़िदमत में एक अटैची केस भी हाज़िर किया जाता है और टिकट एक ख़ूबसूरत लिफ़ाफ़े में इस तरह ‎पेश किया जाता है जैसे सरकारी दफ़ातिर में ओहदेदारों के तबादले या मुलाज़मत से सुबुकदोश होने ‎के मौक़े पर सिपास नामा पेश किया जाता है। हवाई जहाज़ का सफ़र मामूली बात नहीं। सिर्फ़ ‎इमाम-ए-ज़ामन नहीं बाँधा जाता। हवाई जहाज़ का टिकट एक मर्तबा देखना ज़रूर चाहिए। अगर लोग ‎पुराने टिकट लेकर एयरपोर्ट चले जाते हैं। दाख़िले का टिकट ख़रीदना नहीं पड़ता। सीधी सीधी छे ‎रुपये की बचत। चाय का ख़र्च आया।

    हाल टिकट, ज़िंदगी के सफ़र में ज़रूरी नहीं है कि आप हमेशा कोई सवारी ही इस्तेमाल करें ये बग़ैर ‎सवारी ही के तै किया जाता है। अगर आप सियासत या उस क़िस्म के किसी व्यपार में हिस्सा नहीं ‎लेना चाहते तो आपको तालीम हासिल करनी होगी और हर साल एक हाल टिकट हासिल करना ‎होगा। इसकी भी क़ीमत अदा करनी होती है क्योंकि तालीम के नाम पर जो रक़म तालिब इल्मों और ‎जो अतीए उनके वालिदैन से हासिल किए जाते हैं उनमें हाल टिकट के दाम शामिल नहीं होते। ‎तालीम तो सिर्फ़ कपड़ा है। लिबास की सिलाई अलग से अदा करनी पड़ती है। ये टिकट उस हाल में ‎दाख़िले का परवाना होता है जहां आपकी इलमी क़ाबिलीयत से ज़्यादा आपकी हुनरमंदी का इम्तिहान ‎होता है। हाल टिकट पर आपका निशान-ए-शनाख़्त भी दर्ज होता है। (ये हमेशा इस क़िस्म का ‎लिखवाना चाहिए कि निगरानकार को उसे तलाश करने में या तो दिक़्क़त हो या रिक़्क़त) उस पर ‎आपकी तस्वीर भी होती है। कोई हर्ज नहीं। आपके हाल टिकट पर कोई दूसरा शख़्स भी (जिसे ‎इम्तिहानात देने का तजुर्बा होता है) हाल में दाख़िल हो सकता है। ताहम अगर आप इम्तिहान में ‎फ़ेल भी होजाएं तो ज़रूरी नहीं कि आप “बेकार” हैं। तालीम पाकर लोग अह्लकार तो बन सकते हैं ‎लेकिन साहिब-ए-कार नहीं। इसका ये मतलब नहीं कि तालीम हासिल नहीं करनी चाहिए। ज़रूर करनी ‎चाहिए लेकिन जो कुछ पढ़ा है उसे फ़ौरन भूल जाना चाहिए। तालीम आराइश कि चीज़ है आसाइश ‎की नहीं।

    डाक के टिकट, डाक के टिकट पर आपका ख़त सफ़र करता है। जिस ख़त पर टिकट लगाए जाएं ‎उसका मंज़िल-ए-मनक़ूद पर पहुँचना ज़रूरी होता है लेकिन जिस पर टिकट लगाए जाएं वो ख़त ‎बहरहाल मकतूब अलैह को पहुँचाया जाता है। इस कारनामे पर डाकखाने को दुहरी रक़म मिलती है। ‎डाक के टिकट की पुश्त पर एक क़िस्म की चिकनाहट होती है जिसे लोग ग़लती से गोंद समझते हैं। ‎क़ुतबनुमा को कोई शख़्स क़ुतुब समझना शुरू कर दे तो इसमें महक्मा-ए-डाक का कोई क़सूर नहीं।

    लाटरी का टिकट, हिसाब लगाने पर मालूम हुआ कि हिन्दोस्तान में अब हर हफ़्ते दस बीस हज़ार ‎आदमी ज़रूर अमीर हो जाते हैं और उसी अमीरी में नाम पैदा करते हैं। ये सब लाटरी के तुफ़ैल हो ‎रहा है। लाटरी तिजारत है या सोशल सर्विस। ये बात अभी तै नहीं हुई है लेकिन ये बात ज़रूर तै हो ‎चुकी है कि लाटरी का कारोबार सिर्फ़ हुकूमत का हक़ है। इस वक़्त हुकूमत के इसी महक्मे की ‎कारकर्दगी सबसे आला दर्जे की है। वन। अब अवाम जो कुछ नहीं ख़रीद सकते लाटरी का टिकट ‎ज़रूर ख़रीदते हैं। एक साहब के पास तो हमने उन टिकटों का एक ज़ख़ीम एलबम देखा है जो उनकी ‎शादी की तस्वीरों के एलबम की तरह निहायत हिफ़ाज़त से रखा है, जब भी ये साहब उन एल्बमों को ‎देखते हैं उनके आँसू निकल पड़ते हैं। उन्होंने बहरहाल अभी हिम्मत नहीं हारी है और लाटरी के ‎टिकट के एलबम में हर हफ़्ता ताज़ा कलाम जमा होता रहता है।

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