धुआँ ही धुआँ
जब से सिगरेट की डिबिया पर और उसके अंदर की हर सिगरेट के सिरे पर ये लिखा जाने लगा कि “सिगरेट सेहत के लिए मुज़िर है” उस वक़्त से सिगरेट की तिजारत सबसे ज़्यादा मुनाफ़ा बख़्श तिजारत हो गई है और सिगरेट की क़ीमत में जितना इज़ाफ़ा होता जा रहा है सिगरेटें उतनी ही ज़्यादा बिकने लगी हैं। हमारे यहां मुज़िर सेहत चीज़ें तो ढूंढ ढूंढ कर इस्तेमाल की जाती हैं और अगर कोई चीज़ मुज़िर नहीं होती है तो उसे कोशिश करके मुज़िर बनाया जाता है।
सिगरेट को ‘यू’ सर्टीफिकट हासिल है। उस पर कहीं ये नहीं लिखा है कि ये सिर्फ़ बालिग़ों के लिए है इसलिए ऐसे बच्चे भी जिन्होंने अभी अभी आठवीं दर्जे में क़दम रखा है, अगर वो ग़लती से ज़ेर-ए-तालीम हैं, निहायत हुनरमंदी के साथ सिगरेट नोशी का काम अंजाम देते नज़र आते हैं। नई नस्ल वाक़ई बहुत तेज़ है, किसी काम में देर नहीं करती। उनसे ज़्यादा उम्र के बच्चे जो अपनी उम्र के दूसरे दहे की पहली सीढ़ी पर अपना क़दम रखते हैं सिर्फ़ सिगरेट नहीं पीते, ये काम तो वो बहुत पहले कर चुके और उनसे बड़ी उम्र के बच्चे जिनकी मसें भीगनी शुरू होने वाली होती हैं, कारवान का साथ देने की ख़ातिर'गर्द, से फ़ैज़ हासिल करना शुरू कर देते हैं। उस गर्द को भी वो गर्द-ए-कारवां समझते हैं और अपनी रफ़्तार में तेज़ी पैदा करते हैं ताकि क़ाफ़िले से बहुत ज़्यादा पीछे न रह जाएं।
सिगरेट की तो अब कोई हैसियत ही नहीं रही है। ये बहुत बचकाना चीज़ है इसलिए इसे प्राइमरी एजूकेशन के निसाब में डाल दिया गया है। आला तालीम के मज़ामीन बिल्कुल अलग हैं। ‘सिगरेट सेहत के लिए मुज़िर है’ इस जुमले से ये नहीं समझना चाहिए कि हमारे यहां जिस किसी की भी सेहत ख़राब है उसका सबब सिगरेट नोशी है, ऐसा बिलकुल नहीं है। सब लोग सिगरेट कहां पीते हैं लेकिन सिगरेट न पीने वाले लोगों की सेहत की ख़राबी के लिए भी माक़ूल इंतज़ामात किए गए हैं। बस फ़र्क़ ये है कि ज़्यादा मज़र्रत रसाँ चीज़ों की पैकिंग पर ये नहीं लिखा जाता कि ये चीज़ सेहत के लिए मुज़िर है। लोगों को ख़ुद भी तो कुछ मालूमात हासिल करनी चाहिऐं। इंतज़ामिया ही क्यों छपाई और रोशनाई पर रुपया ख़र्च करता रहे। इतने पैसों में तो और भी कई मुज़िर-ए-सेहत चीज़ें तैयार की जा सकती हैं।
अख़बारों और रिसालों में सबसे ज़्यादा ख़ूबसूरत इश्तिहार अगर किसी चीज़ के छपते हैं तो वो सिगरेट ही के छपते हैं। उन इश्तिहारों में कुछ नौजवान लड़के होते हैं, लड़कों के साथ उनकी गर्लफ्रेंड होती हैं जिन्हें आम तौर पर कज़न कहा जाता है। ये लड़कियां, उन लड़कों के साथ रहती हैं, इसलिए हैं कि ये लड़के सिगरेट पीते हैं वर्ना उनमें और कौन सी ख़ूबी होती है कि लड़कियां उनके पीछे पीछे फिरें। लड़के भी लड़कियों की इस कमज़ोरी से वाक़िफ़ होते हैं क्योंकि आख़िर उन्होंने दुनिया देखी है।
पिछले कुछ सालों से जो सिगरेटें बन रही हैं उनका क़द पहले की सिगरेटों के मुक़ाबले में एक-आध इंच ज़्यादा है। इसकी वजह ये बताई जाती है कि पहले की सिगरेटें, कोताह क़द होने की वजह से सेहत के लिए इतनी मुज़िर नहीं होती थीं जितनी कि उन्हें होना चाहिए था। अब हर सिगरेट से ज़्यादा कश लिये जा सकते हैं, क़ीमत वसूल की जाती है तो ज़ाहिर है उसका बदल भी पूरा दिया जाना चाहिए। ये ईमानदारी का तक़ाज़ा है। उन सिगरेटों को किंग साइज़ कहा जाता है। ये उनवान हमें पसंद आया। हमने ऐसे किंगों की तस्वीरें भी देखी हैं जो पिस्ता क़द थे, लेकिन फिर भी किंग थे क्योंकि जहां तक उन लोगों का ताल्लुक़ है, उनका पिस्ता क़द होना रिआया को कभी बुरा नहीं लगा। उनका किंग होना काफ़ी था। वैसे किंग का मफ़हूम आम तौर पर ये समझा जाता है कि ये क़द-ओ-क़ामत के लिहाज़ से भी ऊंचे दर्जे की चीज़ होगा, किंग का ये लफ़्ज़ रेफ्रीजरेटर बनाने वाली कंपनियों ने भी अपना लिया है और उनके यहां सबसे बुलंद व बाला रेफ्रीजरेटर किंग साइज़ रेफ्रीजरेटर होता है। उसमें कई दिन का बासी खाना रखा रहता है।
वैसे देखा जाये तो दुनिया में अब किंग रह ही कितने गए हैं। गिनती के एक या दो लेकिन उनकी वो शान नहीं है जो पहले ज़माने के बादशाहों की हुआ करती थी। अब बादशाहों को क़ानून-क़ायदे का पाबंद होना पड़ता है। अगर शाही ख़ानदान का कोई फ़र्द ग़ैर शाही हरकत करता है तो उस शख़्स को तख्त-ए-शाही पर क़दम नहीं रखने दिया जाता। होना भी यही चाहिए, क़ायदा बना है तो उसकी पाबंदी करो वर्ना क़ायदे बनाओ ही मत। बहुत से लोग तो बस क़ायदे ही बनाते रहते हैं और जहां उनकी पाबंदी का सवाल आया, उसके लिए ख़ूबसूरत ताक़ बने होते हैं, पाबंदी उन ही ताक़ों में आक़ शुदा हालत में रखी जाती है। पाबंदी सिर्फ़ मुज़िर सेहत चीज़ों के इस्तेमाल के लिए वक्फ़ है।
सिगरेट पीने का मुहावरा या तरकीब भी लुग़वी एतबार से ग़लत है। सिगरेट कोई मशरूब तो है नहीं कि गिलास में उसे डाला और पी गए। सिगरेट का तो धुआँ पिया जाता है और वो भी पूरा नहीं। उसका एक कश लेने के बाद जितना धुआँ दाखिल-ए-दफ़्तर होने से बच जाये वो नाक या मुंह के ज़रिया अवामुन्नास की ख़िदमत में पेश कर दिया जाता है। ट्रेन के वो डिब्बे जिन पर ये लिखा होता है कि यहां सिगरेट नोशी मना है, उसी धुएँ से भरे रहते हैं। मुसाफ़िरों से तो भरे होते ही हैं। डिब्बे में इतने मुसाफ़िर होते हैं कि उनके बीच में से धुआँ तक गुज़र नहीं सकता। इस धुएँ का फ़ायदा ये होता है कि जिन मुसाफ़िरों को खांसी नहीं होती वो भी खांसी में हिस्सा ले सकते हैं। एक टिकट में सफ़र भी और खांसी भी। इसीलिए कहा गया है कि सैर कर दुनिया की ग़ाफ़िल ज़िंदगानी फिर कहाँ।
सिगरेट के उस धुएँ को जो सिगरेट नोश शख़्स अपने जिस्म में दाख़िल करता है डाक्टर 'निकोटीन’ का नाम देते हैं। शुक्र है कि ये नाम बड़ा नहीं है वर्ना इल्म-ए-तिब्ब में आम तौर पर दस बारह और पंद्रह हर्फ़ी अलफ़ाज़ का तरीक़ा राइज है। उन अलफ़ाज़ को सुनकर मरीज़ ख़ौफ़-ज़दा होजाता है। ‘निकोटीन’ की बजाय अगर कोई तूल तवील लफ़्ज़ तजवीज़ किया जाता तो शायद सिगरेट नोश शख़्स थोड़ा बहुत परेशान होता। ये निकोटीन बहरहाल बहुत क़ीमती और पोशीदा चीज़ होती है। उसे एक्सरे की मदद से तलाश किया जाता है।
हिंदुस्तान में भी सिगरेट बनते हैं और शक्ल-ओ-सूरत में बिल्कुल वैसे ही होते हैं जैसे कि बाहर के मुल्कों के बने हुए सिगरेट होते हैं। उन सब का नमूना एक ही होता है लेकिन हिंदुस्तान के मोहिब्ब-ए-वतन लोग आम तौर पर वो सिगरेट पीते हैं जो बाहर से दरआमद किए जाते हैं। ये भी उतने ही मुज़िर होते हैं जितने कि मसनुआत-ए-मुल्की लेकिन बाहर के मुल्कों के सिगरेट ख़रीदने का फ़ायदा ये होता है कि सेहत की ख़राबी में बैरूनी हाथ का दख़ल मालूम होता है। उन सिगरेटों की क़ीमत भी ज़रा ज़्यादा होती है लेकिन कोई हर्ज नहीं। ग़रीब मुल्कों के लोगों को हमेशा क़ीमती चीज़ें ही ख़रीदनी चाहिऐं।
निकोटीन यूं तो अच्छी चीज़ है लेकिन उसकी ख़राबी ये है कि उसके जमा होने में काफ़ी वक़्त लगता है। कई साल तक सिगरेटें पीनी पड़ती हैं। 40 सिगरेटों की हद तो ठीक है लेकिन अगर आदमी 40 सिगरेट यौमिया के स्कोर से आगे बढ़ जाये तो उसे सिगरेट पीना नहीं सिगरेट फूंकना कहा जाता है। ये भी एक क़िस्म का एज़ाज़ है। अगर आप उसे एज़ाज़ नहीं कहना चाहते तो इम्तियाज़ कह लीजिए। ये लफ़्ज़ भी बुरा नहीं है।
सिगरेट फूँकने वाले का दर्जा सिगरेट पीने वाले शख़्स के मुक़ाबले में बुलंद होता है। जिस किसी शख़्स के सीधे हाथ की उंगलियां पीली होजाएं (ये भी हाथ पीले करना हुआ लेकिन इसका मतलब वो नहीं होता जो कुँवारी लड़कियों के हाथ पीले करने का होता है।) और गाल अंदर की तरफ़ चले जाएं जिसे आसान लफ़्ज़ों में पिचक जाना कहते हैं तो समझना चाहिए कि ये शख़्स बरसों से रोज़ाना हाफ़ सेंचरी बनाता है। उसे सिगरेट पीने की इतनी मश्क़ होती है कि ये सिगरेट के धुएँ के हलक़े बना सकते हैं, इतने बड़े हलक़े कि हवाई क़िले मालूम होने लगते हैं। यही हलक़े उनकी आँखों के गिर्द भी पड़े होते हैं और अच्छे मालूम होते हैं। आँखें गहना जाती हैं। डाक्टर उसे सिगरेट तर्क करने का मश्वरा इसलिए नहीं देते कि अगर उस ने सिगरेट पीना वाक़ई तर्क कर दिया तो उसकी वफ़ात की ज़िम्मेदारी डाक्टर के सर होगी।
कुछ लोगों का ख़्याल है कि रोज़ाना पच्चास सिगरेटें पीने वाले अश्ख़ास इन्फ़िरादी तौर पर इतना ही धुआँ ख़ारिज करते हैं जितना कि एक रेलवे इंजन से ख़ारिज हो सकता है। (याद रहे कोयले से जलने और चलने वाला इंजन।)
जो सिगरेट बहुत ज़्यादा ज़ख़ीम हो उसे सिगरेट नहीं सिगार कहा जाता है। ये एक वर्की समोसे की तरह होता है लेकिन उसका हुलिया ज़रा अलग होता है। उसे दियासलाई दिखाई जाये तो ये समोसा आहिस्ता-आहिस्ता फ्राई होने लगता है। सिगार की ख़ूबी ये होती है कि उसका रंग कुछ इस क़िस्म का होता है कि उस पर किसी क़िस्म की तहरीर तबा नहीं हो सकती। उसकी दूसरी ख़ूबी ये होती है कि उसका धुआँ ज़्यादा तल्ख़ और गाढ़ा होता है।
सिगरेट का धुआँ तो हवा में तहलील हो जाता है। सिगार के धुएँ में हवा तहलील हो जाती है। मशहूर ये है कि सिगार पीने से आदमी के जिस्म में निकोटीन नाम की कोई चीज़ दाख़िल नहीं होती क्योंकि सिगार की तैयारी में स्टेशनरी इस्तेमाल नहीं की जाती। सिगार पर भी अगर काग़ज़ ख़र्च किया जाने लगा तो अख़बारात और रसाइल को शायद ही काग़ज़ का कोटा जारी किया जा सके। आजकल सारे काम कोटे के हिसाब से चलते हैं। सिगार की तीसरी ख़ूबी ये होती है कि एक सिगार को 23 मर्तबा जलाना पड़ता है। उसमें ईंधन ज़्यादा ख़र्च होता है। सिगार पीने वाले लोग अपने लाइटर के लिए उतना ही पेट्रोल इस्तेमाल करते हैं जितना 25 किलोमीटर सफ़र करने के लिए करते हैं। सिगार क़दरे मुतमव्विल लोगों की ग़िज़ा है। दौलतमंद मुल्कों की इमदाद पर ज़िंदगी गुज़ारने वाले लोगों को सिगार ही पीना चाहिए, क़र्ज़ बढ़ता है।
धुआँ पीने का एक ज़रिया और है और वो है पाइप, पाइप अपनी कारीगरी के एतबार से बहुत ख़ूबसूरत फ़र्नीचर होता है, मीनी फ़र्नीचर। उसके एक सिरे पर एक छोटी सी ओखली बनी होती है जिसे एक ख़ास क़िस्म के रेशेदार तंबाकू से पुर किया जाता है। उसे बड़े प्यार से थपकना भी पड़ता है। ये ओखली जिस डंडी से जुड़ी होती है उसमें धुएँ की रफ़्त के लिए एक रास्ता बना होता है। सुरंगनुमा रास्ता, उसे आप यक रुख़ी रास्ता कह सकते हैं। उस डंडी के रसीदी किनारे यानी रीसीविंग एंड पर कारीगर को अपना कमाल दिखाना पड़ता है क्योंकि उसी किनारे के तवस्सुत से पाइप बर्दार शख़्स अपना धुएँ का राशन हासिल करता है। कुछ लोग होंटों की मदद से और कुछ लोग दाँतों की मदद से पाइप पीते हैं (होंट और दाँत दोनों अपने होने चाहिऐं)
सिगरेट की डिबिया पर सब का हक़ होता है। ये ग़रीब की भाबी होती है। सिगार भी दूसरे को पेश किया जा सकता है लेकिन चूंकि ये ज़रा वज़नी होता है इसलिए कम लोग ही उसे क़बूल करते हैं और पाइप के किसी दूसरे को देने दिलाने और चलाने का सवाल ही पैदा नहीं होता। इसलिए इस मुज़िर सेहत अश्या में पाइप ही सबसे उम्दा शय है। बस उसका नाम हमें पसंद नहीं। किसी पाइपलाइन की तरफ़ ज़ेहन मुंतक़िल होजाता है।
पाइप की ख़ूबी ये होती है कि बुझा हुआ पाइप भी महफ़िल में उतना ही नुमायां और लाइक-ए-दीद होता है, जितना कि शोला पोश पाइप।
अगर किसी शख़्स का पाइप खो जाये तो उसका बाज़ाब्ता मातम करना पड़ता है। पाइप मर्दों का ज़ेवर होता है और ज़ेवर अगर खो जाये तो आह-ओ-ज़ारी लाज़िमी है। अपने पर्स और पाइप की हिफ़ाज़त में लोग जी जान की बाज़ी लगा देते हैं। पाइप खो जाये तो उनके सीने से धुआँ उठता है।
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