दिल्ली की फटफट सेवा
आपने कभी फट-फट सेवा में सफ़र किया है?
फट-फट सेवा दिल्ली के कुछ इलाक़ों से दूसरे मख़सूस इलाक़ों के बीच चलती है। फट-फट सेवा कहलाने के लिए गाड़ी का इतना पुराना होना शर्त है कि उसको देखते ही बहादुर शाह ज़फ़र का दौर-ए-हुकूमत की याद आती हो। एक बड़ी सी पुरानी गाड़ी। जिसमें जब तक सीटों के बराबर... नहीं, बल्कि यूँ कहिए कि ड्राइवर की मर्ज़ी के बराबर सवारी सवार नहीं होतीं, तब तक चलना ख़िलाफ़-ए-शरीअत अमल है। मुझे जब भी जल्दी दरियागंज जाना होता है तो अक्सर इसी से सफ़र करता हूँ। कल भी कर रहा था। स्टैण्ड पर खड़ी हुई फट-फट को देख कर बरमला जेलों की उन गाड़ियों की याद आती है कि जिसमें क़ैदियों को सवार करके... बल्कि यूँ कहना क़द्रे मुनासिब होगा कि ‘‘क़ैदियों को भरके’’ एक जगह से दूसरी जगह ढ़ोया जाता है। वैसे जिन साहिबान का वास्ता कभी जेल से नहीं पड़ा है वो फट-फट की मुशाबिहत म्युनिसिपल बोर्ड की उन गाड़ियों से कर सकते हैं कि जिनका इस्तेमाल उमूमन आवारा कुत्तों को क़ैद करने और उनकी मंज़िल-ए-मक़सूद तक पहुँचाने के लिए किया जाता है।
लिहाज़ा मेरे पहुँचते ही मुझे ड्राइवर ने अंदर को धकेल दिया। एक कोने में ये इत्मिनान करके बैठ गया कि आस-पास कोई कील वग़ैराह नहीं निकली है। गाड़ी के मेन हॉल में चारों तरफ़ सीटें थीं। जिसमें मेरे सामने की सीट पर एक सेहत-मंद ख़ातून तशरीफ़ रखती थीं। गर्मी, भीड़, ग़ैर-मेयारी माहौल और ड्राइवर की अभी भी मुसलसल सवारियों के भरे जाने की ज़िद ने उनके नूरानी चेहरे की बनावट कुछ ऐसी कर दी थी, कि रहे नाम मालिक का...!
लीजिए बराबर में हाजी साहब तशरीफ़ रखते हैं जिनकी जान अलिफ़ लैला के तौते की तरह उनके कलफ़ के कुर्ते में फँसी मालूम होती थी। दीगर सवारियों का वो हुजूम जो एक दूसरे से चिढ़ा हुआ सा बैठा था वो इस कर्ब-ओ-अज़ीयत से ख़ूब अच्छी तरह मुतार्रिफ था शायद। गाड़ी चलने ही वाली थी मेरे बराबर में बैठे एक बुज़ुर्ग हरकत में आए और मेरे घुटने पर तेज़ हाथ मारा। मैं हैरान। उनको देखा तो बोले “जानते हो शहज़ादे, जब इस पूरे इलाक़े में कुछ नहीं था, तब से यहाँ रह रहा हूँ। ये सामने वाली इमारत देख रहे हो, यहाँ एक औरत बहुत सारी मुर्ग़ियाँ पाला करती थी। बड़ी कमबख़्त थी।” मैंने उन साहब को ग़ौर से देखा। पोपला सा मुँह, मगर शेव किया हुआ। सियाह जिल्द प्लास्टिक की बनी मालूम होती थी। ऐसा उमूमन दो ही सूरतों में होता है, या तो इंसान को मुसलसल रेज़र ने घिसा हो या ज़माने ने। सिर पर एलिगेरियन टोपी। क्योंकि सिर पर बाल बिलकुल नहीं थे इसलिए ढ़ीली सी टोपी सिर पर इधर से उधर दौड़ती मालूम होती थी। पतलून इतनी ढ़ीली थी कि मुझे राजकुमारी की वो तस्वीर याद आयी जिसमें मुसव्विर ने लहंगे की वुसअत में दो जहान के राज़ नक़्श कर दिए थे। मेरी नाक़िस राय में उन्हें महकमा-ए-आसार-ए-क़दीमा का कोई तोप अफ़सर होना चाहिए था। चाचा बोलते रहे। गाड़ी चली। चाचा भी नहीं रुके। जिस भी इलाक़े से गुज़रते वहीं का क़िस्सा शुरू हो जाता। और कमाल ये कि पिछले क़िस्से से अगले क़िस्से का सिरा इस तरह एक-दूसरे से मिलाते, जिस तरह वो इलाक़े एक-दूसरे से मिले हुए थे। मैं उन तमाम किरदारों के बीच तमाशाई बना एक कोने में तक़रीबन दबा बैठा था। लोग इस तरह एक दूसरे से बग़ल-गीर हुए बैठे थे कि हिलना मुहाल था। वो नौजवान लड़की जिसका नाम अभी उसकी सहेली ने अंजुम पुकारा था, वो हिस्ट्री के नोट्स चाहती है। और दूसरी, जिसका नाम अंजुम नहीं था। वो शाम को उसे दौर-ए-मुग़लियात की वो रूदादें भिजवा देगी। उधर सामने दाहिनी सीट पर जो ख़ातून, (जो ग़ालिबन किसी तक़रीब के लिए तैयार होकर आई हैं) अब तक उनके चेहरे के मेक-अप की वो मोटी सी परत पसीनों से बहने लगी थी। मैं दुआ कर रहा था कि इलाही इसकी असल सूरत के ज़ुहूर से पहले मेरा सफ़र तमाम कर दे। इस गाड़ी-नुमा मोहल्ले में एक नौजवान दूर हंगामा-ए-गुलज़ार से यकसू बैठा था। बार-बार चेहरा पोंछता। कभी-कभी मोबाइल में झाँकता। कभी सामने देखता। अब जो उन निगाहों की सम्त देखी तो मामला समझ आया कि ये तमाम हुज्जत तो उस ख़ूबसूरत लड़की के लिए है कि जो उसके ठीक सामने शायद इम्तिहान लेने की नियत से बैठी है कि शायर की वो कैफ़ियत सादिक़ आती है,
रुख़-ए-रौशन के आगे शम्अ रख के वो ये कहते हैं
उधर जाता है परवाना या देखें इधर आता है
मगर उस पर ग़ज़ब खुदा का कि वो ज़ोहरा-जबीं का हाल ये है जवाबन देखती तो है, लेकिन ये भी देखती है कि कोई देखता न हो।
और ये लीजिए, हो गया काम! एक गुटखा खा रहे नौजवान ने अपनी गर्दन 120 डिग्री के ज़ाविए से घुमाई। साथ ही पूरे बदन में 15-20 डिग्री के ज़ाविए की हरकत हुई। और जैसे ही खिड़की पर निशाना लगा कर थूकना चाहा, थूक की कुछ छींटे उस कलफ़ के कुर्ते पर जा गिरीं। और अलिफ़ लैला के तोते पर अचानक लगी इस ज़र्ब से हाजी साहब के मिज़ाज और शख़्सियत में जो वाज़ेह तब्दीलियाँ नमूदार हुईं वो देखने से तअल्लुक़ रखती थीं। इन तमाम किरादारों के दरमियान वो चाचा (जिन्हें अंग्रेज़ी के Father of Characters के उर्दू मुतबादिल से तशबीह देना ऐन मुनासिब होगा।) ज़रा ख़फ़ा से बैठे थे। और इस ख़फ़ेगी की वजह ख़ुद उन्होंने ये बयान की, कि मैं उनकी बातें ग़ौर से नही सुन रहा हूँ।
ये कल की बात है। मैंने सोचा कि अब कभी फटफट में नहीं बैठूँगा। लेकिन शहरों की अपनी मजबूरियाँ होती हैं। लिहाज़ा आज फिर फटफट में बैठा हूँ। बस आज वाले चाचा मोहतरम के चेहरे पर दाढ़ी होने की वजह से उनकी जिल्द प्लास्टिक की नहीं है।
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