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नौकरी की तलाश में

यूसूफ़ नाज़िम

नौकरी की तलाश में

यूसूफ़ नाज़िम

MORE BYयूसूफ़ नाज़िम

    दुनिया में देखा जाये तो काम ही काम पड़ा हुआ है और इतनी कसीर तादाद में पड़ा हुआ है कि अगर दुनिया की मौजूदा आबादी में मज़ीद उतनी ही आबादी का इज़ाफ़ा, आईन-ए-फ़ित्रत और कानून-ए-क़ुदरत की मदद से हो जाये तब भी कार-ए-दुनिया ख़त्म होने में आए। दुनिया इसीलिए अब तक ना-मुकम्मल हालत में है। चंद साल पहले जब यहां दो अदद अज़ीम जंगें मुनाक़िद हुई थीं तो दुनिया के मुकम्मल होने के कुछ आसार पैदा हुए थे लेकिन मजलिस अक़्वाम-ए- मुत्तहेदा के ग़लत फ़ैसलों बल्कि उसकी ग़ैर ज़रूरी मुदाख़िलत की वजह से, ज़रा सी जो उम्मीद बंधी थी वो भी जाती रही।

    दुनिया के इस तरह अधूरी हालत में रहने की असल वजह ये है कि जो शख़्स भी अपनी मर्ज़ी से या लोगों के इसरार पर दुनिया से रुख़सत होता है, वो अपने बहुत सारे काम अधूरे छोड़ जाता है और उसके पसमांदगान जब उसके उन अधूरे कामों को अंजाम तक पहुंचाने की फ़िक्र या कोशिश करते हैं तो उनके इस नाज़ेबा इक़दाम की बिना पर ख़ुद उनके अपने काम अधूरे रह जाते हैं।

    ये सिलसिला अज़ल से यूँही चला रहा है, वैसे भी जिन लोगों ने अपने ज़ाती और ख़ानगी कामों पर दुनिया के कामों को तर्जीह दी और ख़िदमत-ए-ख़ल्क़ में मुब्तला हुए, चंद मिसालों को छोड़कर उन्हें इन रफ़ाही कामों और ख़िदमत-ए-ख़ल्क़ के सिले में जो कुछ इस दुनिया में मिला उसका ज़िक्र किया जाये तो बेहतर है और इस दुनिया के अख़बारात उधर आते नहीं हैं, इसलिए वहां की सही सूरत-ए-हाल हमारे इल्म में नहीं है, लेकिन जो लोग अपने रफ़ाही कामों के सिलसिले में अपनी ज़िंदगी में यहां मातूब-ओ-मतऊन नहीं किए जा सके उनका भी हश्र कुछ अच्छा नहीं हुआ क्योंकि दुनिया में ये भी होता रहा है कि हर-सू दो सौ साल बाद ताज़ा-तरीन नसलें अपने अस्लाफ़ के कामों का तन्क़ीदी नज़र से जायज़ा लेती रही हैं और अपनी तहक़ीक़ात की रोशनी में ये साबित करके ख़ुश खुर्रम होती रही हैं कि उनके आबा-व-अजदाद में से फ़ुलां बुज़ुर्ग के फ़ुलां कारनामे ने दुनिया को फ़ायदा नहीं नुक़्सान पहुंचाया है और अगर इत्तफ़ाक़ से बुज़ुर्ग मौसूफ़ का कोई स्टैचू वग़ैरा कहीं खड़ा पाया गया तो उसे नीस्त-ओ-नाबूद करके उससे ज़्यादा ख़ौफ़नाक स्टैचू वहां नसब कर दिया गया।

    उस नए मुजस्समे की गुलपोशी और मौसूफ़ के नाम के कत्बे की निक़ाब कुशाई भी अमल में आई। तहक़ीक़-ओ-तफ़तीश और रद्द-ओ-बदल का ये सिलसिला भी अधूरे कामों के सिलसिले की तरह ख़त्म होने वाला नहीं है। अवाम की ख़िदमत किसी ज़माने में शायद मायूब भी रही हो लेकिन उन दिनों तो कोई शख़्स अगर यतीमख़ाना खोलता है तो यतीम बच्चों की परवरिश ज़िम्नन होती है। असल मक़सद तो ख़ुद अपने बच्चों की परवरिश का होता है। क़हर दरवेश बजान दरवेश तो सुना था लेकिन अब मेहर दरवेश, बहाल दरवेश का रिवाज ज़्यादा है। सोशल सर्विस तो इख़्तियारी मज़मून है।

    लेकिन जहां तक नौकरियों का सवाल है वो सिर्फ़ उन लोगों की क़िस्मत में लिख दी गई जिन्हें उनकी ज़रूरत नहीं है। एक ज़माना था जब हमारे यहां नौकरियां ही नहीं हुकूमतें तक लोगों को यूँही मिल जाया करती थीं। बच्चा सिक्क़ा की मिसाल हम भूले नहीं हैं कैसे भूल सकते हैं। ये वाक़िआ तो हमारे दिलो-दिमाग में फ़र्हाद के इश्क़ की तरह बस गया है। बच्चा सिक्क़ा ने तो मुलाज़मत तक की आरज़ू नहीं की थी और मिल गया उसे तख़्त-ओ-ताज, कहा जाता है कि क़ुदरत जब देने पर आती है तो छप्पर फाड़ कर देती है।

    हिन्दोस्तान की तारीख़ में छप्पर फाड़ कर देने का हादिसा बस यही बच्चा सिक्क़ा का हादिसा था वर्ना उस बच्चे के बाद भी यहां करोड़ों की तादाद में मुख़्तलिफ़ इक़साम के बच्चे पैदा हुए, बहुत से बच्चे उनमें मरने से बच भी गए लेकिन क़ुदरत ने उनके घर में झाँका तक नहीं बल्कि बहुत से घर तो ऐसे हैं जिन पर कोई छप्पर ही नहीं, क़ुदरत देना चाहे तो उसे आसानी ही आसानी है। अब लोग क़नाअत पसंद भी हो गए हैं बल्कि क़नाअत उनकी आदत हो गई है। लोग अब सिर्फ़ एक नौकरी मांगते हैं और नौकरियां ऐसा मालूम होता है ख़ला में परवाज़ करने लगी हैं। ज़मीन पर उतरती भी हैं तो ग़लत घरों का रुख करती हैं।

    बच्चा सिक्क़ा के अलावा हमने ये भी देखा है कि उस ज़माने में लतीफ़ा सुनाने वालों को अच्छी अच्छी मुलाज़मतें मिल जाती थीं और ये लोग रास्ते में कहीं रुके बग़ैर शाही दरबार तक पहुंच जाते थे। उन्हें तनख़्वाह भी माक़ूल दी जाती थी। तनख़्वाह को उस ज़माने में मन्सब कहा जाता था और खाने कपड़े को ख़िलअत। उस लफ़्ज़ मन्सब में बड़ा वक़ार था और सिर्फ़ इस लफ़्ज़ को ज़बान पर लाने ही से मालूम हो जाया करता कि ये शख़्स कुछ पा रहा है। लफ़्ज़ तनख़्वाह में वो शान नहीं। तनख़्वाह कितनी ही क्यों हो वो मन्सब का दर्जा नहीं पा सकती। इसीलिए जब भी किसी मुलाज़िम पेशा के रिश्ते वग़ैरा की बात हो तो उस की सिर्फ़ तनख़्वाह नहीं पूछी जाती बालाई आमदनी भी दरयाफ़्त की जाती है।

    लतीफ़ा गोई के उरूज के दिनों में फ़ारिगुलबाली भी बकसरत थी इसलिए हमने किसी भी तारीख़ की किताब में या उस ज़माने के रुक्क़ात और मख़तूतात में किसी मन्सब कमीशन का ज़िक्र नहीं पढ़ा। जब कि उन दिनों हर दूसरे तीसरे साल एक एक पे कमीशन हमारी ज़िंदगी का लाज़िमी जुज़्व बन गया है। जिस रात उस पे कमीशन की सिफ़ारिशों की मंज़ूरी का ऐलान होता है उसके दूसरे दिन सूरज की पहली किरन के साथ बाज़ार में खाने पीने की चीज़ों के दाम इस तरह बढ़ने लगते हैं जैसे उन्हें भी किसी ने बता दिया हो कि सितारों से आगे जहां और भी हैं।

    क़ुदरत का ये इंतज़ाम यानी अजीब-ओ-ग़रीब इंतज़ाम सभी पर रोशन है कि अगर किसी ने ज़रा कुछ लिख पढ़ लिया तो नौकरी उससे दूर खिसक गई और अगर उसने वाल्दैन के इसरार से दो-चार डिग्रियां हासिल करलीं तो वो ग़ैब गया काम से। रोशनी तबा कब और कैसे बला बनती है इसका अंदाज़ उसे डिग्री लेने के फ़ौरन बाद होजाता है लेकिन अब देर हो चुकी होती है, कुछ लोग तो अपनी डिग्रियों को जुर्म की तरह छुपाते हैं लेकिन वो जो कहा गया है कि ताड़ने वाले क़ियामत की नज़र रखते हैं। कुछ लोग समझते हैं कि नौकरी मिलने पर आदमी तजुर्बेकार बनता है, ये ग़लत ख़्याल है।

    नौकरी मिलने पर आदमी को तजुर्बा ज़्यादा होता है और उसे दुनिया देखने के ज़्यादा से ज़्यादा मवाक़े हासिल होते हैं। नौकरी मिलने पर तो आदमी एक जगह क़ैद हो कर रह जाता है और अगर वो शादीशुदा हुआ तो समझिए वो दिन में जुडीशियल कस्टडी में है और रात में पुलिस कस्टडी में। (जुडीशियल कस्टडी में बस मारपीट नहीं होती) हवालात में सही वो शब-ओ-रोज़ सवालात के घेरे में रहता है।

    कभी कभी हम सोचते हैं कि ये कोलंबस नाम का शख़्स भी कितना ख़ुश क़िस्मत था, अपनी हवाख़ोरी के लिए निकला और कुछ नहीं कुछ नहीं एक मुल्क उसके हाथ लग गया और मुल्क भी कैसा मुल्क? लोग तर्क-ए-वतन करके उसी मुल्क की तरफ़ भागते हैं जिसे कोलंबस ने दरयाफ़्त किया था। इससे तो अच्छा था कि कोलंबस यूँही समुंदर की सैर करके अपने घर वापस आजाता। लोगों को तर्क-ए-वतन की आदत तो पड़ती और ऐसा भी नहीं है कि बेरोज़गारी किसी मुल्क का इजारा है।

    ये सभी जगह उस बीमारी की तरह फैली हुई है जिसके बारे में आजकल अख़बारों में ज़रूरत से ज़्यादा लिखा जा रहा है और उससे बचने की एहतियाती तदाबीर इख़्तियार की जा रही हैं। एहतियाती तदाबीर किसी भी सिलसिले में हों इसलिए मुफ़ीद होती हैं कि उन तदाबीर की वजह से कुछ मुलाज़मतें ववुजूद में आती हैं इस लिए हम जब भी गुनाहों से फ़ुर्सत पाते हैं यही दुआ करते हैं कि क़ुदरत की करनी कुछ ऐसी हो कि एहतियाती तदाबीर का सिलसिला दुनिया के अधूरे कामों के सिलसिले की तरह जारी सारी रहे।

    बेरोज़गारी की कई क़िस्में होती हैं। उनमें से दो क़िस्म की बेरोज़गारियों से हम बख़ूबी वाक़िफ़ हैं, एक तो है आम बेरोज़गारी। ये इतनी आम है कि बा’ज़ मुल्कों में उसे मज़ीद आम करने के लिए बेरोज़गारी का मुआवज़ा दिया जाता है। आम बेरोज़गारी के अलावा मर्दाना बेरोज़गारी भी मक़बूल है। इस बेरोज़गारी की वजह ये नहीं है कि मर्दों ने पढ़ना लिखना या डिग्रियां और डिप्लोमे जमा करना तर्क कर दिया है बल्कि हुआ ये है ये अब आधी से ज़्यादा नौकरियां उनके हक़ में लिख दी गई हैं जिनके बारे में शायर अब तक कहा करते थे, “कुछ तो है जिससे हुई जाती है चिलमन रंगीं” यही वजह है कि दफ़्तरों में पहले ओवर टाइम नहीं हुआ करता अब सिर्फ़ ओवर टाइम हुआ करता है।

    हमारा मुशाहिदा है कि अब सभी जगह जूतों की सनअत ने बहुत ज़्यादा तरक़्क़ी की है और इसकी एक वजह ये भी है कि घिस जानेवाले जूतों में ज़्यादा तादाद उन जूतों की होती है जो नौकरी की तलाश में घिसते हैं। जूतों की ख़रीदारी ही पर अब इतनी कसीर रक़म ख़र्च होजाती है कि आदमी टोपी नहीं पहन सकता। आजकल अगर कोई शख़्स टोपी पहने नज़र आए तो उसके पाँव पर ज़रूर नज़र डाल लेनी चाहिए, हो सकता है कि वो जूते पहने हो।

    इत्तफ़ाक़ की बात ये है कि नौकरी सिर्फ़ उन्हें ही नहीं चाहिए जिन्हें उसकी ज़रूरत होती है बल्कि उसकी तलाश उन्हें भी होती है जो आराम करना चाहते हैं। इसीलिए जब भी मुलाज़मत का कोई इश्तिहार (अख़लाक़न) छपता है तो दरख़्वास्तों के ढेर के ढेर लग जाते हैं।

    कुछ ख़ुशक़िस्मत लोग ऐसे भी होते हैं जिन्हें हर साल एक नई मुलाज़मत एक नई कार और एक नई सेक्रेटरी दस्तयाब होजाती है, हमारा शुमार भी उन ही लोगों में है लेकिन सिर्फ़ उस वक़्त जब हम ख़्वाब देख रहे हों।

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