शेअर, शायर और मुशायरा
शायरों की क़िस्में गिनाना कोई अच्छी बात नहीं है। अच्छी बात हो या न हो काम आसान भी नहीं है क्योंकि शायर तो तारों की तरह होते हैं, लातादाद, जिन्हें आज तक कोई गिन नहीं सका। माहीरीन-ए-फ़लकियात हमारे यहां और हमारे मुल्क के अलावा दूसरे मुल्कों में भी जो हमारी तरह मक़रूज़ हैं, पैदा होते हैं लेकिन उन माहिरीन में से किसी ने भी तारों की मर्दुम-शुमारी का काम अंजाम नहीं दिया। कौन जान पर खेलना चाहेगा।
शायर भी तारों ही की क़बील में आते हैं, इसकी दो वजहें हैं, एक तादाद और दूसरे ये कि ये भी तारों ही तरह अँधेरी रातों में चमकते हैं। उनमें फ़ासिला भी काफ़ी रहता है। हमने जहां तक ग़ौर किया है शायरों में दो क़िस्म के शायर सर-ए-फ़ेहरिस्त हैं, एक वो जिन्हें मुहासिन शायरी पर उबूर हासिल होता है और वो हत्तलइमकान अपने इस उबूर को बरक़रार रखते हैं और दूसरे वो शायर जो मआइब शायरी में कमाल हासिल करते हैं और उन मआइब की जी जान से हिफ़ाज़त करते हैं। पहली क़िस्म के शायरों को अब पसंद नहीं किया जाता।
पहले भी बस ज़रूरतन पसंद कर लिया जाता था क्योंकि उनमें अक्सर शायर लिबास वग़ैरा के मुआमले में भी मुहतात रहते थे, ख़ास तौर पर मुशायरों में बहुत चौकन्ने रहते थे और कलाम सुनाते वक़्त उनमें से किसी शायर का इज़ारबंद ख़ारिज अज़ बहर नहीं होता था। वो पान ज़रूर खाते थे लेकिन जब उन्हें ज़हमत-ए-सुख़न दी जाती ये अपना (क़ीमती) पान अपने मुँह में दाएं बाएं सिम्त कोने में पहुंचा देते थे। रूमाल से मुँह भी साफ़ करलेते थे। उनके ये अफ़आल मुहासिन शायरी के सिवा होते थे और लोग उनके मुहासिन शायरी को गवारा करलेते थे। मुहासिन के मुक़ाबले में मआइब शायरी को हमेशा ज़्यादा पसंद किया जाता रहा है।
जिन शायरों ने मुहासिन का ख़्याल रखा उनसे तो कभी न कभी कोई ग़लती सरज़द हो गई और शे’र में कोई सिक़म पैदा हो गया लेकिन मआइब शायरी से रब्त रखने वाले शोअरा इस मुआमले में हमेशा कामयाब-ओ-कामरान रहे और उनकी पूरी शायरी मआइब और सिर्फ़ मआइब से ममलू और मुज़य्यन रही। उन्होंने ग़लती से भी कोई शे’र ऐसा नहीं कहा जिसमें कोई ख़ूबी दर आई हो। उन शोअरा ने अपने कलाम को पुर असर बनाने के लिए मेहनत बहुत की और तरन्नुम का बरसों रियाज़ किया। उनके गले में जो लहन पाया जाता है कुछ तो ख़ुदादाद है और कुछ तवील रियाज़ का नतीजा। जब भी उन्होंने मुशायरे में कलाम सुनाया उनकी मुख़्तसर बहर के शे’र भी तवील बहर के शे’र मालूम होते। (गो कि बहर उन में थी नहीं)और देर तक उनका लहन जारी रहा (दूर तक भी पहुंचा)।
हमें इस ख़बर पर यक़ीन तो नहीं आया लेकिन ये ख़बर हमने सुनी ज़रूर और एक नहीं कई लोगों की ज़बानी कि म्यूज़िक डायरेक्टरों की तरह अब शायरों की फ़लाह-ओ-बहबूद के लिए तरन्नुम डायरेक्टर भी होने लगे हैं और ये लोग अज़राह-ए-ख़ुलूस शायरों को उमूमन और शाएरात को ख़ुसूसन तरन्नुम का दर्स देने लगे हैं।
तरन्नुम का दर्स इसलिए भी मुश्किल होता है कि इसमें साज़ का सहारा नहीं लिया जाता लेकिन ब-वक़्त इस्तेममाल साज़ की कमी भी महसूस नहीं होती। तरन्नुम डायरेक्टरों का ख़्याल है कि शाएरात को तरन्नुम सिखाने में ज़्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती क्योंकि उनकी आवाज़ में पहले ही से तरन्नुम क़िस्म की कोई चीज़ पिनहां होती है, जिसे रूबकार लाने के लिए डायरेक्टरों का हल्का सा दस्त-ए-शफ़क़त काफ़ी होता है जब कि मुज़क्कर शायरों की आवाज़ में लताफ़त पैदा करने में देर लगती है और काफ़ी से ज़्यादा मसालेह इंतज़ामी दरकार होते हैं। तरन्नुम डायरेक्टर बनज़र एहतियात शायरों और शाएरात को अलग अलग शिफ्टों में दर्स देते हैं।
शाएरात को तरन्नुम का दर्स देते वक़्त उस शायर को हाज़िर रहने की इजाज़त होती है जिसने कलाम पर अपना ज़ोर सर्फ़ किया हो। बा’ज़ सूरतों में मुश्किल अलफ़ाज़ हज़्फ़ करवा दिए जाते हैं। कलाम के दूसरे मआइब इसलिए बरक़रार रहने दिए जाते हैं कि अगर उन्हें हज़्फ़ किया गया तो फिर कलाम में रहेगा क्या। इसलिए मुशायरों में देखा गया है कि हुस्न-ए-कलाम पर नहीं हुस्न-ए-तरन्नुम पर ज़्यादा दाद मिलती है।
सदर-ए-मुशायरा भी नींद से फ़ारिग़ हो कर उस कलाम को आँखें खोल कर सुनते और मीठी मीठी नज़रों से दाद देते हैं। शाएरात आते वक़्त तो ख़ाली हाथ आती हैं, जाते वक़्त मुशायरा लूट कर घर लौटती हैं। लूटे हुए मुशायरे को सँभाल कर ले जाने के लिए मददगार जो तादाद में कम से कम चार होते हैं, मुशायरा गाह में मौजूद रहते हैं। कुछ लोग उन्हें सेक्योरिटी गार्ड कहते हैं।
हमने अक्सर शायरों को भी मुशायरा लूटते देखा है लेकिन ये लोग बेदर्दी से मुशायरा नहीं लूटते, थोड़ा बहुत छोड़ भी देते हैं क्योंकि उनकी राय में माल-ए-ग़नीमत में सबका हिस्सा होता है। शाएरात ऐसा नहीं सोचतीं। शायरों और ख़ातून शायरों की नफ़सियात में यही फ़र्क़ होता है। दोनों में इस फ़र्क़ के अलावा दीगर क़िस्म के फ़र्क़ भी पाए जाते हैं जिनमें से कुछ क़ुदरती होते हैं।
मुशायरों के सामईन बड़ी हद तक मुंसिफ़ मिज़ाज होते हैं (ख़ुश-मिज़ाज तो होते ही हैं) और अपनी इंसाफ पसंदी की बिना पर जिन शायरों के कलाम में उयूब और नक़ाइस कम हों उन्हें ज़्यादा दाद नहीं देते। अक्सर सूरतों में तो सिरे से दाद देते ही नहीं और ये तरीक़ा हमारे ख़्याल में हर लिहाज़ से सही है। ये शायर उसी सुलूक के मुस्तहिक़ होते हैं। ये बात तै हो चुकी है कि मआइब शायरी से लुत्फ़ अंदोज़ होना मक़सूद हो तो मुशायरे में ज़रूर जाना चाहिए, और वो भी वक़्त-ए-मुक़र्ररा पर क्योंकि मआइब के मश्शाक़ी शायर, शुरू ही में मुशायरे को उरूज पर पहुंचा देते हैं। अगर उनका कलाम किसी वजह से मुशायरे को शबाब पर (या शबाब को मुशायरे पर) न लासके तो नाज़िम मुशायरा अपने लतीफों से इस कमी को पूरा कर देता है।
मुशायरों में अब लतीफों पर भी वैसी ही दाद दी जाने लगी है जैसा कि किसी ज़माने में अच्छे शे’र पर दी जाती थी। सामईन लतीफ़ा सुनकर बाजमाअत कहने लगते हैं मुकर्रर मुकर्रर (अनाउंसर लतीफ़ा दुबारा नहीं सुनाता बल्कि थोड़ा सा झेंप जाता है) लोगों का ख़्याल ये भी है कि चंद रसाइल ख़रीद कर भी मआइब शायरी से लुत्फ़ हासिल किया जा सकता है क्योंकि अदबी रसाइल भी पाबंदी से कलाम मज़मूम शाया करने लगे हैं (अब मंजूम कलाम कम ही नज़र आता है) लेकिन रसाइल की बिसात ही कितनी, मुशायरे की बात ही और होती है। हर नुक़्स मुकम्मल, हर ऐब दरख़शां, मुशायरे में मआइब की बारिश होती है, ख़ुद शायर भी तर हो जाता है।
कुछ अरसा पहले तक अदब में अस्नाफ़-ए-अदब की दर्जा बंदी होती थी और दानिश्वर क़िस्म के लोग फ़ैसले सादर करते थे कि किस सिन्फ़-ए-अदब को किस सिन्फ़-ए-अदब पर फ़ौक़ियत हासिल है। अब ये दर्जा बंदी नहीं होती क्योंकि अब सारी अस्नाफ़-ए-अदब एक ही साँचे की पैदावार हैं, ताहम जहां तक नक़ाइस और मआइब का ताल्लुक़ है शायरी को अफ़साने और नॉवेल पर फ़ौक़ियत हासिल है। शायरों में “मैन पावर” (MAN POWER) भी तो ज़्यादा है। शायरी में उयूब का मुआवज़ा भी बकसरत होता है और ये कलाम साक़ित निज़ाम बैरून-ए-मुल्क भी जाता है। “जाता है” से मुराद ये कि ख़ुद शायर उसे ले जाते हैं (ये बोझ किसी और से उठाया भी नहीं जा सकता) इस कलाम की ख़ूबी ये होती है कि वज़न में न जाने के बावजूद काफ़ी वज़नी होता है। कुछ वज़न नक़ाइस का होता है और कुछ बयाज़ का। शायरी को फ़न-ए-लतीफ़ा बनाने में शायरों ने जान तोड़ कोशिश की है।
मुहासिन शायरी पर किताबें भी लिखी गई हैं और हर नुक्ता वज़ाहत के साथ समझाया गया है, मिसालें भी दी गई हैं, जिनसे इन किताबों की इफ़ादियत और मुसन्निफ़ों की क़ाबिलीयत में काफ़ी इज़ाफ़ा हुआ है।
इन किताबों के मुसन्निफ़ों ने अपनी तस्नीफ़ से मुतास्सिर हो कर बड़े ख़ुलूस के साथ, ख़ुद भी शायरी की है और इस बात का ख़ास तौर पर ख़्याल रखा है कि उनके कलाम में सिर्फ़ फ़न का दख़ल हो शायरी का न हो। इस तौर की शायरी में शायर को बहुत मेहनत करनी पड़ती है और उतनी ही मेहनत क़ारी को भी करनी पड़ती है। इस कलाम में ज़ोर-ए-बाज़ू बहुत होता है। कुछ लोग इस शायरी को तुक बंदी का नाम देते हैं लेकिन ये मुबालग़ा है क्योंकि तुक बंदी में भी तो कोई तुक होता है।
हिन्दोस्तान एक ज़रई मुल्क है इसलिए शायरी हमारे मिज़ाज में है। हम बंजर ज़मीन से भी अच्छी फ़सल की तवक़्क़ो रखते हैं। हमारे यहां शायद ही कोई तनफ़्फ़ुस ऐसा हो जिसने शे’र न कहा हो। लड़कपन और तालिब इल्मी के ज़माने के कहे हुए शे’र आख़िर उम्र में उन लोगों को याद दिलाते हैं कि उन्हें ज़ाए न होने दिया जाये। लोग सिर्फ़ उन अशआर की ख़ातिर ऑटो बायोग्राफ़ी लिखते हैं जो शे’र ऑटो बायोग्राफ़ी लिखने पर उकसाएं उन्हें अच्छा होना ही चाहिए।
इस मजमूआ-ए-नस्र व नज़्म का नतीजा ये होता है कि लोग दाद तो नहीं देते लेकिन शायर कम मुसन्निफ़ का ऑटोग्राफ ज़रूर ले लेते हैं (शायर कम, मुकम्मल उर्दू तरकीब है।) हमारा तजुर्बा बताता है कि वो शायरी जिसमें मुहासिन हों सामईन जिनमें हम शामिल हैं कि सर पर से गुज़र जाती है। कुछ लोग तो खड़े रह कर ये कलाम सुनते हैं लेकिन शायर का कलाम तब भी ऊपर ही से गुज़र जाता है।
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