अब्दुल क़ादिर
ग़ज़ल 7
नज़्म 6
पुस्तकें 11
चित्र शायरी 1
आता है याद मुझ को बचपन का वो ज़माना रहता था साथ मेरे ख़ुशियों का जब ख़ज़ाना हर रोज़ घर में मिलते उम्दा लज़ीज़ खाने बे-मेहनत-ओ-मशक़्क़त हासिल था आब-ओ-दाना बच्चों के साथ रहना ख़ुशियों के गीत गाना दिल में न थी कुदूरत था सब से दोस्ताना मेहंदी के पत्ते लाना और पीस कर लगाना फिर सुर्ख़ हाथ अपने हर एक को दिखाना आवाज़ डुगडुगी की जूँ ही सुनाई देती उस की तरफ़ लपकना बच्चों का वालिहाना हर साल प्यारे अब्बू लाते थे एक बकरा चारा उसे खिलाना मैदान में घुमाना वो दूर जा चुका है आता नहीं पलट कर बचपन का वो ज़माना लगता है इक फ़साना दादी को मैं ने इक दिन ये मशवरा दिया था चेहरे की झुर्रियों को आसान है मिटाना चेहरे पे आप के हैं जो बे-शुमार शिकनें आया मिरी समझ में उन से नजात पाना कपड़े की सारी शिकनें मिटती हैं इस्त्री से आसान सा अमल है ये इस्त्री चलाना इक गर्म इस्त्री को चेहरे पे आप फेरें उम्दा है मेरा नुस्ख़ा है शर्त आज़माना इक रोज़ वालिदा से जा कर कहा किचन में अब छोड़िएगा अम्मी ये रोटियाँ पकाना इक पेड़ रोटियों का दालान में लगाएँ उस पेड़ को कहेंगे रोटी का कारख़ाना शाख़ों से ताज़ा ताज़ा फिर रोटियाँ मिलेंगी तोड़ेंगे रोटियाँ हम खाएँगे घर में खाना कैसी अजीब बातें आती थीं मेरे लब पर आज उन को कह रहा हूँ बातें हैं अहमक़ाना वो प्यारी प्यारी बातें अब याद आ रही हैं बचपन का वो ज़माना क्या ख़्वाब था सुहाना