अफ़ज़ल अली अफ़ज़ल
ग़ज़ल 9
अशआर 10
ख़ामोश आँखें उदास चेहरा ये बिखरी ज़ुल्फ़ें बुझा बुझा मन
कि ज़ीस्त जैसे हुई है बेवा उतार डाले तमाम गहने
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रातों की नींद एक परी-ज़ाद ले उड़ी
दिन का सुकून फ़िक्र-ए-मईशत में खो गया
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समझ आता है हम को दुख बड़ों का
हम अपने घर के बच्चों में बड़े हैं
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ऐसी हैं क़ुर्बतें कि मुझी में बसा है वो
ऐसे हैं फ़ासले कि नहीं राब्ता नसीब
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कुछ तो करें कि दिल ये कहीं और जा लगे
कुछ देर के लिए सही आँखों को चैन हो
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