aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
1779 - 1874 | दिल्ली, भारत
ग़ालिब की गज़लों के आलोचक
सीने में इक खटक सी है और बस
हम नहीं जानते कि क्या है दिल
कलाम-ए-मीर समझे और ज़बान-ए-मीरज़ा समझे
मगर उन का कहा ये आप समझें या ख़ुदा समझे
बे-सबाती चमन-ए-दहर की है जिन पे खुली
हवस-ए-रंग न वो ख़्वाहिश-ए-बू करते हैं
ऐ शम्अ सुब्ह होती है रोती है किस लिए
थोड़ी सी रह गई है इसे भी गुज़ार दे
मैं बुरा ही सही भला न सही
पर तिरी कौन सी जफ़ा न सही
Kulliyat-e-Aish
1992
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