ज़ेबा
ग़ज़ल 9
अशआर 13
हुआ है इश्क़ में कम हुस्न-ए-इत्तिफ़ाक़ ऐसा
कि दिल को यार तो दिल यार को पसंद हुआ
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पहले क्या था जो किया करते थे तारीफ़ मिरी
अब हुआ क्या जो बुरा हो गया अच्छा हो कर
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आप को खो के तुम को ढूँढ लिया
हौसला था ये मेरे ही दिल का
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नहीं है फ़ुर्सत यहीं के झगड़ों से फ़िक्र-ए-उक़्बा कहाँ की वाइ'ज़
अज़ाब-ए-दुनिया है हम को क्या कम सवाब हम ले के क्या करेंगे
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ख़ुदा की भी नहीं सुनते हैं ये बुत
भला मैं क्या हूँ मेरी इल्तिजा क्या
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