इब्राहीम अश्क के शेर
न दिल में कोई ग़म रहे न मेरी आँख नम रहे
हर एक दर्द को मिटा शराब ला शराब दे
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बस एक बार ही तोड़ा जहाँ ने अहद-ए-वफ़ा
किसी से हम ने फिर अहद-ए-वफ़ा किया ही नहीं
ज़िंदगी वादी ओ सहरा का सफ़र है क्यूँ है
इतनी वीरान मिरी राह-गुज़र है क्यूँ है
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टैग : ज़िंदगी
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महफ़िल-ए-याराँ में दीवानों का आलम कुछ न पूछ
जाम हाथों में उठाएँ तो छलकना चाहिए
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तिरी ज़मीं से उठेंगे तो आसमाँ होंगे
हम ऐसे लोग ज़माने में फिर कहाँ होंगे
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टैग : तअल्ली
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करें सलाम उसे तो कोई जवाब न दे
इलाही इतना भी उस शख़्स को हिजाब न दे
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रात भर तन्हा रहा दिन भर अकेला मैं ही था
शहर की आबादियों में अपने जैसा मैं ही था
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मुझे न देखो मिरे जिस्म का धुआँ देखो
जला है कैसे ये आबाद सा मकाँ देखो
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कोई तो होगा जिस को मिरा इंतिज़ार है
कहता है दिल के शहर-ए-तमन्ना में ले के चल
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थी हौसले की बात ज़माने में ज़िंदगी
क़दमों का फ़ासला भी यहाँ एक जस्त था
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कोई भरोसा नहीं अब्र के बरसने का
बढ़ेगी प्यास की शिद्दत न आसमाँ देखो
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नहीं है तुम में सलीक़ा जो घर बनाने का
तो 'अश्क' जाओ परिंदों के आशियाँ देखो
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ख़ुद अपने आप से लेना था इंतिक़ाम मुझे
मैं अपने हाथ के पत्थर से संगसार हुआ
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टैग : इंतिक़ाम
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किस लिए कतरा के जाता है मुसाफ़िर दम तो ले
आज सूखा पेड़ हूँ कल तेरा साया मैं ही था
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चले गए तो पुकारेगी हर सदा हम को
न जाने कितनी ज़बानों से हम बयाँ होंगे
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ये और बात है कि बरहना थी ज़िंदगी
मौजूद फिर भी मेरे बदन पर लिबास था
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दुनिया बहुत क़रीब से उठ कर चली गई
बैठा मैं अपने घर में अकेला ही रह गया
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बिखरे हुए थे लोग ख़ुद अपने वजूद में
इंसाँ की ज़िंदगी का अजब बंदोबस्त था
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ज़िंदगी अपनी मुसलसल चाहतों का इक सफ़र
इस सफ़र में बार-हा मिल कर बिछड़ जाता है वो
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