मजीद अमजद के शेर
मैं रोज़ इधर से गुज़रता हूँ कौन देखता है
मैं जब इधर से न गुज़रूँगा कौन देखेगा
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हाए वो ज़िंदगी-फ़रेब आँखें
तू ने क्या सोचा मैं ने क्या समझा
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मैं एक पल के रंज-ए-फ़रावाँ में खो गया
मुरझा गए ज़माने मिरे इंतिज़ार में
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सलाम उन पे तह-ए-तेग़ भी जिन्हों ने कहा
जो तेरा हुक्म जो तेरी रज़ा जो तू चाहे
मसीह-ओ-ख़िज़्र की उम्रें निसार हों उस पर
वो एक लम्हा जो यारों के दरमियाँ गुज़रे
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बड़े सलीक़े से दुनिया ने मेरे दिल को दिए
वो घाव जिन में था सच्चाइयों का चरका भी
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हर वक़्त फ़िक्र-ए-मर्ग-ए-ग़रीबाना चाहिए
सेह्हत का एक पहलू मरीज़ाना चाहिए
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क्या रूप दोस्ती का क्या रंग दुश्मनी का
कोई नहीं जहाँ में कोई नहीं किसी का
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ज़िंदगी की राहतें मिलती नहीं मिलती नहीं
ज़िंदगी का ज़हर पी कर जुस्तुजू में घुमिए
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तिरे ख़याल के पहलू से उठ के जब देखा
महक रहा था ज़माने में चार-सू तिरा ग़म
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इस जलती धूप में ये घने साया-दार पेड़
मैं अपनी ज़िंदगी उन्हें दे दूँ जो बन पड़े
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निगह उठी तो ज़माने के सामने तिरा रूप
पलक झुकी तो मिरे दिल के रू-ब-रू तिरा ग़म
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ये क्या तिलिस्म है ये किस की यासमीं बाँहें
छिड़क गई हैं जहाँ-दर-जहाँ गुलाब के फूल
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मेरी मानिंद ख़ुद-निगर तन्हा
ये सुराही में फूल नर्गिस का
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दिन कट रहे हैं कश्मकश-ए-रोज़गार में
दम घुट रहा है साया-ए-अब्र-ए-बहार में
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चाँदनी में साया-हा-ए-काख़-ओ-कू में घूमिए
फिर किसी को चाहने की आरज़ू में घूमिए
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सुपुर्दगी में भी इक रम्ज़-ए-ख़ुद-निगह-दारी
वो मेरे दिल से मिरे वास्ते नहीं गुज़रे
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जब अंजुमन तवज्जोह-ए-सद-गुफ़्तुगू में हो
मेरी तरफ़ भी इक निगह-ए-कम-सुख़न पड़े
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शायद इक भूली तमन्ना मिटते मिटते जी उठे
और भी इस जल्वा-ज़ार-ए-रंग-ओ-बू में घुमिए
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