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आधुनिक ग़ज़ल के लोकप्रिय शायर, अंग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर रहे

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आज़ाद गुलाटी के शेर

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साल-ए-नौ आता है तो महफ़ूज़ कर लेता हूँ मैं

कुछ पुराने से कैलन्डर ज़ेहन की दीवार पर

समेट लो मुझे अपनी सदा के हल्क़ों में

मैं ख़ामुशी की हवा से बिखरने वाला हूँ

कुछ ऐसे फूल भी गुज़रे हैं मेरी नज़रों से

जो खिल के भी समझ पाए ज़िंदगी क्या है

आप जिस रह-गुज़र-ए-दिल से कभी गुज़रे थे

उस पे ता-उम्र किसी को भी गुज़रने दिया

हर इक ने देखा मुझे अपनी अपनी नज़रों से

कोई तो मेरी नज़र से भी देखता मुझ को

ये मैं था या मिरे अंदर का ख़ौफ़ था जिस ने

तमाम उम्र दी तन्हाई की सज़ा मुझ को

यादों की महफ़िल में खो कर

दिल अपना तन्हा तन्हा है

दश्त-ए-ज़ुल्मात में हम-राह मिरे

कोई तो है जो जला है मुझ में

किस से पूछें रात-भर अपने भटकने का सबब

सब यहाँ मिलते हैं जैसे नींद में जागे हुए

एक वो हैं कि जिन्हें अपनी ख़ुशी ले डूबी

एक हम हैं कि जिन्हें ग़म ने उभरने दिया

तुम्हें भी मुझ में शायद वो पहली बात मिले

ख़ुद अपने वास्ते अब कोई दूसरा हूँ मैं

आज आईने में ख़ुद को देख कर याद गया

एक मुद्दत हो गई जिस शख़्स को देखे हुए

रौशनी फैली तो सब का रंग काला हो गया

कुछ दिए ऐसे जले हर-सू अंधेरा हो गया

आसमाँ एक सुलगता हुआ सहरा है जहाँ

ढूँढता फिरता है ख़ुद अपना ही साया सूरज

अपनी सारी काविशों को राएगाँ मैं ने किया

मेरे अंदर जो था उस को बयाँ मैं ने किया

उसे भी जाते हुए तुम ने मुझ से छीन लिया

तुम्हारा ग़म तो मिरी आरज़ू का ज़ेवर था

समेट लाता हूँ मोती तुम्हारी यादों के

जो ख़ल्वतों के समुंदर में डूबता हूँ मैं

मैं साथ ले के चलूँगा तुम्हें हम-सफ़रो

मैं तुम से आगे हूँ लेकिन ठहरने वाला हूँ

वक़्त का ये मोड़ कैसा है कि तुझ से मिल के भी

तुझ को खो देने का ग़म कुछ और गहरा हो गया

फेंका था हम पे जो कभी उस को उठा के देख

जो कुछ लहू में था उसी पत्थर पे नक़्श है

ज़िंदगी ज़िंदगी!! दो घड़ी मिल कर रहें

तुझ से मेरा उम्र-भर का तो कोई झगड़ा था

वो वक़्त आएगा जब ख़ुद तुम्ही ये सोचोगी

मिला होता अगर तुझ से मैं तो बेहतर था

किसे मिलती नजात 'आज़ाद' हस्ती के मसाइल से

कि हर कोई मुक़य्यद आब गिल के सिलसिलों का था

देखने वाले मुझे मेरी नज़र से देख ले

मैं तिरी नज़रों में हूँ और मैं ही हर मंज़र में हूँ

शायद तुम भी अब मुझे पहचान सको

अब मैं ख़ुद को अपने जैसा लगता हूँ

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