बेखुद बदायुनी के शेर
हासिल उस मह-लक़ा की दीद नहीं
ईद है और हम को ईद नहीं
उन की हसरत भी नहीं मैं भी नहीं दिल भी नहीं
अब तो 'बेख़ुद' है ये आलम मिरी तंहाई का
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कभी हया उन्हें आई कभी ग़ुरूर आया
हमारे काम में सौ सौ तरह फ़ुतूर आया
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अपनी ख़ू-ए-वफ़ा से डरता हूँ
आशिक़ी बंदगी न हो जाए
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न मुदारात हमारी न अदू से नफ़रत
न वफ़ा ही तुम्हें आई न जफ़ा ही आई
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बैठता है हमेशा रिंदों में
कहीं ज़ाहिद वली न हो जाए
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आँसू मिरी आँखों में हैं नाले मिरे लब पर
सौदा मिरे सर में है तमन्ना मिरे दिल में
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वाइज़ ओ मोहतसिब का जमघट है
मै-कदा अब तो मै-कदा न रहा
वो जो कर रहे हैं बजा कर रहे हैं
ये जो हो रहा है बजा हो रहा है
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दैर-ओ-हरम को देख लिया ख़ाक भी नहीं
बस ऐ तलाश-ए-यार न दर-दर फिरा मुझे
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शिफ़ा क्या हो नहीं सकती हमें लेकिन नहीं होती
दवा क्या कर नहीं सकते हैं हम लेकिन नहीं करते
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वो उन का वस्ल में ये कह के मुस्कुरा देना
तुलू-ए-सुब्ह से पहले हमें जगा देना
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शिकवा सुन कर जो मिज़ाज-ए-बुत-ए-बद-ख़ू बदला
हम ने भी साथ ही तक़रीर का पहलू बदला
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ख़ून हो जाएँ ख़ाक में मिल जाएँ
हज़रत-ए-दिल से कुछ बईद नहीं
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गर्दिश-ए-बख़्त से बढ़ती ही चली जाती हैं
मिरी दिल-बस्तगियाँ ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर के साथ
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