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इशरत आफ़रीं के शेर

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लड़कियाँ माओं जैसे मुक़द्दर क्यूँ रखती हैं

तन सहरा और आँख समुंदर क्यूँ रखती हैं

शाम को तेरा हँस कर मिलना

दिन भर की उजरत होती है

भूक से या वबा से मरना है

फ़ैसला आदमी को करना है

अकेले घर में भरी दोपहर का सन्नाटा

वही सुकून वही उम्र भर का सन्नाटा

तेरा नाम लिखती हैं उँगलियाँ ख़लाओं में

ये भी इक दुआ होगी वस्ल की दुआओं में

कच्ची उम्रों में भी अकेली रही

मैं सदा अपनी ही सहेली रही

ये और बात कि कम-हौसला तो मैं भी थी

मगर ये सच है उसे पहले मैं ने चाहा था

अपनी आग को ज़िंदा रखना कितना मुश्किल है

पत्थर बीच आईना रखना कितना मुश्किल है

वो जिस ने अश्कों से हार नहीं मानी

किस ख़ामोशी से दरिया में डूब गई

आओ ज़रा सी देर को हम हँस-बोल ही लें

तुम को नहीं मंज़ूर है अच्छा रहने दो

ख़्वाहिशें दिल में मचल कर यूँही सो जाती हैं

जैसे अँगनाई में रोता हुआ बच्चा कोई

वो ज़ख़्म चुन के मिरे ख़ार मुझ में छोड़ गया

कि उस को शौक़ था बे-इंतिहा गुलाबों का

या मुझे तेरी हथेली बूझे

या कोई शोख़ सहेली बूझे

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