कृष्ण बिहारी नूर के शेर
क्यूँ आईना कहें उसे पत्थर न क्यूँ कहें
जिस आईने में अक्स न उस का दिखाई दे
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चाहे सोने के फ़्रेम में जड़ दो
आइना झूट बोलता ही नहीं
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आइना ये तो बताता है कि मैं क्या हूँ मगर
आइना इस पे है ख़ामोश कि क्या है मुझ में
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मैं जिस के हाथ में इक फूल दे के आया था
उसी के हाथ का पत्थर मिरी तलाश में है
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इतने हिस्सों में बट गया हूँ मैं
मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं
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तिश्नगी के भी मक़ामात हैं क्या क्या यानी
कभी दरिया नहीं काफ़ी कभी क़तरा है बहुत
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मैं तो ग़ज़ल सुना के अकेला खड़ा रहा
सब अपने अपने चाहने वालों में खो गए
जितने मौसम हैं सभी जैसे कहीं मिल जाएँ
इन दिनों कैसे बताऊँ जो फ़ज़ा है मुझ में
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कैसी अजीब शर्त है दीदार के लिए
आँखें जो बंद हों तो वो जल्वा दिखाई दे
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आइना ये तो बताता है मैं क्या हूँ लेकिन
आइना इस पे है ख़ामोश कि क्या है मुझ में
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ज़िंदगी से बड़ी सज़ा ही नहीं
और क्या जुर्म है पता ही नहीं
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सच घटे या बढ़े तो सच न रहे
झूट की कोई इंतिहा ही नहीं
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हवस ने तोड़ दी बरसों की साधना मेरी
गुनाह क्या है ये जाना मगर गुनाह के बअ'द
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यही मिलने का समय भी है बिछड़ने का भी
मुझ को लगता है बहुत अपने से डर शाम के बाद
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इक तरफ़ क़ानून है और इक तरफ़ इंसान है
ख़त्म होता ही नहीं जुर्म-ओ-सज़ा का सिलसिला
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मौसम हैं दो ही इश्क़ के सूरत कोई भी हो
हैं उस के पास आइने हिज्र-ओ-विसाल के
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ज़िंदगी से बड़ी सज़ा ही नहीं
और क्या जुर्म है पता ही नहीं
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जैसे अन-देखे उजाले की कोई दीवार हो
बंद हो जाता है कुछ दूरी पे हर इक रास्ता
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ऐसा न हो गुनाह की दलदल में जा फँसूँ
ऐ मेरी आरज़ू मुझे ले चल सँभाल के
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मिटे ये शुबह तो ए दोस्त तुझ से बात करें
हमारी पहली मुलाक़ात आख़िरी तो नहीं
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