कृष्ण कुमार तूर के शेर
मैं तो था मौजूद किताब के लफ़्ज़ों में
वो ही शायद मुझ को पढ़ना भूल गया
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मैं वहम हूँ कि हक़ीक़त ये हाल देखने को
गिरफ़्त होता हूँ अपना विसाल देखने को
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सफ़र न हो तो ये लुत्फ़-ए-सफ़र है बे-मअ'नी
बदन न हो तो भला क्या क़बा में रक्खा है
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कब तक तू आसमाँ में छुप के बैठेगा
माँग रहा हूँ मैं कब से दुआ बाहर आ
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बंद पड़े हैं शहर के सारे दरवाज़े
ये कैसा आसेब अब घर घर लगता है
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बहुत कहा था कि तुम अकेले न रह सकोगे
बहुत कहा था कि हम को यूँ दर-ब-दर न करना
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उन से क्या रिश्ता था वो क्या मेरे लगते थे
गिरने लगे जब पेड़ से पत्ते तो मैं रोया बहुत
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उस को खोना अस्ल में उस को पाना है
हासिल का ही परतव है ला-हासिल में
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मैं किस से करता यहाँ गुफ़्तुगू कोई भी न था
नहीं था मेरे मुक़ाबिल जो तू कोई भी न था
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टैग : तन्हाई
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एक दिया दहलीज़ पे रक्खा भूल गया
घर को लौट के आने वाला भूल गया
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सब का दामन मोतियों से भरने वाले
मेरी आँख में भी इक आँसू रखना था
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वो भी मुझ को भुला के बहुत ख़ुश बैठा है
मैं भी उस को छोड़ के 'तूर' निहाल हुआ
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यहाँ किसी को किसी की ख़बर नहीं दरकार
अजब तरह का ये सारा जहान हो गया है
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इक आग सी अब लगी हुई है
पानी में असर कहाँ से आया
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सारी उम्र किसी की ख़ातिर सूली पे लटका रहा
शायद 'तूर' मेरे अंदर इक शख़्स था ज़िंदा बहुत
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दोनों बहर-ए-शोला-ए-ज़ात दोनों असीर-ए-अना
दरिया के लब पर पानी दश्त के लब पर प्यास
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क्यूँ मुझे महसूस ये होता है अक्सर रात भर
सीना-ए-शब पर चमकता है समुंदर रात भर
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मैं जब पेड़ से गिर के ज़मीं की ख़ाक हुआ
तब इक आलम-ए-मौहूम समझ में आया
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ख़ुद ही चराग़ अब अपनी लौ से नालाँ है
नक़्श ये क्या उभरा ये कैसा ज़वाल हुआ
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ये असरार है ज़ाहिर उस के होने का
मंज़र हो या पस-मंज़र गहरा पानी
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