मीर मोहम्मदी बेदार के शेर
बाप का है फ़ख़्र वो बेटा कि रखता हो कमाल
देख आईने को फ़रज़ंद-ए-रशीद-ए-संग है
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आह क़ासिद तो अब तलक न फिरा
दिल धड़कता है क्या हुआ होगा
हवास-ओ-होश को छोड़ आप दिल गया उस पास
जब अहल-ए-फ़ौज ही मिल जाएँ क्या सिपाह करे
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हैं तसव्वुर में उस के आँखें बंद
लोग जानें हैं ख़्वाब करता हूँ
ख़ुशी है सब को रोज़-ए-ईद की याँ
हुए हैं मिल के बाहम आश्ना ख़ुश
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टैग : ईद
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अपने ऊपर तू रहम कर ज़ालिम
देख मत बार बार आईना
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हम पे सौ ज़ुल्म-ओ-सितम कीजिएगा
एक मिलने को न कम कीजिएगा
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ये भी आना है कोई इस से न आना बेहतर
आए दम भी न हुआ कहते हो जाऊँ जाऊँ
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मिन्नत-ओ-आजिज़ी ओ ज़ारी-ओ-आह
तेरे आगे हज़ार कर देखा
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टैग : आजिज़ी
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नश्शे में जी चाहता है बोसा-बाज़ी कीजिए
इतनी रुख़्सत दीजिए बंदा-नवाज़ी कीजिए
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जीने की नहीं उमीद हम को
तीर उस का जिगर के पार निकला
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टैग : तीर
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सब ने लूटे उन के जल्वे के मज़े
शर्बत-ए-दीदार जूठा हो गया
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याद करते हैं तुझे दैर-ओ-हरम में शब-ओ-रोज़
अहल-ए-तस्बीह जुदा साहिब-ए-ज़ुन्नार जुदा
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मय-कदे में जो तिरे हुस्न का मज़कूर हुआ
संग-ए-ग़ैरत से मिरा शीशा-ए-दिल चूर हुआ
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रोज़ी-रसाँ ख़ुदा है फ़िक्र-ए-मआश मत कर
इस ख़ार का तू दिल में ख़ौफ-ए-ख़राश मत कर
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जाते हो सैर-ए-बाग़ को अग़्यार साथ हो
जो हुक्म हो तो ये भी गुनहगार साथ हो
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मश्शाता देख शाने से तेरा कटेगा हाथ
टूटा गर एक बाल कभू ज़ुल्फ़-ए-यार का
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जाता है चला क़ाफ़िला-ए-अश्क शब ओ रोज़
मालूम नहीं उस का इरादा है कहाँ का
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आप को आप में नहीं पाता
जी में याँ तक मिरे समाए हो
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'बेदार' राह-ए-इश्क़ किसी से न तय हुई
सहरा में क़ैस कोह में फ़रहाद रह गया
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किया हंगामा-ए-गुल ने मिरा जोश-ए-जुनूँ ताज़ा
उधर आई बहार ईधर गरेबाँ का रफ़ू टूटा
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टैग : बहार
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मेहराब-ए-अबरू-ए-बुत-ए-काफ़िर-अदा को देख
काबा का शैख़ बाँध के एहराम रह गया
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अजब की साहिरी उस मन-हरन की चश्म-ए-फ़त्ताँ ने
दिया काजल सियाही ले के आँखों से ग़ज़ालाँ की
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गर किसी ग़ैर को फ़रमाओगे तब जानोगे
वे हमीं हैं कि बजा लावें जो इरशाद करो
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अयाँ है शक्ल तिरी यूँ हमारे सीना से
कि जूँ शराब नुमायाँ हो आबगीना से
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देख तू फ़ाल में कि वो मुझ से
न मिलेगा मिलेगा क्या होगा
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किस तरह हाल-ए-दिल कहूँ उस गुल से बाग़ में
फिरती है उस के साथ तो हर-दम सबा लगी
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अबस मल मल के धोता है तू अपने दस्त-ए-नाज़ुक को
नहीं जाने की सुर्ख़ी हाथ से ख़ून-ए-शहीदाँ की
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जहाँ वो है नहीं वाँ कुफ़्र ओ इस्लाम
अबस झगड़ा है शैख़ ओ बरहमन में
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हूँ मैं वो दीवाना-ए-नाज़ुक-मिज़ाज-ए-गुल-रुख़ाँ
कीजिए ज़ंजीर जिस को साया-ए-ज़ंजीर से
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नहीं कुछ अब्र ही शागिर्द मेरी अश्क-बारी का
सबक़ लेती है मुझ से बर्क़ भी आ बे-क़रारी का
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टुक ऐ बुत अपने मुखड़े से उठा दे गोशा-ए-बुर्क़ा
कि इन मस्जिद-नशीनों को है दावा दीन-दारी का
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इस खेल से कह अपनी मिज़ा से कि बाज़ आए
आलम को नेज़ा-बाज़ी से ज़ेर-ओ-ज़बर किया
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जुनूँ ने दस्त-कारी ऐसी भी की
न था गोया गरेबाँ पैरहन में
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है ख़याल उस का माना-ए-गुफ़्तार
वर्ना सौ क़ुव्वत-ए-बयाँ है मुझे
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अगर चली है तो चल यूँ कि पात भी न हिले
ख़लल न लाए सबा तू फ़राग़ में गुल के
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मोहब्बत ऐसे की 'बेदार' सख़्त मुश्किल है
जो अपनी जान से गुज़रे वो उस की चाह करे
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शराब ओ साक़ी-ए-मह-रू जो साथ हों 'बेदार'
तो ख़ुश-नुमा है शब-ए-माहताब में दरिया
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हो गए दौर में उस चश्म के मय-ख़ाने ख़राब
न कहीं शीशा रहा और न कहीं जाम रहा
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साये से अपने वहशत करते हैं मिस्ल-ए-आहू
मुश्किल है हाथ लगना अज़-ख़ुद रमीदगाँ का
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सब लुटा इश्क़ के मैदान में उर्यां आया
रह गया पास मिरे दामन-ए-सहरा बाक़ी
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तेग़-बर-दोश सिपर हाथ में दामन गर्दां
ये बना सूरत-ए-खूँ-ख़्वार कहाँ जाना है
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क्या हो गर कोई घड़ी याँ भी करम फ़रमाओ
आप इस राह से आख़िर तो गुज़र करते हैं
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नश्शा-ए-हुस्न में सरशार चला जाता है
शब-ए-तारीक है दिलदार ख़ुदा को सौंपा
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गर वो बुत-ए-गुलनार-क़बा जल्वा-नुमा हो
दें ख़र्क़ा-ए-इस्लाम को अहल-ए-हरम आतिश
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