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मुफ़्ती सदरुद्दीन आज़ुर्दा

1789 - 1868 | दिल्ली, भारत

मुफ़्ती सदरुद्दीन आज़ुर्दा के शेर

दिल तमाम नफ़अ' है सौदा-ए-इश्क़ में

इक जान का ज़ियाँ है सो ऐसा ज़ियाँ नहीं

वो और वा'दा वस्ल का क़ासिद नहीं नहीं

सच सच बता ये लफ़्ज़ उन्ही की ज़बाँ के हैं

'आज़ुर्दा' मर के कूचा-ए-जानाँ में रह गया

दी थी दुआ किसी ने कि जन्नत में घर मिले

इस दर्द-ए-जुदाई से कहीं जान निकल जाए

'आज़ुर्दा' मिरे हक़ में ज़रा यूँ भी दुआ कर

नासेह यहाँ ये फ़िक्र है सीना भी चाक हो

है फ़िक्र-ए-बख़िया तुझ को गरेबाँ के चाक में

कटती किसी तरह से नहीं ये शब-ए-फ़िराक़

शायद कि गर्दिश आज तुझे आसमाँ नहीं

फ़लक ने भी सीखे हैं तेरे ही तौर

कि अपने किए पर पशेमाँ नहीं

मैं और ज़ौक़-ए-बादा-कशी ले गईं मुझे

ये कम-निगाहियाँ तिरी बज़्म-ए-शराब में

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