मुस्तफ़ा शहाब के शेर
ज़ेहन में याद के घर टूटने लगते हैं 'शहाब'
लोग हो जाते हैं जी जी के पुराने कितने
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ऐसा भी कभी हो मैं जिसे ख़्वाब में देखूँ
जागूँ तो वही ख़्वाब की ताबीर बताए
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टैग : ख़्वाब
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गो तर्क-ए-तअल्लुक़ में भी शामिल हैं कई दुख
बे-कैफ़ तअल्लुक़ के भी आज़ार बहुत हैं
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कहा था मैं ने खो कर भी तुझे ज़िंदा रहूँगा
वो ऐसा झूट था जिस को निभाना पड़ गया है
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मैं सच से गुरेज़ाँ हूँ और झूट पे नादिम हूँ
वो सच पे पशेमाँ है और झूट पर आमादा
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शायद वो भूली-बिसरी न हो आरज़ू कोई
कुछ और भी कमी सी है तेरी कमी के साथ
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टैग : आरज़ू
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मैं और मेरा शौक़-ए-सफ़र साथ हैं मगर
ये और बात है कि सफ़र हो गए तमाम
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बिछड़ा वो मुझ से ऐसे न बिछड़े कभी कोई
अब यूँ मिला है जैसे वो पहले मिला न हो
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होते होते मैं पहुँच जाता हूँ अपने आप तक
इस से आगे और कोई रास्ता जाता नहीं
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बिखरा बिखरा सा साज़-ओ-सामाँ है
हम कहीं दिल कहीं अक़ीदा कहीं
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इस तरह सजा रक्खे हैं मैं ने दर-ओ-दीवार
घर में तिरी सूरत के सिवा कुछ भी नहीं है
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दिल सँभाले नहीं सँभलता है
जैसे उठ कर अभी गया है कोई
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दर कुंज-ए-सदा-बंद का खोलेंगे किसी रोज़
हम लोग जो ख़ामोश हैं बोलेंगे किसी रोज़
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अपनी कश्ती सर पे रख कर चल रहे हैं हम 'शहाब'
ये भी मुमकिन है कि अगले मोड़ पर दरिया मिले
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मैं भी शायद आप को तन्हा मिलों
अपनी तन्हाई में जा कर देखिए
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सुब्ह तक जाने कहाँ मुझ को उड़ा कर ले जाए
एक आँधी जो सर-ए-शाम चली है मुझ में
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ये आब-दीदा ठहर जाए झील की सूरत
कि एक चाँद का टुकड़ा नहाना चाहता है
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टैग : आब दीदा
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कार-ए-ज़िंदगानी के शोर-ओ-शर में मुद्दत से
उस को भूल जाने का एहतिमाल रहता है
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हक़ीक़त को तमाशे से जुदा करने की ख़ातिर
उठा कर बारहा पर्दा गिराना पड़ गया है
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हम में और परिंदों में फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है
दस्त-ओ-पा मिले हम को बाल-ओ-पर परिंदों को
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ख़ौफ़ इक बुलंदी से पस्तियों में रुलने का
आब-जू में रहता है और नज़र नहीं आता
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