तिलोकचंद महरूम के शेर
साफ़ आता है नज़र अंजाम हर आग़ाज़ का
ज़िंदगानी मौत की तम्हीद है मेरे लिए
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अक़्ल को क्यूँ बताएँ इश्क़ का राज़
ग़ैर को राज़-दाँ नहीं करते
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तलातुम आरज़ू में है न तूफ़ाँ जुस्तुजू में है
जवानी का गुज़र जाना है दरिया का उतर जाना
बाद-ए-तर्क-ए-आरज़ू बैठा हूँ कैसा मुतमइन
हो गई आसाँ हर इक मुश्किल ब-आसानी मिरी
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टैग : आरज़ू
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ऐ हम-नफ़स न पूछ जवानी का माजरा
मौज-ए-नसीम थी इधर आई उधर गई
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टैग : जवानी
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उठाने के क़ाबिल हैं सब नाज़ तेरे
मगर हम कहाँ नाज़ उठाने के क़ाबिल
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मंदिर भी साफ़ हम ने किए मस्जिदें भी पाक
मुश्किल ये है कि दिल की सफ़ाई न हो सकी
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फ़िक्र-ए-मआश ओ इश्क़-ए-बुताँ याद-ए-रफ़्तगाँ
इन मुश्किलों से अहद-बरआई न हो सकी
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यूँ तो बरसों न पिलाऊँ न पियूँ ऐ ज़ाहिद
तौबा करते ही बदल जाती है नीयत मेरी
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न इल्म है न ज़बाँ है तो किस लिए 'महरूम'
तुम अपने आप को शाइर ख़याल कर बैठे
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ये फ़ितरत का तक़ाज़ा था कि चाहा ख़ूब-रूओं को
जो करते आए हैं इंसाँ न करते हम तो क्या करते
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दाम-ए-ग़म-ए-हयात में उलझा गई उमीद
हम ये समझ रहे थे कि एहसान कर गई
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हूँ वो बर्बाद कि क़िस्मत में नशेमन न क़फ़स
चल दिया छोड़ कर सय्याद तह-ए-दाम मुझे
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दिल में कहते हैं कि ऐ काश न आए होते
उन के आने से जो बीमार का हाल अच्छा है
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न रही बे-ख़ुदी-ए-शौक़ में इतनी भी ख़बर
हिज्र अच्छा है कि 'महरूम' विसाल अच्छा है
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गदा नहीं हैं कि दस्त-ए-सवाल फैलाएँ
कभी न आप ने पूछा कि आरज़ू क्या है
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है ये पुर-दर्द दास्ताँ 'महरूम'
क्या सुनाएँ किसी को हाल अपना
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बुरा हो उल्फ़त-ए-ख़ूबाँ का हम-नशीं हम तो
शबाब ही में बुरा अपना हाल कर बैठे
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दिल के तालिब नज़र आते हैं हसीं हर जानिब
उस के लाखों हैं ख़रीदार कि माल अच्छा है
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ब-ज़ाहिर गर्म है बाज़ार-ए-उल्फ़त
मगर जिंस-ए-वफ़ा कम हो गई है
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