वाजिद अली शाह अख़्तर के शेर
यही तशवीश शब-ओ-रोज़ है बंगाले में
लखनऊ फिर कभी दिखलाए मुक़द्दर मेरा
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उल्फ़त ने तिरी हम को तो रक्खा न कहीं का
दरिया का न जंगल का समा का न ज़मीं का
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दर-ओ-दीवार पे हसरत से नज़र करते हैं
ख़ुश रहो अहल-ए-वतन हम तो सफ़र करते हैं
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बे-मुरव्वत हो बेवफ़ा हो तुम
अपने मतलब के आश्ना हो तुम
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कमर धोका दहन उक़्दा ग़ज़ाल आँखें परी चेहरा
शिकम हीरा बदन ख़ुशबू जबीं दरिया ज़बाँ ईसा
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याद में अपने यार-ए-जानी की
हम ने मर मर के ज़िंदगानी की
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आज कल लखनऊ में ऐ 'अख़्तर'
धूम है तेरी ख़ुश-बयानी की
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तुराब-ए-पा-ए-हसीनान-ए-लखनऊ है ये
ये ख़ाकसार है 'अख़्तर' को नक़्श-ए-पा कहिए
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टैग : लखनऊ
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गिलौरी रक़ीबों ने भेजी है साहब
किसी और को भी खिला लीजिएगा
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टैग : पान
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मुझी को वाइज़ा पंद-ओ-नसीहत
कभी उस को भी समझाया तो होता
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बराए-सैर मुझ सा रिंद मय-ख़ाने में गर आए
गिरे साग़र लुंढे शीशा हँसे साक़ी बहे दरिया
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'अख़्तर'-ए-ज़ार भी हो मुसहफ़-ए-रुख़ पर शैदा
फ़ाल ये नेक है क़ुरआन से हम देखते हैं
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