वहशत रज़ा अली कलकत्वी के शेर
तेरा मरना इश्क़ का आग़ाज़ था
मौत पर होगा मिरे अंजाम-ए-इश्क़
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किस तरह हुस्न-ए-ज़बाँ की हो तरक़्क़ी 'वहशत'
मैं अगर ख़िदमत-ए-उर्दू-ए-मुअ'ल्ला न करूँ
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टैग : उर्दू
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हम ने आलम से बेवफ़ाई की
एक माशूक़-ए-बेवफ़ा के लिए
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निशान-ए-मंज़िल-ए-जानाँ मिले मिले न मिले
मज़े की चीज़ है ये ज़ौक़-ए-जुस्तुजू मेरा
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टैग : जुस्तुजू
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सच कहा है कि ब-उम्मीद है दुनिया क़ाइम
दिल-ए-हसरत-ज़दा भी तेरा तमन्नाई है
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ज़माना भी मुझ से ना-मुवाफ़िक़ मैं आप भी दुश्मन-ए-सलामत
तअज्जुब इस का है बोझ क्यूँकर मैं ज़िंदगी का उठा रहा हूँ
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तू हम से है बद-गुमाँ सद अफ़्सोस
तेरे ही तो जाँ-निसार हैं हम
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'वहशत' सुख़न ओ लुत्फ़-ए-सुख़न और ही शय है
दीवान में यारों के तो अशआर बहुत हैं
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और इशरत की तमन्ना क्या करें
सामने तू हो तुझे देखा करें
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सीने में मिरे दाग़-ए-ग़म-ए-इश्क़-ए-नबी है
इक गौहर-ए-नायाब मिरे हाथ लगा है
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ज़ालिम की तो आदत है सताता ही रहेगा
अपनी भी तबीअत है बहलती ही रहेगी
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टैग : महबूब
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इस ज़माने में ख़मोशी से निकलता नहीं काम
नाला पुर-शोर हो और ज़ोरों पे फ़रियाद रहे
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ज़मीं रोई हमारे हाल पर और आसमाँ रोया
हमारी बेकसी को देख कर सारा जहाँ रोया
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टैग : बेकसी
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हर चंद 'वहशत' अपनी ग़ज़ल थी गिरी हुई
महफ़िल सुख़न की गूँज उठी वाह वाह से
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बेजा है तिरी जफ़ा का शिकवा
मारा मुझ को मिरी वफ़ा ने
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बढ़ चली है बहुत हया तेरी
मुझ को रुस्वा न कर ख़ुदा के लिए
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मज़ा आता अगर गुज़री हुई बातों का अफ़्साना
कहीं से तुम बयाँ करते कहीं से हम बयाँ करते
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अज़ीज़ अगर नहीं रखता न रख ज़लील ही रख
मगर निकाल न तू अपनी अंजुमन से मुझे
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मेरा मक़्सद कि वो ख़ुश हों मिरी ख़ामोशी से
उन को अंदेशा कि ये भी कोई फ़रियाद न हो
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ख़ाक में किस दिन मिलाती है मुझे
उस से मिलने की तमन्ना देखिए
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कुछ समझ कर ही हुआ हूँ मौज-ए-दरिया का हरीफ़
वर्ना मैं भी जानता हूँ आफ़ियत साहिल में है
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अभी होते अगर दुनिया में 'दाग़'-ए-देहलवी ज़िंदा
तो वो सब को बता देते है 'वहशत' की ज़बाँ कैसी
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उठा लेने से तो दिल के रहा मैं
तू अब ज़ालिम वफ़ा कर या जफ़ा कर
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तुम्हारा मुद्दआ ही जब समझ में कुछ नहीं आया
तो फिर मुझ पर नज़र डाली ये तुम ने मेहरबाँ कैसी
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जो गिरफ़्तार तुम्हारा है वही है आज़ाद
जिस को आज़ाद करो तुम कभी आज़ाद न हो
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दोनों ने बढ़ाई रौनक़-ए-हुस्न
शोख़ी ने कभी कभी हया ने
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मिरे तो दिल में वही शौक़ है जो पहले था
कुछ आप ही की तबीअत बदल गई होगी
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नहीं मुमकिन लब-ए-आशिक़ से हर्फ़-ए-मुद्दआ निकले
जिसे तुम ने किया ख़ामोश उस से क्या सदा निकले
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रुख़-ए-रौशन से यूँ उट्ठी नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता
कि जैसे हो तुलू-ए-आफ़्ताब आहिस्ता आहिस्ता
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वो काम मेरा नहीं जिस का नेक हो अंजाम
वो राह मेरी नहीं जो गई हो मंज़िल को
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मजाल-ए-तर्क-ए-मोहब्बत न एक बार हुई
ख़याल-ए-तर्क-ए-मोहब्बत तो बार बार किया
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आग़ाज़ से ज़ाहिर होता है अंजाम जो होने वाला है
अंदाज़-ए-ज़माना कहता है पूरी हो तमन्ना मुश्किल है
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यहाँ हर आने वाला बन के इबरत का निशाँ आया
गया ज़ेर-ए-ज़मीं जो कोई ज़ेर-ए-आसमाँ आया
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ऐ मिशअल-ए-उम्मीद ये एहसान कम नहीं
तारीक शब को तू ने दरख़्शाँ बना दिया
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बज़्म में उस बे-मुरव्वत की मुझे
देखना पड़ता है क्या क्या देखिए
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गर्दन झुकी हुई है उठाते नहीं हैं सर
डर है उन्हें निगाह लड़ेगी निगाह से
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ज़िंदगी अपनी किसी तरह बसर करनी है
क्या करूँ आह अगर तेरी तमन्ना न करूँ
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'वहशत' उस बुत ने तग़ाफ़ुल जब किया अपना शिआर
काम ख़ामोशी से मैं ने भी लिया फ़रियाद का
ज़बरदस्ती ग़ज़ल कहने पे तुम आमादा हो 'वहशत'
तबीअत जब न हो हाज़िर तो फिर मज़मून क्या निकले
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ऐ अहल-ए-वफ़ा ख़ाक बने काम तुम्हारा
आग़ाज़ बता देता है अंजाम तुम्हारा
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मेहनत हो मुसीबत हो सितम हो तो मज़ा है
मिलना तिरा आसाँ है तलबगार बहुत हैं
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कठिन है काम तो हिम्मत से काम ले ऐ दिल
बिगाड़ काम न मुश्किल समझ के मुश्किल को
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न वो पूछते हैं न कहता हूँ मैं
रही जाती है दिल की दिल में हवस
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दोनों ने किया है मुझ को रुस्वा
कुछ दर्द ने और कुछ दवा ने
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था क़फ़स का ख़याल दामन-गीर
उड़ सके हम न बाल ओ पर ले कर
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आँख में जल्वा तिरा दिल में तिरी याद रहे
ये मयस्सर हो तो फिर क्यूँ कोई नाशाद रहे
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क़द्रदानी की कैफ़ियत मालूम
ऐब क्या है अगर हुनर न हुआ
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दिल को हम कब तक बचाए रखते हर आसेब से
ठेस आख़िर लग गई शीशे में बाल आ ही गया
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बढ़ा हंगामा-ए-शौक़ इस क़दर बज़्म-ए-हरीफ़ाँ में
कि रुख़्सत हो गया उस का हिजाब आहिस्ता आहिस्ता
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तू है और ऐश है और अंजुमन-आराई है
मैं हूँ और रंज है और गोशा-ए-तन्हाई है
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