बेकसी पर शेर

ज़िन्दगी की धूप-छाँव

हमेशा एक सी नहीं रहती। वक़्त और हालात आ’म इन्सान के हों या आशिक़ और शायर के, इन्हें बदलते देर नहीं लगती ताक़त और इख़्तियार के लम्हे बेकसी और बेबसी के पलों में तब्दील होते हैं तो शायर की तड़प और दुख-दर्द लफ़ज़ों में ढल जाते हैं, ऐसे लफ़्ज़ जो दुखे दिलों की कहानी भी होते हैं और बेहतरीन शायरी भी। बेकसी शायरी का यह इन्तिख़ाब पेश हैः

ये सर्द रात ये आवारगी ये नींद का बोझ

हम अपने शहर में होते तो घर गए होते

व्याख्या

यह शे’र उर्दू के मशहूर अशआर में से एक है। इसमें जो स्थिति पाई जाती है उसे अत्यंत एकांत अवस्था की कल्पना की जा सकती है। इसके विधानों में शिद्दत भी है और एहसास भी। “सर्द रात”, “आवारगी” और “नींद का बोझ” ये ऐसी तीन अवस्थाएं हैं जिनसे तन्हाई की तस्वीर बनती है और जब ये कहा कि “हम अपने शहर में होते तो घर गए होते” तो जैसे तन्हाई के साथ साथ बेघर होने की त्रासदी को भी चित्रित किया गया है। शे’र का मुख्य विषय तन्हाई और बेघर होना और अजनबीयत है। शायर किसी और शहर में है और सर्द रात में आँखों पर नींद का बोझ लिये आवारा घूम रहा है। स्पष्ट है कि वो शहर में अजनबी है इसलिए किसी के घर नहीं जा सकता वरना सर्द रात, आवारगी और नींद का बोझ वो मजबूरियाँ हैं जो किसी ठिकाने की मांग करती हैं। मगर शायर की त्रासदी यह है कि वो तन्हाई के शहर में किसी को जानता नहीं इसीलिए कहता है कि अगर मैं अपने शहर में होता तो अपने घर चला गया होता।

शफ़क़ सुपुरी

उम्मीद फ़ाज़ली

बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो थी

जैसी अब है तिरी महफ़िल कभी ऐसी तो थी

बहादुर शाह ज़फ़र

मुझ को मिरी शिकस्त की दोहरी सज़ा मिली

तुझ से बिछड़ के ज़िंदगी दुनिया से जा मिली

साक़ी फ़ारुक़ी

मैं बोलता हूँ तो इल्ज़ाम है बग़ावत का

मैं चुप रहूँ तो बड़ी बेबसी सी होती है

बशीर बद्र

आए है बेकसी-ए-इश्क़ पे रोना 'ग़ालिब'

किस के घर जाएगा सैलाब-ए-बला मेरे बअ'द

मिर्ज़ा ग़ालिब

कश्तियाँ टूट गई हैं सारी

अब लिए फिरता है दरिया हम को

बाक़ी सिद्दीक़ी

ज़मीं रोई हमारे हाल पर और आसमाँ रोया

हमारी बेकसी को देख कर सारा जहाँ रोया

वहशत रज़ा अली कलकत्वी

सब ने ग़ुर्बत में मुझ को छोड़ दिया

इक मिरी बेकसी नहीं जाती

बेदम शाह वारसी

आशिक़ की बे-कसी का तो आलम पूछिए

मजनूँ पे क्या गुज़र गई सहरा गवाह है

हफ़ीज़ जौनपुरी

इधर से आज वो गुज़रे तो मुँह फेरे हुए गुज़रे

अब उन से भी हमारी बे-कसी देखी नहीं जाती

असर लखनवी

अबस दिल बे-कसी पे अपनी अपनी हर वक़्त रोता है

कर ग़म दिवाने इश्क़ में ऐसा ही होता है

ख़ान आरज़ू सिराजुद्दीन अली

आँखें भी हाए नज़अ में अपनी बदल गईं

सच है कि बेकसी में कोई आश्ना नहीं

ख़्वाजा मीर दर्द

कर के दफ़्न अपने पराए चल दिए

बेकसी का क़ब्र पर मातम रहा

अहसन मारहरवी

अरी बेकसी तेरे क़ुर्बान जाऊँ

बुरे वक़्त में एक तू रह गई है

शरफ़ुद्दीन इल्हाम

क्यूँ मोज़ाहिम है मेरे आने से

कुइ तिरा घर नहीं ये रस्ता है

शैख़ ज़हूरूद्दीन हातिम

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