किसी दिन देख लो आलम मिरी बेताबी-ए-दिल का
किसी दिन देख लो आलम मिरी बेताबी-ए-दिल का
तमाशा देखना मंज़ूर है गर रक़्स-ए-बिस्मिल का
अगर याद आ गया इक दम तड़पना मुझ से बिस्मिल का
हर इक जौहर बनेगा चश्म-ए-गिर्यां तेग़-ए-क़ातिल का
गुनहगारों पे अपने गर चलेगी तेज़ हो हो कर
यक़ीं होता है दम चढ़ जाएगा शमशीर-ए-क़ातिल का
वो गिर्यां था असर बाक़ी है जिस का बा'द-ए-मुर्दन भी
टपकता है बनाते हैं अगर कासा मिरी गिल का
शहादत तो मिली लेकिन बुरा हो सख़्त-जानी का
रहेगा दर्द दिल में सदमा-ए-बाज़ू-ए-क़ातिल का
दिखा दो आख़िरी दीदार आसानी से दम निकले
नहीं मुश्किल है कुछ आसान होना मेरी मुश्किल का
नमाज़ अपनी क़ज़ा हो जाएगी का'बे में ऐ वाइज़
दम-ए-तकबीर गर ध्यान आ गया अबरू-ए-क़ातिल का
शहीद-ए-तेग़-ए-अबरू जानते थे दोस्त गर मुझ को
कफ़न देना था दामान-ए-निगाह-ए-नाज़-ए-क़ातिल का
हमारी सख़्त-जानी से हुई ख़िफ़्फ़त उसे हासिल
इसी बाइ'स से मुँह उतरा हुआ है तेग़-ए-क़ातिल का
सफ़ाई इस को कहते हैं कि क़िस्मत तक नहीं बाक़ी
मिरी गर्दन पे ये एहसान है शमशीर-ए-क़ातिल का
तिरे ऐ रश्क-ए-लैला क्यों न हों जिन्न-ओ-बशर आशिक़
बना है पर्दा-ए-चश्म-ए-परी से पर्दा महमिल का
तू ही शौक़-ए-शहादत कुछ हमारी दस्त-गीरी कर
क़दम उठते नहीं और है इरादा कू-ए-क़ातिल का
डरो दिल में ख़ुदा का ख़ौफ़ करना तुम को लाज़िम है
हुआ अच्छा नहीं मिस्मार करना का'बा-ए-दिल का
न चार आँखें किसी से कीं चला वो शो'ला-रू उठ कर
बजा रोना है ये आठ-आठ आँसू शम-ए-महफ़िल का
तिरे बीमार को हब्ब-ए-शिफ़ा की क्या ज़रूरत है
अभी सेहत हो गर बोसा मिले रुख़्सार के तिल का
गले से जिस तरह तौक़-ए-गुलू को मेरे उल्फ़त है
रहेगा पाँव से भी सिलसिला क़ाएम सलासिल का
बुतान-ए-संग-दिल के दिल में हर दम याद रहती है
तअज्जुब क्या अगर हो जाए मुझ को आरिज़ा सिल का
न क्यूँकर नूर-अफ़ज़ा-ए-निगाह-ए-इश्क़-बाज़ाँ हो
तुम्हारी ज़ुल्फ़ दूदा है चराग़-ए-माह-ए-कामिल का
तलाश इक रश्क-ए-लैला की है ऐसी दश्त-ए-वहशत में
कि मुझ को हर बगूले पर गुमाँ होता है महमिल का
हज़ार ऐ जान तुम चाह-ए-ज़क़न पर ज़ुल्फ़ लटका दो
निकलना सख़्त मुश्किल है हमारे यूसुफ़-ए-दिल का
हमारी आह बिजली की तरह तड़पेगी ऐ 'वहबी'
बनेगा आसमाँ जिस वक़्त दूद-ए-आतिश-ए-दिल का
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