रही इक ग़ैरत-ए-लैला की दिल में जुस्तुजू बरसों
रही इक ग़ैरत-ए-लैला की दिल में जुस्तुजू बरसों
मुंशी शिव परशाद वहबी
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रही इक ग़ैरत-ए-लैला की दिल में जुस्तुजू बरसों
ब-रंग-ए-क़ैस हम ने ख़ाक छानी कू-बकू बरसों
न लाए कुछ ज़बाँ पर हम ख़मोशी नाम है इस का
किया सीने में हम ने अपने ख़ून-ए-आरज़ू बरसों
तसाहुल इस को कहते हैं तग़ाफ़ुल नाम है इस का
गई इक दम में मेरी जान और आया न तू बरसों
जो घड़ियों दाँत पीसे हैं तो बरसों होंठ चाबे हैं
लब-ए-रंगीं के ग़म में हम ने थूका है लहू बरसों
परेशानी पे मेरी कुछ न रहम आया उसे हरगिज़
कहा ज़ुल्फ़-ए-दोता से हाल अपना मू-ब-मू बरसों
महीनों दास्ताँ मेरी सुनी है अंदलीबों ने
उड़ाया है गुल-ए-तर ने तुम्हारा रंग-ओ-बू बरसों
किया गर शग़्ल मय-ख़्वारी का तुम ने ग़ैर से दम भर
भरा ख़ून-ए-जिगर से हम ने जाम-ए-आरज़ू बरसों
कमर का हल हुआ हरगिज़ न उक़्दा मू-शिगाफ़ों से
रही है मुझ से इसबात-ए-दहन में गुफ़्तुगू बरसों
दर-ए-मय-ख़ाना मेहराब-ब-इबादत समझे हम मय-कश
शराब-ए-पुर्तगाली से किया हम ने वुज़ू बरसों
कहीं माह-ए-दो-हफ़्ता की नज़र मुझ को न लग जाए
न आया बाम पर इस ख़ौफ़ से वो माह-रू बरसों
अदा हो सज्दा मेहराब-ए-ख़म-ए-शमशीर-ए-क़ातिल में
किया अपने लहू से इस लिए हम ने वुज़ू बरसों
तसव्वुर में जो बोसा ले लिया था हम ने होंठों का
रहा आज़ुर्दा इतनी बात पर वो तुंद-ख़ू बरसों
नहीं कुछ एक दो दिन का हूँ मैं शागिर्द ऐ 'वहबी'
'क़लक़' से शायरी में मैं ने की है गुफ़्तुगू बरसों
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