आले रज़ा रज़ा
ग़ज़ल 28
अशआर 9
उन के सितम भी कह नहीं सकते किसी से हम
घुट घुट के मर रहे हैं अजब बेबसी से हम
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क़िस्मत में ख़ुशी जितनी थी हुई और ग़म भी है जितना होना है
घर फूँक तमाशा देख चुके अब जंगल जंगल रोना है
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दर्द-ए-दिल और जान-लेवा पुर्सिशें
एक बीमारी की सौ बीमारियाँ
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समझ तो ये कि न समझे ख़ुद अपना रंग-ए-जुनूँ
मिज़ाज ये कि ज़माना मिज़ाज-दाँ होता
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हम ने बे-इंतिहा वफ़ा कर के
बे-वफ़ाओं से इंतिक़ाम लिया
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