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आल-ए-अहमद सुरूर

1911 - 2002 | अलीगढ़, भारत

आधुनिक उर्दू आलोचना के संस्थापकों में शामिल हैं।

आधुनिक उर्दू आलोचना के संस्थापकों में शामिल हैं।

आल-ए-अहमद सुरूर

लेख 40

उद्धरण 30

अच्छा आलोचक वह है जो पाठक को रचना के मुताल्लिक़ नई बसीरत दे।

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उर्दू में अफ़साना अब भी अफ़साना कम है, मज़मून या मुरक़्क़ा या वाअ्ज़ ज़्यादा। अफ़्साना निगार अब भी अफ़सानों में ज़रूरत से ज़्यादा झाँकता है।

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ज़बान जितनी तरक़्क़ी करती जाती है मज्मूई तौर पर वह सादा और परकार होती जाती है।

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तन्क़ीदी शुऊर तो तख़्लीक़ी शुऊर के साथ-साथ चलता है, मगर तन्क़ीदी कारनामे हर दौर में तख़्लीक़ी कारनामों के पीछे चले हैं।

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सादगी, शायरी की कोई बुनियादी क़द्र नहीं है। बुनियादी क़द्र शेरियत है और ये शेरियत बड़ी पुरकर सादगी रखती है और ज़रूरत पड़ने पर मुश्किल भी हो सकती है।

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तंज़-ओ-मज़ाह 1

 

अशआर 20

अभी आते नहीं उस रिंद को आदाब-ए-मय-ख़ाना

जो अपनी तिश्नगी को फ़ैज़-ए-साक़ी की कमी समझे

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आज पी कर भी वही तिश्ना-लबी है साक़ी

लुत्फ़ में तेरे कहीं कोई कमी है साक़ी

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आती है धार उन के करम से शुऊर में

दुश्मन मिले हैं दोस्त से बेहतर कभी कभी

कुछ तो है वैसे ही रंगीं लब रुख़्सार की बात

और कुछ ख़ून-ए-जिगर हम भी मिला देते हैं

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वो तबस्सुम है कि 'ग़ालिब' की तरह-दार ग़ज़ल

देर तक उस की बलाग़त को पढ़ा करते हैं

ग़ज़ल 31

नज़्म 6

पुस्तकें 1443

ऑडियो 11

आज से पहले तिरे मस्तों की ये ख़्वारी न थी

कुछ लोग तग़य्युर से अभी काँप रहे हैं

ख़ुदा-परस्त मिले और न बुत-परस्त मिले

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