आलोक श्रीवास्तव
ग़ज़ल 20
अशआर 4
ये सोचना ग़लत है कि तुम पर नज़र नहीं
मसरूफ़ हम बहुत हैं मगर बे-ख़बर नहीं
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आ ही गए हैं ख़्वाब तो फिर जाएँगे कहाँ
आँखों से आगे उन की कोई रहगुज़र नहीं
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यही तो एक तमन्ना है इस मुसाफ़िर की
जो तुम नहीं तो सफ़र में तुम्हारा प्यार चले
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बात करो तो लफ़्ज़ों से भी ख़ुश्बू आती है
लगता है उस लड़की को भी उर्दू आती है
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