अब्दुल रहमान बज़्मी के शेर
छलक जाती है अश्क-ए-गर्म बन कर मेरी आँखों से
ठहरती ही नहीं सहबा-ए-दर्द इन आबगीनों में
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अबस ढूँडा किए हम ना-ख़ुदाओं को सफ़ीनों में
वो थे आसूदा-ए-साहिल मिले साहिल-नशीनों में
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था किसी गुम-कर्दा-ए-मंज़िल का नक़्श-ए-बे-सबात
जिस को मीर-ए-कारवाँ का नक़्श-ए-पा समझा था में
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