अब्दुल्लाह कमाल
ग़ज़ल 21
नज़्म 1
अशआर 9
अभी गुनाह का मौसम है आ शबाब में आ
नशा उतरने से पहले मिरी शराब में आ
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मैं तुझ को जागती आँखों से छू सकूँ न कभी
मिरी अना का भरम रख ले मेरे ख़्वाब में आ
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इक मुसलसल जंग थी ख़ुद से कि हम ज़िंदा हैं आज
ज़िंदगी हम तेरा हक़ यूँ भी अदा करते रहे
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आओ आज हम दोनों अपना अपना घर चुन लें
तुम नवाह-ए-दिल ले लो ख़ित्ता-ए-बदन मेरा
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