अब्दुर्रहमान मोमिन
ग़ज़ल 18
अशआर 27
चाँद में तू नज़र आया था मुझे
मैं ने महताब नहीं देखा था
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'मोमिन-मियाँ' ये काम नहीं है ये इश्क़ है
क्या सोच में पड़े हो करूँ या करूँ नहीं
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चाँद में तू नज़र आया था मुझे
मैं ने महताब नहीं देखा था
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ज़ख़्म खा कर भी जो दुआएँ दे
कौन उस का मुक़ाबला करेगा
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