अबु मोहम्मद वासिल बहराईची
ग़ज़ल 10
अशआर 17
हँसा करते हैं अक्सर लोग दीवानों की बातों पर
जहाँ वाले नहीं समझे मोहब्बत की ज़बाँ शायद
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रह-ए-वफ़ा में उन्हीं की ख़ुशी की बात करो
वो ज़िंदगी हैं तो फिर ज़िंदगी की बात करो
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तिरे ख़याल में मैं हूँ मिरे ख़याल में तू
मिरे बग़ैर तिरी दास्ताँ रहे न रहे
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मिज़ाज-ए-हुस्न तो इक हाल पर रहा क़ाएम
लुटाने वालों ने सब कुछ लुटा के देख लिया
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मुझे वो बातों बातों में अगर दीवाना कह देते
तो दीवानों में मेरी मो'तबर दीवानगी होती
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