अदा जाफ़री का परिचय
आ देख कि मेरे आँसुओं में
ये किस का जमाल आ गया है
जदीद शे’र-ओ-अदब के निर्माताओं में अदा जाफ़री एक विशिष्ट स्थान की मालिक हैं । उनको उर्दू शायरी की ख़ातून अव़्वल(प्रथम महिला) कहा जाता है क्योंकि उनकी शायरी ने बीसवीं सदी की मध्य दशक मेंमार्ग दर्शन और प्रभाव के संदर्भ में उर्दू की शायरात के हक़ में वही किरदार अदा किया जो अठारहवीं सदी में वली दकनी ने आम शायरोंके हक़ में अदा किया था। उन्होंने अपने बाद आने वाली शायरात किश्वर नाहीद, परवीन शाकिर और फ़हमीदा रियाज़ वग़ैरा के लिए शायरी का वो रास्ता हमवार किया जिस पर चल कर उन लोगों ने उर्दू में ख़वातीन की शायरी को विश्व मानक तक पहुंचाया।
अदा जाफ़री पारंपरिक होने के बावजूद आधुनिक हैं। बदलती हुई दुनिया और उसके सामाजिक और भावनात्मक तक़ाज़ों को अपनी परंपरा के सकारात्मक सिद्धांतों के साथ सामंजस्य बिठाना अदा जाफ़री का ख़ास कारनामा है। उन्होंने सभ्यता की शालीनता को कभी हाथ से नहीं जाने दिया। शालीनता, वाक्पटुता और ध्वनि-निर्माण का संयोजन उनके शे’री और रचनात्मक सार को अद्वितीय बनाता है। वो शायरात में चेतना और दशा के एक नए सिलसिले की अग्रदूत थीं। विरोध की राहों में बढ़ते हुए भी वो हवा की उन ख़ुशबुओं से मुग्ध रही हैं जिनमें पिछले मौसम-ए-बहार के फूलों की महक बाक़ी है। उन्होंने एक नारी की हैसियत से इंसान की कुछ ऐसी मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक अवस्थाओं को उजागर किया है जो किसी मर्द शायर से मुम्किन नहीं था। इसके साथ उन्होंने स्त्री परिवेश से परे और ज़ात के घेरे से बाहर निकल कर आम इंसानों की समस्याओं को अपनी शायरी का विषय बनाया। वो नारित्व की नरमी को अपनी विशिष्टता नहीं समझतीं। उन्होंने शायर के रूप में कोई रिआयत नहीं चाही। वो सबके लिए अपनी आवाज़ बुलंद करती हैं। उनके यहां मर्द, औरत और एशियाई या अफ़्रीक़ी का भेदभाव नहीं। अदा जाफ़री की शायरी बंधे टके आलोचनात्मक सिद्धांतों के दायरे में क़ैद नहीं हो पाती। उसे समझने और उससे आनंदित होने के लिए स्वस्थ चिंतन और और अच्छे शिष्टाचार का होना ज़रूरी है। अदा जाफ़री बाहरी मानक विचार से ज़्यादा निजी तजुर्बे से हासिल किए गए चेतना पर भरोसा करती हैं। व्यक्तित्व की समग्रता और अखंडता के साथ साथ एहसास की नज़ाकत और उसमें दुख की धीमी धीमी आँच ही उनका व्यक्तित्व है।
अदा जाफ़री का असल नाम अज़ीज़ जहां था, शादी के बाद उन्होंने अदा जाफ़री के नाम से लिखना शुरू किया। वो 1924 ई. में बदायूं के एक ख़ुशहाल घराने में पैदा हुईं। जब उनकी उम्र तीन बरस थी उनके वालिद का स्वर्गवास हो गया। उनका बचपन ननिहाल में गुज़रा। पिता के स्नेह से वंचित का उनके दिल पर गहरा असर हुआ। उनकी शिक्षा घर पर ट्युटर रखकर कराई गई। उन्होंने उर्दू, फ़ारसी और अंग्रेज़ी में महारत हासिल की। बाक़ायदा कॉलेज में जा कर शिक्षा प्राप्त न कर पाने का उनको हमेशा मलाल रहा। उनको बचपन से ही किताबें पढ़ने का शौक़ था। नौ साल की उम्र में उन्होंने अपना पहला शे’र कहा और डरते डरते माँ को सुनाया तो उन्होंने ख़ुशी का इज़हार किया। उनकी आरंभिक ग़ज़लें और नज़्में 1940 ई. के आस-पास अख़्तर शीरानी की पत्रिका “रूमान” के अलावा उस वक़्त के श्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिकाओं “शाहकार” और “अदब-ए-लतीफ़” वग़ैरा में प्रकाशित होने लगीं और अदबी दुनिया उनके नाम से परिचित हो गई। उस वक़्त भी उनकी शायरी में आम नारीवादी शायरी से विद्रोह मौजूद था। उनसे पहले की शायरात ने वैचारिक या शारीरिक संघर्ष का हौसला नहीं दिखाया था।1936 ई. में उर्दू साहित्य में शुरू होने वाले नए आंदोलन ने नए सामाजिक रिश्तों का एहसास और नई एतिहासिक चेतना पैदा की तो अदा जाफ़री भी उससे प्रभावित हुईं। वो अलल-ऐलान प्रगतिशील आंदोलन से सम्बद्ध नहीं हुईं लेकिन उन्होंने अप्रचलित और रूढ़िवाद की बेजा बंदिशों से ख़ुद को आज़ाद कर लिया। 1947 ई. में उनकी शादी ब्रिटिश इंडिया के एक उच्च अधिकारी नूर-उल-हसन जाफ़री से हो गई। देश विभाजन के बाद वो पाकिस्तानी हो गए और 1948 ई. में अदा जाफ़री भी पाकिस्तान चली गईं। जिन इलाक़ों में पाकिस्तान बना उनमें सामाजिक बंदिशें हिंदुस्तानी इलाक़ों के मुक़ाबले में सख़्त थीं और वहां उल्लेखनीय लेखिकाओं के उभरने की संभावनाएं नहीं थीं। अदा जाफ़री की पाकिस्तान में अच्छी आव-भगत हुई। दिलचस्प बात ये है कि अफ़साना के चार बड़े नामों, मंटो, इस्मत, बेदी और कृष्ण चंदर में से इस्मत को छोड़कर सबका ताल्लुक़ उस इलाक़े से था जो अब पाकिस्तान है, जबकि शायरात में अदा जाफ़री के साथ साथ परवीन शाकिर, किश्वर नाहीद और फ़हमीदा रियाज़ सबकी जड़ें हिंदुस्तान में हैं। अदा जाफ़री का पहला काव्य संग्रह 1950 ई. में प्रकाशित हुआ और उसकी ख़ूब प्रशंसा हुई। इसके बाद उनके कई संग्रह प्रकाशित हुए और अदा जाफ़री ने शायरात में अपनी मुमताज़ जगह बना ली। उन्होंने जापानी काव्य विधा हाइकू में भी अभ्यास किया और अफ़साने भी लिखे। उन्होंने अपनी आत्मकथा “जो रही सो बेख़बरी रही” के नाम से प्रकाशित कराई। उसके अलावा उन्होंने प्राचीन उर्दू शायरों के हालात भी कलमबंद किए। अदा जाफ़री ने एक भरपूर संतुष्ट ज़िंदगी गुज़ारी। शौहर के साथ दुनिया के विभिन्न देशों की सैर की और उनके राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति का गहरी नज़र से अध्ययन किया। नव्वे साल की ज़िंदगी गुज़ार कर सन् 2014 में उनका देहांत हुआ।
अदा जाफ़री महज़ एक आधुनिक या नारी लहजा की शायरा नहीं हैं। वो अपनी सृजनात्मक प्रक्रिया में अपने माहौल और आसपास से ग़ाफ़िल नहीं रहीं। उनकी नज़्में उनके राजनीतिक और सामाजिक चेतना का प्रतिबिंब हैं। उन नज़्मों में दर्दमंदी और देशभक्ति प्रमुख है। जबकि ग़ज़लों में ताज़गी, चेतना की परिपक्वता और कला पर मज़बूत पकड़ स्पष्ट है। वो व्यक्तिगत और निजी समस्याओं को समग्र मानवीय समस्याओं के एक प्रतिबिंब के रूप में देखती हैं। उनकी शायरी व्यक्तिगत से ज़्यादा सामाजिक है। उनकी आवाज़ में, बहरहाल,दुख-दर्द, ख़्वाब-ओ-हक़ीक़त, निशात-ओ-मुसर्रत, की एक अपनी दुनिया भी है। वो हर पैराया-ए-इज़हार में सरता सर शायरा रही हैं। ज़िंदगी के प्रमाणिकता का एहसास और ख़्वाबों को वास्तविकता के आईने में संवारने का ढंग अदा जाफ़री का तरीक़ा है और उनकी कला नई उर्दू शायरी के इतिहास का एक चमकता हुआ अध्याय है।