आफ़ताब शाह
ग़ज़ल 22
अशआर 16
वक़्त की कोख में सुलगता सा
मेरी हस्ती का ग़म पहेली है
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हम तो इक तिल पे ही बस ख़ुद को फ़ना कर बैठे
और कितने हैं जमालात कहाँ जानते हैं
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ज़िंदा लोगों को निवालों सा चबाने वाले
मेरी मय्यत पे भी आएँगे ख़ुदा ख़ैर करे
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निकल गया जो कहानी से मैं तुम्हारी कहीं
किसी को कुछ न बताओगे मरते जाओगे
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माँग लेते हैं भरोसे पे कि वो दे देगा
हम ख़ता-कार मुनाजात कहाँ जानते हैं
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