अहमद अशफ़ाक़
ग़ज़ल 10
अशआर 11
किसी की शख़्सियत मजरूह कर दी
ज़माने भर में शोहरत हो रही है
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फ़ासले ये सिमट नहीं सकते
अब परायों में कर शुमार मुझे
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मेरी कम-गोई पे जो तंज़ किया करते हैं
मेरी कम-गोई के अस्बाब से ना-वाक़िफ़ हैं
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ये अलग बात कि तज्दीद-ए-तअल्लुक़ न हुआ
पर उसे भूलना चाहूँ तो ज़माने लग जाएँ
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लगता है कि इस दिल में कोई क़ैद है 'अश्फ़ाक़'
रोने की सदा आती है यादों के खंडर से
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