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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

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अहमद अशफ़ाक़

1969 | क़तर

अहमद अशफ़ाक़

ग़ज़ल 10

अशआर 11

किसी की शख़्सियत मजरूह कर दी

ज़माने भर में शोहरत हो रही है

फ़ासले ये सिमट नहीं सकते

अब परायों में कर शुमार मुझे

मेरी कम-गोई पे जो तंज़ किया करते हैं

मेरी कम-गोई के अस्बाब से ना-वाक़िफ़ हैं

ये अलग बात कि तज्दीद-ए-तअल्लुक़ हुआ

पर उसे भूलना चाहूँ तो ज़माने लग जाएँ

लगता है कि इस दिल में कोई क़ैद है 'अश्फ़ाक़'

रोने की सदा आती है यादों के खंडर से

पुस्तकें 2

 

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