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अहमद जहाँगीर

1980 | कराची, पाकिस्तान

अहमद जहाँगीर

ग़ज़ल 17

अशआर 8

एक तरफ़ कुछ होंट मोहब्बत की रौशन आयात पढ़ें

इक सफ़ में हथियार सजाए सारे जंग-परस्त रहें

हम फ़क़ीरों में राजा की चौकी चढ़े काहिनों में पयम्बर पुकारे गए

दिन निकलने का भी वाक़िआ' है कोई या अभी तक धरी की धरी रात है

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आफ़रीनश के हफ़्ते में छे रोज़ तक एक तस्वीर पैहम बनाई गई

दिन ज़िया-साज़ हाथों से ज़ाहिर हुआ और मुसव्विर की कारीगरी रात है

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तार कस कर कोई रागनी छेड़ दे तवाइफ़ अज़िय्यत भरी रात है

जानती है सराए की हर ऊंटनी इस मुसाफ़िर की ये आख़िरी रात है

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दस मोहर्रम की फ़ाक़ा-शिकन अस्र का सर झुकाए हुए बैठ कर सोचना

चंद फूलों में लिपटी हुई फज्र थी कुछ चराग़ों की नौहागरी रात है

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