अहमद महफ़ूज़ के शेर
सुना है शहर का नक़्शा बदल गया 'महफ़ूज़'
तो चल के हम भी ज़रा अपने घर को देखते हैं
उस से मिलना और बिछड़ना देर तक फिर सोचना
कितनी दुश्वारी के साथ आए थे आसानी में हम
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जो न करना हो वही काम तुम्हारे लिए है
मेरे हिस्से का भी आराम तुम्हारे लिए है
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बिछड़ के ख़ाक हुए हम तो क्या ज़रा देखो
ग़ुबार जा के उसी कारवाँ से मिलता है
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कहाँ किसी को थी फ़ुर्सत फ़ुज़ूल बातों की
तमाम रात वहाँ ज़िक्र बस तुम्हारा था
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नहीं आसमाँ तिरी चाल में नहीं आऊँगा
मैं पलट के अब किसी हाल में नहीं आऊँगा
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यहीं गुम हुआ था कई बार मैं
ये रस्ता है सब मेरा देखा हुआ
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हम को आवारगी किस दश्त में लाई है कि अब
कोई इम्काँ ही नहीं लौट के घर जाने का
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किसी से क्या कहें सुनें अगर ग़ुबार हो गए
हमीं हवा की ज़द में थे हमीं शिकार हो गए
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उसे भुलाया तो अपना ख़याल भी न रहा
कि मेरा सारा असासा इसी मकान में था
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मिलने दिया न उस से हमें जिस ख़याल ने
सोचा तो उस ख़याल से सदमा बहुत हुआ
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अब इस मकाँ में नया कोई दर नहीं करना
ये काम सहल बहुत है मगर नहीं करना
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गुम-शुदा मैं हूँ तो हर सम्त भी गुम है मुझ में
देखता हूँ वो किधर ढूँडने जाता है मुझे
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देखना ही जो शर्त ठहरी है
फिर तो आँखों में कोई मंज़र हो
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दामन को ज़रा झटक तो देखो
दुनिया है कुछ और शय नहीं है
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तारीकी के रात अज़ाब ही क्या कम थे
दिन निकला तो सूरज भी सफ़्फ़ाक हुआ
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यूँ तो बहुत है मुश्किल बंद-ए-क़बा का खुलना
जो खुल गया तो फिर ये उक़्दा खुला रहेगा
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ये शुग़्ल-ए-ज़बानी भी बे-सर्फ़ा नहीं आख़िर
सौ बात बनाता हूँ इक बात बनाने को
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दिल ने लगा दिया है जो इक काम से मुझे
हर दम लड़ाई रहती है आराम से मुझे
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जानता हूँ इन दिनों कैसा है दरिया का मिज़ाज
इस लिए साहिल से थोड़ा फ़ासला रखता हूँ मैं
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मिरी इब्तिदा मिरी इंतिहा कहीं और है
मैं शुमारा-ए-माह-ओ-साल में नहीं आऊँगा
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चढ़ा हुआ था वो दरिया अगर हमारे लिए
तो देखते ही रहे क्यूँ उतर नहीं गए हम
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ये कैसा ख़ूँ है कि बह रहा है न जम रहा है
ये रंग देखूँ कि दिल जिगर का फ़िशार देखूँ
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शोर हरीम-ए-ज़ात में आख़िर उट्ठा क्यूँ
अंदर देखा जाए कि बाहर देखा जाए
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तेरी इक बात निकाली थी कि रात
कितने ही बातों के पहलू निकले
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ये जो धुआँ धुआँ सा है दश्त-ए-गुमाँ के आस-पास
क्या कोई आग बुझ गई सरहद-ए-जाँ के आस-पास
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ज़ख़्मों को अश्क-ए-ख़ूँ से सैराब कर रहा हूँ
अब और भी तुम्हारा चेहरा खिला रहेगा
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क्या मुसीबत हाथ ख़ाली जाएगी
जान ले कर ही ये साली जाएगी
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ज़ेहन पर ज़ोर भी डालो तो न याद आऊँ मैं
इस तरह पर्दा-ए-निस्याँ में छुपा लो मुझ को
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दिल में मिरे कुछ और था लेकिन कहा कुछ और
अच्छा हुआ कुछ और से समझा गया कुछ और
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उसे ये ज़िद थी कि फिर उस का तज़्किरा होता
मैं चुप रहा कि वो क़िस्सा पुराना हो गया था
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देखिए अब के उलझता है तो क्या करता है वो
उस के आगे फिर नया इक मसअला रखता हूँ मैं
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ख़ुश हुए इतने कि हम से पहले
मक़दम-ए-यार को आँसू निकले
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क्या तमाशा है कि आवारा फिराती है मुझे
इक तमन्ना कि मिरे ज़ेर-ए-असर कोई हो
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अपने ही अक्स का चक्कर तो नहीं चारों तरफ़
कि नज़र आते हैं अब ख़ुद को हमीं चारों तरफ़
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शायद कि रिहाई हो गुल ही की ज़मानत पर
हम मौज-ए-तबस्सुम की ज़ंजीर के क़ैदी हैं
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तुम अभी तर्क-ए-रिफ़ाक़त का इरादा न करो
इस के आगे भी तो मुमकिन है ख़बर कोई हो
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